Thursday, February 18, 2010

पता: श्रीकांत की कविता

आम बात है पड़ोसी राहगीर से कहीं का पता पूछ लेना और उतना ही कठिन है उसे आसानी से जान लेना तथा पहुँच पाना वहां तक. लोग जो बता सकते हैं कोई पता और जो लोग नहीं बता सकते उसे उनके चेहरे पता पूछने से पहले से बता रहे होते हैं की वह उस जगह का पता जानते अथवा नहीं जानते हैं. फिर भी हमारे साथ यह अक्सर होता है की हम किसी से पूछें कोई पता और खुद को अनजान बताने वाला एक इशारा कर दे. इसका एक सीधा मतलब यह हो सकता है कि उसे वह पता मालूम ही नहीं है लेकिन ठीक उतनी ही संभावना इसकी भी है कि उसे मालूम है सब कुछ लेकिन वह पता पाने कि अपनी क्षमता पर आश्वस्त नहीं हो पता.

उदाहरण के लिए मेरे मोहल्ले का वह उम्रदराज आदमी जिसे वर्षों से किसी चीज़ का इंतज़ार नहीं है और समय का हरेक क्षण चुपचाप उसके अक्सर खुले मुह में बीत जाता है, जो वर्षों पहले अपने बेटे द्वारा उस छोटे कस्बे से किसी सामान, या परंपरा के रूप में ढोई जाने वाली किसी विरासत के तौर पर इस महानगर में उठा लाया गया था और जिसके पास कभी सत्तर मील उत्तर की पहाड़ी के पार उगने वाली पीली घास से लेकर दुनिया के तमाम देशों के मौसम, हवा और परिंदों तक का पता हुआ करता था, आज अपने पड़ोसी का नाम या उसका मकान नंबर नहीं बता सकता. कभी कभी किसी उजली रात में जब वह आपने घर के बाहर कि सड़क पर धीमे क़दमों से टहल रहा होता है, देर तक अपने मोहल्ले का नाम याद करता है और कुछ ऐसी ही कोशिश के बाद उसे अपना नाम भी याद आता है.

मैं भटकता हूँ दिन रात मन में उपजाता हूँ कोई पता, गो कि सी-२५, आवास विकास कालोनी, सूरजकुंड, लोगों से पूछता हूँ उसका रास्ता और अक्सर उसे ढूंढकर लौट आता हूँ ऐसा उस अजीब पशोपेश की वजह से होता है जिसमे मेरे शहर के बड़े हिस्से के पता वाले घर और उनके बाशिंदे मुझे हू ब हू एक से दिखने लगे हैं इन दिनों.

12 comments:

प्रदीप जिलवाने said...

पहली बधाई स्‍वीकारें.

शिरीष कुमार मौर्य said...

doosri badhaai sweekar karein.

giri aur vyom ke baad ab shrikant bhi usi raah....achchhaa lag raha hai. ant tak aate aate na jane kyon arun kamal ki "nae ilake mein" ki bhi yaad aayi.

shrikant tumse anunaad ke liye kavita maangni thi, yahin "nai baat" par hi maang leta hun. bhejo...
***

Udan Tashtari said...

सच कहा बहुत कठिन है जान लेना!

Samay Sakshya said...

ठीक बात है

Dev said...

बहुत बढ़िया लेख .....

Kumar Mukul said...

आपने मनोजगत को अभिव्‍यक्‍त करने वाली अच्‍छी कविता संभव की है...

गौतम राजऋषि said...

सुंदर...अलग-सी।

सुधांशु said...

mahanubhav thought achha hai... par kavita kharab...tum kahanikar bhi ho vyomesh shukl ki tarah tumhe abhi wakti ke madhyam ka khatra nahi hai thora intazar karo...mehnat karo shilp ko aane do...

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प....

अनिल जनविजय said...

बेहद अच्छी कविता है, श्रीकान्त जी! अच्छी और सच्ची।

शशिभूषण said...

श्रीकांत जी,यहाँ कहन में कविताई तथा गंभीरता तो है पर यह गद्य के सामने लाचार कविता है.कविता का अपना शिल्प अतना असमर्थ भी नहीं.मैं व्यक्तिगत रूप से इसे कविता का कमज़ोर शिल्प मानता हूँ.हिंदी कविता का इसे स्वभाव मानने में भी मुझे आपत्ति रही है.मैं बहुत सी कविताओं को खलील जिब्रान,अमृता प्रीतम,जे.कृष्णमूर्ति,ओशो के गद्य पर न्यौछावर कर सकता हूँ पर इन्हें कवि कहने से बचना चाहता हूँ.फिरदौस जी को आप सुन रहे हैं न?यह सही इशारा है.मुझे उम्मीद है आप मेरी यह आलोचना भी बर्दाश्त करेंगे.

Shrikant Dubey said...
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