Thursday, February 4, 2010

नींद में खड़ी रहे रेलगाड़ी

जब शहर में तुम नहीं होती
तो रहें वे सारी चीजें
जिन्हें छोड़कर तुम चली गई
स्टेशन पर खड़ी थी जो रेलगाड़ी
कुछ दिनों तक नींद में पड़ी रहे
घड़ी में सात बजें
और समय थककर बैठ जाय
खो जायें चाभियाँ बाज़ार के दुकानों की
मेरी जेब में बचे रहें
छाछठ रूपये नब्बे पैसे
चप्पलें बीमार होकर पड़ी रहें
दरवाजे के बाहर

तुम्हारे आने तक
बचाना चाहता हूं इन्हें ऐसा
कि तुम कहीं गयी ही नहीं
शहर से.
......चन्द्रिका (कवि परिचय यहाँ)

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

गज़ब!!

Unknown said...

लाजवाब! कितने कितने कोण है प्रेम के और कितने कितने समय तक खुलती रहेंगी यह गाँठे। एक बार पुन: धन्यवाद।

अनिल कान्त said...

shukriya iske liye

Shrikant Dubey said...

Amazingly Fabulous Sir! I am mesmerized!!!

Aparna Mishra said...

Such an outstanding presentation of missing the beloved, and desperation to see her again.... Its very nice to read such compositions.... Chandrika i would like to read you more