Sunday, September 12, 2010

भाषा पारदर्शी शीशा है जिसकी याद पर कुहासा जम गया है.

ये लोग ही नहीं कहते, मैं भी देखता हूँ कि मेरे लेखन में वर्तनी सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ मेरे ना चाहते भी हो जाती है. इन गलतियों से नुकसान यह होता है कि कहानी में कथ्य और विचार की जगह लोग इन अशुद्धियों पर रुक और फंस जाते हैं. भाषा की यह गलती होती भी अक्षम्य है और इसे सुधारने के तमाम प्रयास मैं लगातार करता रहता हूँ. जैसे रिवॉल्वर पूरी करने के बाद मैं कई-एक दिन डॉ. वासुदेव कुमार की व्याकरण पुस्तक “हिन्दी व्याकरण एवम रचना” पढ़ता रहा. आगे भी पढ़ता रहता पर कुछ ऐसी अभागी मुश्किले दरपेश आई हैं कि कुछ भी पढ़ना लिखना नहीं हो पा रहा है.

इसके प्रयास तो चलते रहेंगे पर अभी हम इससे जुड़ी कुछ अच्छी बातें करेंगे.

बात तबकी है जब मैं कक्षा तीन का विद्यार्थी हुआ करता था. हुआ यह कि विश्वनाथन आनन्द का जलवा टूटे तारों की तरह हर जगह बिखरा था और देखा-देखी मुझे भी शतरंज खेलने का चस्का लगा. जीवन के चार चस्के बहुत सुन्दर पर जानलेवा निकले. शतरंज, क्रिकेट, साहित्य और चौथे की याद अभी नहीं आयेगी. शतरंज खेलना सीखा. खेलना क्या सीखा कि सारा सारा दिन शतरंज खेलने लगा. हॉस्टल में छुट्टियों का मौसम चल रहा था और एक मित्र था – धीरेन्द्र, जिसने मुझे शतरंज खेलना सिखाया. पहले जब मैं हारता था तब धीरेन्द्र मेरे साथ लगातार आठ आठ बाजियाँ खेलता था. पर दिन पलटे. मैंने खेलना सीखा और मित्र धीरेन्द्र पर भारी पड़ने लगा. शतरंज खेलने वाले जानते हैं कि इस खेल में मिली हार कितनी तकलीफदेह होती है. ऐसे में एक दिन धीरेन्द्र ने शतरंज का बोर्ड फाड़ दिया. पर अब मुझे इसकी लत लग चुकी थी. फिर धीरेन्द्र भी शौकीन तो था ही. हमने मिलजुल कर एक प्लान बनाया.

मैने जीवन में पहली बार पापा को पत्र लिखा. पत्र का विषय था कि पापा मुझे सारे खर्च से अलग शतरंज खरीदने के लिये बीस रूपये चाहिये. विषय को स्थापित करने की गन्दी आदत शायद मुझे उनदिनों भी थी कि पत्र लम्बा हो गया और लम्बा होकर मेरे ही गले की हड्डी बन गया. पैसे, पापा खुद लेकर पापा आये और साथ में वह पत्र भी. भारी मुश्किल. उन्होने वह पत्र प्रधानाचार्य के सामने रख दिया: उसमें भाषा की अनगिन गलतियाँ थीं जिनपर पापा ने बाकायदा निशान लगा रखा था. मेरे पापा की दो खास आदतें हैं. पहली: वे बोलते बहुत कम हैं. दूसरी: जब बोलते हैं, निर्णायक बोलते हैं.

पता नहीं उनमें और प्रधानाचार्य में क्या बात हुई कि स्कूल के सिस्टम में ऐसा परिवर्तन आया जिसे ‘लगभग आमूलचूल परिवर्तन’ की श्रेणी में रख सकते हैं. कक्षा दो से लेकर कक्षा नौ तक की घंटियों में बदलाव आ गये. हर कक्षा में दो घंटियाँ (पीरियड्स) श्रुतिलेख की शुरु हो गई. यह दोनों घंटियाँ एक ही शिक्षक के हवाले की गई. शिक्षक भी वह जो छात्रों की पिटाई में नव्यतम प्रयोग कर सके. हमें एक दिन पूर्व ही पाठ बता दिया जाता था. उस पाठ को हम पढ़कर आते थे क्योंकि अगले दिन का श्रुतिलेख उसी पाठ से होना होता था. फिर भी अगर कोई भूल हो गई तो सजा..और सजा भी ऐसी कि बता देने से उसका असर कम हो जायेगा. और फिर, भूलने की महान बिमारी मुझे उन दिनों भी थी.

किस्सा कोताह यह कि उनदिनों से लेकर बारहवीं तक मैं अमूमन किसी गलती का शिकार नहीं हुआ. मेरी लिखावट भी ऐसी नहीं जो आमजन से अलग हो और उसे देखकर आमजन ईर्ष्या करने लगे, बल्कि यों कि मेरा लिखा सुथरा होता है और आप आसानी से यह पहचान ले जायेंगे कि ये जो कुछ लिखा है हिन्दी में ही लिखा है :(.

सबसे जरूरी बात सबसे आखिर में: पापा की निगाह में भाषा का इतना महत्व क्यों था ये तो अब समझ पा रहा हूँ जब चाह कर भी उन शब्दों और उस भाषा के सहारे म्हे कंविंस नहीं कर पा रहा पर पापा ने मेरी भाषा सुधार के लिये एक प्रयास और किया. पहले नन्दन और चन्दामामा मुझे हॉस्टल से घर तथा घर से हॉस्टल की लम्बी और अझेल रेलयात्राओं में पढ़ने को मिलती थी और उसमें भी चन्दामामा को पहले पापा ही पढ़ते थे. मेरी उस गलती के बाद मेरे पास चार पत्रिकायें नन्दन, चन्दामामा, बालहंस और सुमन सौरभ हर महीने मिलने लगी.

इन पत्रिकाओं ने मेरे लिये बाहरी दुनिया के जंग लगे दरवाजे खोले. मैं उन कहानियों को अकेले ही पढ़ता और जीता था. दूसरे, इन्ही पत्रिकाओं से होते हुए मैं बेहद जल्द यानी कक्षा पाँच तक आते आते प्रतियोगिता दर्पण तथा प्रतियोगिता किरण तक आ गया था. पत्रिका वाले हॉकर अंकल ने फोटोग्राफी से समबन्धित पत्रिकायें भी भिजवाई. लगातार. और मनोहर कहानियों तथा दफा 302 आदि कभी नहीं भिजवाया.

उन्होने ही कॉमिक्स पढ़ने की लत लगाई. जिसमें सुपर कमांडो ध्रुव मेरा चहेता था. नागराज का ड्रेस सेंस मुझे उनदिनों से ही कमपसन्द था जो आज भी है. बाद के दिनों में भोकाल, परमाणु तथा डोगा भी अच्छे लगे पर बांकेलाल कभी अच्छा नहीं लगा और ना ही तौशी. पिंकी बबलू टाईप कॉमिक्स के लिये मुझे बचपन से लगता था कि मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि पिंकी बबलू को पढूँ. चाचा चौधरी को तो अब पढ़ा जब भांजी प्राची को उसे पढ़ पढ कर सुनाने का काम खुद को ही सौंपा था. अलबत्ता राम रहीम इसलिये अच्छे लगते थे कि उनके जैसा बनने का मन करता था. यह सब इसलिये कह रहा हूँ कि घर परिवार की स्थिति यह थी जहाँ इन जरुरतों को गैरजरूरी कह कर आराम से खारिज किया जा सकता था. पर अब वो भी बीती बात हुई.

शतरंज का जीवन में बड़ा योगदान रहा. शतरंज खेलते हुए कम ही हारा पर ऐसा कुछ होता गया कि खेलने के मौके ही कम मिले. ईर्शी फ्रीड का उपन्यास बाहर और परे पढ़ते हुए लगा कि यह उपन्यास मेरे लिये ही लिखा गया है.

इन प्रयासों से मेरी भाषा सुधरी थी. बारहवीं तक मेरी कॉपी में एक भी भूल नहीं हुआ करती थी. पर शायद जितनी याद मेरे भीतर भाषा की थी उस पर पर्दा पड़ गया है जो जल्द ही ठीक हो जायेगा .आगे की रचनाओं में यह कोशिश रहेगी कि भाषा का कोई तिरस्कार जाने अनजाने ना हो.

9 comments:

आशुतोष पार्थेश्वर said...

सुंदर, और क्या कहूँ, सुंदर !

prabhat ranjan said...

बहुत अच्छा और आत्मीय गद्य. मैंने मार्खेज़ की आत्मकथा में पढ़ा है कि वे जब हॉस्टल में रहते थे और अपनी माँ को पत्र लिखते तो उनकी माँ उन पत्रों की भाषा ठीक करके उनको भेज दिया करती थी. हम जिससे बहुत लगाव रखते हैं उन संबंधों को लेकर एक तरह की लापरवाही भी हमारे अंदर आ जाती है, मैं भाषा की तथाकथित अशुद्धियों को भी ऐसे ही संबंध की तरह देखता हूँ.

anurag vats said...

Audacious...very much of ur own kind...

Bodhisatva said...

व्यक्तिगत जीवन के बारे में लिखा हुआ खूबसूरत पन्ना है ये...
जहाँ तक भाषा में गलती का सवाल है मैं तो बहुत अज्ञानी हू इस मामले में तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन इतना जरुर मालूम है की व्याकरण की किताब लिखने वाले लोग वो नहीं लिख पाते जो आपने लिखा और जो आपने दिया अपने पाठकों को...इसलिए आम पाठक को तो कभी भाषा से इतनी शिकायत नहीं होगी...फिर भी आप अगर इतना सोचते है तो बहुत अच्छी बात है.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

किसी राईटर के नोट्स जैसा कुछ.. बहुत कुछ बताता और सिखाता हुआ..

अनूप शुक्ल said...

बहुत प्यारा लगा इसे पढ़ना। खूबसूरत!

Aparna Mishra said...

Its beautifully written.....

डॉ .अनुराग said...

किताबे हमारे लिए उस दुनिया के दरवाजे भी खोलती है .जिसमे से हम गुजर नहीं पाते या गुजर कर देख नहीं पाते ......अगर वाकई ब्रेन को कोई डाइरेक्शन देता है तो वो किताबे ही है .....

सागर said...

शुक्रिया भाई, मुझे बहुत पसंद आई, भाषा सम्बन्धी गलतियाँ मैं भी बहुत करता हूँ, विशेष कर स्त्री-पुल्लिंग सम्बन्धी गलतियाँ बहुत होती हैं... कैसी बार लिखने के झोंक में कैसी बार वाकई पता नहीं होता कि ये स्त्रीलिंग हैं या पुल्लिंग ...

आपने अच्छी चीज़ साँझा की... धन्यवाद