कोई घर छोड़ने का निर्णय कैसे लेता होगा? क्या इसके लिये घर परिवार की अन्दरुनी परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं या बाहरी कोई गति? मेरे मौसाजी के भाई थे। दिमाग से थोड़ा सुस्त। पागल नहीं थे। बस थोड़ा अलग थे। जरुरी नहीं कि पैदाईशी ही रहा हो।
हमारा समाज ही इतना महान है कि अगर आप सीधे साधे हैं तो यह समाज आपको हरवक्त नीचा दिखाने की, आपसे झूठ बोलने की कोशिश करेगा। गाँव घर के लोग आपका मजाक उड़ायेंगे। कभी कभी यह मजाक सामूहिक पिटाई की शक्ल भी ले लेता है। इससे वो इंसान दब्बू फिर कुंठित और फिर सोझबकाह(गैर दुनियादार) होता चला जाता है। और कहते हुए अच्छा तो नही लग रहा, पर कहना तो पड़ेगा कि यही सारा कुछ अक्सर ऐसे लोगों के घरों में भी होता है। मैने घर छोड़ने के किस्से तमाम सुने हैं, एक लिख भी रहा हूँ(पता नहीं कहानी में क्या होगा) पर जो मैनें आंखो देखी है उसमे ज्यादातर घटनायें घर परिवार के दबाव में घटी हैं।
हमारा समाज ही इतना महान है कि अगर आप सीधे साधे हैं तो यह समाज आपको हरवक्त नीचा दिखाने की, आपसे झूठ बोलने की कोशिश करेगा। गाँव घर के लोग आपका मजाक उड़ायेंगे। कभी कभी यह मजाक सामूहिक पिटाई की शक्ल भी ले लेता है। इससे वो इंसान दब्बू फिर कुंठित और फिर सोझबकाह(गैर दुनियादार) होता चला जाता है। और कहते हुए अच्छा तो नही लग रहा, पर कहना तो पड़ेगा कि यही सारा कुछ अक्सर ऐसे लोगों के घरों में भी होता है। मैने घर छोड़ने के किस्से तमाम सुने हैं, एक लिख भी रहा हूँ(पता नहीं कहानी में क्या होगा) पर जो मैनें आंखो देखी है उसमे ज्यादातर घटनायें घर परिवार के दबाव में घटी हैं।
अनचाही यायावरी के इस जीवन में जाने कितनी ऐसी तस्वीरें मिलती हैं जिनमें लोगों को लौटने की रुला देने वाली अपील होती है। बचपन में दूरदर्शन ने भी कितना दिखाया! पर आज तक कोई ऐसी खबर मुझे नही मिली जिसमें किसी के वापसी की कोई खबर हो। जैसे मेरे मौसाजी के भाई। वो दो बार घर से भागे और दो बार उन्हे हैदराबाद से खोज कर लाया गया(ऐसा लोग दावा करते हैं) पर तीसरी बार नहीं! मैं आठ साल का रहा हूँगा पर आज भी मुझे उनके खाते समय की शक्ल याद है। यह आखिरी वाक्य कहने के पीछे एक कारण है वो यह कि --
मेरे तमाम स्वप्न हैं। उसमे से एक यह भी है कि काश कभी किसी ऐसे इंसान को, जो गुम हो गया है, उसे उसके परिवार से मिला सकूँ। जब कोई अभागी तस्वीर देखता हूँ तब मैं चेहरे को याद करता हूँ और फिर इधर उधर लोगों के चेहरे देख उस तस्वीर से मिलाता हूँ। घंटे दो घंटे में ऐसा होता है, सैकड़ों लोगों के सजीव चेहरे देखते रहने के बाद सारे चेहरे गड्डमड्ड होने लगते हैं और वो तस्वीर वाला चेहरा ध्यान से उतर जाता है।
इनदिनों मेरे कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण स्वप्न असफल और अधूरे रह जा रहे हैं। निराशा है पर जब “आप ही मरीज और आप ही हकीम” का जीवन जिया जाता है तब कितना कुछ सकारात्मक जानबूझ कर सोचना पड़ता है। और यह सकारात्मक सोचना कितना अच्छा है जब सारे स्वप्न ध्वस्त हो रहे हों तो क्या पता यह स्वप्न पूरा हो जाये।
मेरे तमाम स्वप्न हैं। उसमे से एक यह भी है कि काश कभी किसी ऐसे इंसान को, जो गुम हो गया है, उसे उसके परिवार से मिला सकूँ। जब कोई अभागी तस्वीर देखता हूँ तब मैं चेहरे को याद करता हूँ और फिर इधर उधर लोगों के चेहरे देख उस तस्वीर से मिलाता हूँ। घंटे दो घंटे में ऐसा होता है, सैकड़ों लोगों के सजीव चेहरे देखते रहने के बाद सारे चेहरे गड्डमड्ड होने लगते हैं और वो तस्वीर वाला चेहरा ध्यान से उतर जाता है।
इनदिनों मेरे कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण स्वप्न असफल और अधूरे रह जा रहे हैं। निराशा है पर जब “आप ही मरीज और आप ही हकीम” का जीवन जिया जाता है तब कितना कुछ सकारात्मक जानबूझ कर सोचना पड़ता है। और यह सकारात्मक सोचना कितना अच्छा है जब सारे स्वप्न ध्वस्त हो रहे हों तो क्या पता यह स्वप्न पूरा हो जाये।
7 comments:
बहुत मार्मिक लेख ....शुभकामनये .....आपका स्वप्न जरूर पूरा हो
वे दूरदर्शन के दिन थे, जब गायब होने वालों की तस्वीरें और साथ में पता भी आता था, पता भी क्या होता था, प्रायः किसी पुलिस स्टेशन का ही होता था. दूरदर्शन के चैनलों पर ये अभी भी आता है,
रेलवे स्टेशन पर टिकेट खिड़की के पास भी बिछोहों की ये इबारतें खूब मिल जाती हैं.
नाम और चेहरों के सिवा सब कुछ एक ही रहता है.
शब्द याद रह जाते है, चेहरे नहीं.
तस्वीरों के चेहरे, काश कि याद रहते,और काश कि किसी को घर छोड़ने की नौबत नहीं आती.
आपकी कहानी की प्रतीक्षा है.
मेरी शुभकामनायें
Its very emotional post,one of my very close one also went away somewhere many years ago, but i was lucky in that case because we got news of that person in 15 days....... but i remember, how those 15 days were moving, its very tough Chandan!!!!!
You raised a very sensitive topic, all of sudden i am at those 15 days of agony.... Even after 8 years,it seems like a fresh wound....
Chandan!!!! after reading your post first time i felt many dreams falling from your eyes,sometimes we have to be optimistic in spite of knowing the fact that its of no use.... But I'll just wish you ALL THE BEST for making your dreams true......
main bhi bachpan mein ek do baar bhaga hun school hostel se. mere bachpan ne har jagah feudalism dekha, school mein, hostel mein,ghar mein.guru hain, sawaal mat karo, bade hain, panv chhhuo, jabaan mat ladao. shayad mere ghar ke jaanwar mujhse jyada attention pate the us waqt, samay par unhe khan milta tha aur nahlaate bhi the unhe. mujhe samajhne ki koshish nahi ki gayi, koi sawaal karne ki aazadi nahi, badalte huye jamaane ki jaruraton par kabhi dhyaan nahi diya gaya. maine jo chaha, jyadatar cheezein mili nahi. Mila zula ke kahun to achhi parwarish nahi hone ki wajah se frustation mein raha. mujhe lagta hai log apne bachhon ke parwarish ki training lein kahin, ya kuchh padhen likhein parwarish ke bare mein, unse dosti ka rishta rakhein, to cheezein badal sakti hain. - Ranjeet
Tumhari ek kahani bhi hai na, jisme ek ladki apni man ko dhhundti hai...
KUTUMB me aisa ho chuka hai kai baar jab humare bachho ko unke parents khojte hue aa jate hai...lekin kai bar aisa bhi hota hai ki wo le jana nahi chahte...aur kai bar bachhe jana nahi chahte...phir bhi kai aise bachhe hai jinke liye hume intzar hai ki koi kabhi jarur aayega...!
Aapka ye blog padh ke phir se wada kiya apne aap se ki unhe jarur le jaunga waha jaha wo jana chahte hai. Thanks!
...Vivek
chandan bhai kya haal chal hai, net par bhi tumhara rozgar achchha laga.
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