सोचता हूं उस सर्द सुबह को कि जिसमें गया था मिलने तुम्हें,
वहां जहां हवाना जाना चाहता है खेतों की खोज में,
वहां तुम्हारे रौशन उपांत में।
मैं अपनी रम की बोतल
और अपनी जर्मन कविताओं की किताब के साथ,
जो आखिरकार तुम्हें दे आया था तोहफे में।
(या फिर रख लिया था तुमने ही उसे?)
माफ करो, लेकिन उस दिन
मुझे दिखी थी तुम एक छोटी अकेली बच्ची,
या शायद एक भीगी नन्ही गौरैया।
पूछना चाहा था तुमसे:
और तुम्हारा घोसला? और तुम्हारी मां, पिता?
लेकिन नहीं पूछ पाया था।
तुम्हारे कुर्ते के वितल से,
जैसे गिरीं थीं दो गिन्नियां एक कुंड में,
तुम्हारी छातियों ने बहरा कर दिया था मुझे अपने शोर से।
.........निकोलस गियेन। (कवि परिचय यहाँ)
..........अनुवाद: श्रीकांत।
9 comments:
इनकी पिछली कविता की यह लाइन याद रह गयी थी...
" बूंदें जैसे ठंड से कापती कोई तिल किसी गुलाब पर"
और यहाँ यह
तुम्हारे कुर्ते के वितल से,
जैसे गिरीं थीं दो गिन्नियां एक कुंड में,
तुम्हारी छातियों ने बहरा कर दिया था मुझे अपने शोर से।
शुक्रिया...
अच्छी कविता है यह । धन्यवाद ।
अच्छी कविता। अच्छा अनुवाद। धन्यवाद,श्रीकांत।
अद्भुत.....ओर शानदार .....
yaar Srikant anuvaad to khair umda hai hi kavita ka chunav v lajawab hai. badhai..
nice translation Srikantji
अच्छा लगा अनुवाद पढ़कर.
आप सभी को शुक्रिया.
श्रीकांत
there is no obstacle,we can approach directly to the original sense of poetry,nice translation.
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