नई बात के पहले सर्वे के लिये अपनी कीमती राय और वोट के लिये आप सबको धन्यवाद। इस बार का प्रश्न था; आप महीने मे कितनी पत्रिकायें पढ़ते हैं? जो जवाब आये उनसे स्थिति बेहद आशाजनक दिखती है। पैंसठ फीसदी लोगों ने कहा कि वे पाँच या उससे अधिक पत्रिकायें एक महीने मे पढ़ते हैं जबकि दस फीसदी लोगों ने अपना वोट क्रमश: एक, तीन और चार पत्रिकाओं के पक्ष मे रखा। वहीं पांच फीसदी लोगो ने कहा, वे महीने मे एक पत्रिका ही पढ़ पाते हैं। इन परिणामों के बाकायदा विश्लेषण को आप पर छोड़ते हुए एक महीन सी बात रखना चाहूँगा कि इस सवाल को पढ कर जिन मित्रो ने फोन पर बात चीत की उन्होने यह स्वीकार किया कि वे “पढ़ने, ना पढ़ने, क्या पढ़े,” जैसे मूलभूत सवालों से दो चार हुए। एक मित्र ने यह भी कहा, “ मुझे तो कोई पत्रिका देखे भी महीना हो गया है”।
अगले हफ्ते का सवाल है : आप दिन के चौबीस घंटों मे से कितना समय फोन/मोबाईल पर बिताते है?
4 comments:
पढ़ने के विषय में बात करना थोड़ा भिन्न है.अगर आप खाना खाने जा रहे हैं,सिगरेट या शराब पीनेवाले हैं तो सामने मौजूद शख्श से इस बावत पूछकर शिष्टता का परिचय देते हैं.पर अगर आप किसी से पढ़ने को पूछ लेते हैं तो सबसे पहले आप ही झेंपते हैं.अब यदि आप ठीक ठाक लेखक हैं तो अपनी किसी रचना को पढ़ने के लिए कहते हुए बाक़ायदा सोचेंगे सामनेवाला बेवज़ह भाव खाएगा.सामनेवाला इसे आत्मप्रचार समझकर मुह बिचका सकता है.सबसे अच्छा तो ये समझा जाता है कि क्या पढ़ा जाए ये तब बताएँ जब कोई इंटरव्यू दें.इसलिए बहुत सी बातों में से एक बात ये कि पढ़ने के विषय में लोकरुचि बढाने के संबंध में काम किया जाए.अभी भी लोग बहुत पढ़ते हैं-शशिभूषण
जैसा की रविन्द्र नाथ Tagore ने कहा था की "आप किताबों को नहीं किताबे आपको चुनती ह"ै,और में इसे सच मानता हूँ.इस प्रक्रिया में open रहा जाये तो मदद ही होगी अपने आप को.कहने का मतलब उद्देश्य है की कैसे भी करके अच्छी किताब तक पंहुचा जiय,कैसे भी:-)
amit
प्रिय भाई चंदन पाण्डेयजी,
आपका ब्लॉग देखा. गीतजी ने राह दिखाई. इंटरनेट पर इस नई इनिंग/पारी के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकारें. खैर आपका प्रश्न अच्छा है लेकिन मैं क्या उत्तर दूं. ज्यादातर पञ-व्यवहार में यकीन रखता हूं. फिर भी जितनी जरूरत हो बात करता हूं. बमुश्किल दिन में पंद्रह मिनट. इसलिए कोई विकल्प न होने से वोट नहीं कर पा रहा हूं. क्षमा.
बहरहाल 'नई बात' के लिए शुभकामनाएं...
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