जब शहर में तुम नहीं होती
तो रहें वे सारी चीजें
जिन्हें छोड़कर तुम चली गई
स्टेशन पर खड़ी थी जो रेलगाड़ी
कुछ दिनों तक नींद में पड़ी रहे
घड़ी में सात बजें
और समय थककर बैठ जाय
खो जायें चाभियाँ बाज़ार के दुकानों की
मेरी जेब में बचे रहें
छाछठ रूपये नब्बे पैसे
चप्पलें बीमार होकर पड़ी रहें
दरवाजे के बाहर
तुम्हारे आने तक
बचाना चाहता हूं इन्हें ऐसा
कि तुम कहीं गयी ही नहीं
शहर से.
तो रहें वे सारी चीजें
जिन्हें छोड़कर तुम चली गई
स्टेशन पर खड़ी थी जो रेलगाड़ी
कुछ दिनों तक नींद में पड़ी रहे
घड़ी में सात बजें
और समय थककर बैठ जाय
खो जायें चाभियाँ बाज़ार के दुकानों की
मेरी जेब में बचे रहें
छाछठ रूपये नब्बे पैसे
चप्पलें बीमार होकर पड़ी रहें
दरवाजे के बाहर
तुम्हारे आने तक
बचाना चाहता हूं इन्हें ऐसा
कि तुम कहीं गयी ही नहीं
शहर से.
......चन्द्रिका (कवि परिचय यहाँ)
5 comments:
गज़ब!!
लाजवाब! कितने कितने कोण है प्रेम के और कितने कितने समय तक खुलती रहेंगी यह गाँठे। एक बार पुन: धन्यवाद।
shukriya iske liye
Amazingly Fabulous Sir! I am mesmerized!!!
Such an outstanding presentation of missing the beloved, and desperation to see her again.... Its very nice to read such compositions.... Chandrika i would like to read you more
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