Saturday, February 13, 2010

“चलना” को संज्ञा होना चाहिये था

किसी नितांत निचाट सड़क पर
तुम्हारे साथ
होता हूं जब भी
मैं सोचता हूं
कि चलना
यदि क्रिया नहीं होती
होती कोई वस्तु
काँच या मिट्टी से बनी
तोड़कर रख लेता
एक टुकड़ा उसका
अपने झोले में
और जब भी होता अकेलापन
(यद्यपि मेरे साथ
तुम्हारी गैर मौजूदगी में
मौजूदगी का ही
दूसरा नाम है अकेलापन)
निकालता उस टुकड़े को
और निकल पड़ता
किसी अंतहीन सड़क पर.

.......चन्द्रिका(परिचय और अन्य कवितायें ठीक यहाँ!)

2 comments:

Aparna Mishra said...

how beautifully u expalained & thought of noun & adjective, i mean v all use this in our daily life but the way u expressed is beyond my words at least.......... Thanks Chandrika for letting us raed these kind of imagination.....

May we read many more of yours poem.........

अनिल कान्त said...

unki kavita padhvane ke liye aapka bahut bahut shukriya