Thursday, September 30, 2010

मार्क स्ट्रैंड की कवितायें

आज अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस है और वरिष्ठ अमेरिकी कवि मार्क स्ट्रेंड की इन कविताओं का अनुवाद मनोज पटेल ने किया है.


रोशनी का आना


इस उम्र में भी होता है ऐसा
प्रेम आता है और आती है रोशनी
आप जागते हैं और शमाएं जल उठती हैं खुद-ब-खुद
जुटते हैं सितारे, तकिए पे उमड़ पड़ते हैं ख्वाब
बहती है हवा खुशनुमा

इस उम्र में भी दमकती हैं बदन की हड्डियाँ
और कल की गर्द भर उठती है सांसों में.


एकजुट रखने के लिये


मैदान में
मैं हूँ मैदान की अनुपस्थिति
यही होता है हमेशा
जहाँ भी होता हूँ मैं
मैं ही होता हूँ अनुपस्थित.


अपने चलने से मैं
बांटता चलता हूँ हवा को
यही होता है हमेशा
हवा जल्दी से भर देती है वो जगह
जहाँ से अभी-अभी हुआ हूँ मैं अनुपस्थित.

हम सबके पास अपने-अपने कारण हैं चलने के
मैं चलता हूँ
चीजें
एकजुट रखने के लिये.
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Friday, September 17, 2010

इतालो काल्विनो की किताब मिस्टर पालोमर का एक अध्याय : बेमेल चप्पल

पूर्वी देशों की अपनी यात्रा पर मिस्टर पालोमर ने एक बाजार से एक जोड़ा चप्पल खरीदी. घर वापस आकर जब वे उसे पहनने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि एक चप्पल दूसरी के मुकाबले कुछ बड़ी है और वो उनके पैर में रुकेगी. उन्हें बाजार के एक कोने हर आकर-प्रकार की चप्पलों के ढेर के सामने दुबके बैठे बूढ़े विक्रेता का ध्यान आया कि कैसे वह चप्पलों के ढेर से ग्राहक के पैरों के नाप की चप्पल को तलाश निकालता, उसे पहनाकर जांचता, फिर उस चप्पल की अनुमानित जोड़ीदार की तलाश शुरू करता जिसे मिस्टर पालोमर ने बिना नापे ही स्वीकार कर लिया.

"शायद इस समय" मिस्टर पालोमर सोचते हैं "उस देश में एक और शख्स बेमेल चप्पल की जोड़ी पहने घूम रहा होगा. " और वो एक दुबली-पतली छाया को रेगिस्तानी इलाके में लंगडाकर चलते देखते हैं, उसके पैरों से हर कदम पर चप्पल बाहर छिटक जा रही है, या शायद वो बहुत तंग है जो उसके अकड़े पैरों को अपनी गिरफ्त में लिए हुए है. "मुमकिन है वो भी इस क्षण मेरे बारे में सोच रहा हो कि वो जल्दी मुझसे मिलता और अदला-बदली कर पाता. बहुत से अन्य इंसानी रिश्तों की तुलना में हमारे रिश्ते का बंधन ज्यादा ठोस और स्पष्ट है, तब भी हम कभी नहीं मिल पाएंगे. " दुर्भाग्य के मारे अपने उस अनजाने साथी के प्रति एकता प्रदर्शित करने के लिए मिस्टर पालोमर बेमेल चप्पलों को पहने रहने का फैसला करते हैं ताकि एक महाद्वीप से दुसरे महाद्वीप को होता लंगडाते पैरों का यह प्रतिबिम्बन इस दुर्लभ और परस्पर पूरक रिश्ते को जिन्दा रखे.

वो इस ख्याल पर ठिठकते हैं लेकिन जानते हैं की यह सच के समरूप नहीं है. समानुक्रम में टंके चप्पलों का ढेर समय-समय पर बूढ़े सौदागर के ढेर को भरने के लिए बाजार में आता रहता है. उस ढेर के तल में हमेशा दो बेमेल चप्पलें बची रहेंगी जब तक कि बूढ़ा सौदागर अपना माल ख़त्म नहीं कर लेता (या शायद वह इसे कभी ख़त्म नहीं करेगा और उसकी मौत के बाद उसकी दुकान का पूरा माल उसके वारिसों को मिल जाएगा और फिर उसके वारिसों के वारिसों को), एक चप्पल के लिए सही जोड़ीदार मिल ही जाएगी, बस उस ढेर में तलाशना काफी होगा. गलती बस उसी की तरह के किसी गाफिल ग्राहक के साथ हो सकती है, लेकिन सदियाँ गुजर सकती हैं जबकि इस गलती के नतीजे इस प्राचीन बाजार के किसी अन्य आगंतुक को प्रभावित करें. दुनिया की व्यवस्था में विघटन की सभी प्रक्रियाएं अपरिवर्तनीय हैं, हालांकि उसके नतीजे बड़ी संख्या के घटाटोप में छिपे और विलंबित होते रह सकते हैं. बड़ी संख्या, जिसमें वस्तुतः नए संतुलन, संयोजन और युग्मन की अंतहीन संभावनाएं शामिल हैं.

लेकिन यदि उसकी गलती ने किसी पुरानी गलती को मिटाया भर हो तो ? यदि उसका गाफिल दिमाग अव्यवस्था का नहीं, व्यवस्था का वाहक बना हो तो ? "शायद उस सौदागर ने जानबूझकर ऐसा किया हो" मिस्टर पालोमर सोचते हैं "उस बेमेल चप्पल को मुझे देकर उसने चप्पलों के ढेर में सदियों से छिपी विषमता को दूर किया हो जो उस बाजार में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हो."

वह अनजाना साथी शायद किसी और समय में लंगड़ा रहा था, उनके क़दमों की सममिति एक महाद्वीप से दुसरे महाद्वीप के ही नहीं बल्कि सदियों के फासले को भी पाट रही. इससे उसके प्रति मिस्टर पालोमर के एकता के अनुभव की भावना में कोई कमी नहीं आती. वह अपनी छाया को राहत देते हुए वैसे ही अटपटे ढंग से पैर घसीटते चलते हैं .

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(यह अनुवाद इटालो कालविनो (Italo Calvino) की किताब मिस्टर पालोमर के आखिरी अध्याय का है. मेरे प्रिय रचनाकारों में से एक कालविनो के बारे में विस्तृत परिचय के लिये हमारे जमाने पर सर्वाधिक एहसान करने वाले गूगल (सर्च) की मदद लें. अनुवाद मनोज पटेल का है. यह उम्मीद भी कि मनोज द्वारा समूची किताब का अनुवाद भी हमें जल्द ही पढ़ने को मिलेगा.)

Wednesday, September 15, 2010

येहूदा आमिखाई की कविता : बम का दायरा.

(प्रार्थना की भाषा और शिल्प में कवितायें रचने वाले येहूदा आमिखाई, हिब्रू(इजराइल) और तदानुसार विश्व के महानतम कवियों में शुमार हुए. )


बम का दायरा


तीस सेंटीमीटर व्यास का बम
सात मीटर की मारक क्षमता का दायरा बनाता था
जिसमें चार मृत और ग्यारह घायल हुए |

इसके चारो ओर
तकलीफ और वक्त के लिहाज से
बड़ा दायरा बनता था
जिसमें दो अस्त-व्यस्त अस्पताल
और एक कब्रिस्तान शामिल हुए |

लेकिन वह युवती
जो सौ किलोमीटर दूर
अपने शहर में दफनाई गई
इस दायरे को काफी बड़ा कर दे रही थी |

उसकी मौत पर
समुन्दर पार किसी दूर देश के
सुदूर तटों पर मातम मनाता
वह अकेला आदमी
इस दायरे में पूरी दुनिया को ले आता था |

उन यतीमों के रुदन का जिक्र भी नहीं करूँगा
जो भगवान् के सिंहासन और उसके भी परे पहुंचकर
ऐसा दायरा बना रहा था
जिसका
न तो कोई अंत था
और
न ही कोई भगवान् |

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यह अनुवाद मनोज पटेल का है. नई बात पर नये लोगों की सीरिज में पूजा, श्रीकांत, चन्द्रिका और सूरज के बाद यह नया नाम मनोज पटेल का, जो पेशे से वकील ठहरे तथा फेसबुक जैसी चंचलमना जगह के सार्थक उपयोग के लिये जाने जाते हैं. मनोज, ओरहान पामुक के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘द व्हाईट कैसल’ का अनुवाद कर रहें हैं. साथ ही कविताओं में महमूद दरवेश, निजार कब्बानी, रोजेविच, मिस्त्राल तथा दूसरे महान कवियों की रचनाओं का नये सिरे से अनुवाद भी कर रहें हैं.सम्पर्क: 09838 599 333

Sunday, September 12, 2010

भाषा पारदर्शी शीशा है जिसकी याद पर कुहासा जम गया है.

ये लोग ही नहीं कहते, मैं भी देखता हूँ कि मेरे लेखन में वर्तनी सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ मेरे ना चाहते भी हो जाती है. इन गलतियों से नुकसान यह होता है कि कहानी में कथ्य और विचार की जगह लोग इन अशुद्धियों पर रुक और फंस जाते हैं. भाषा की यह गलती होती भी अक्षम्य है और इसे सुधारने के तमाम प्रयास मैं लगातार करता रहता हूँ. जैसे रिवॉल्वर पूरी करने के बाद मैं कई-एक दिन डॉ. वासुदेव कुमार की व्याकरण पुस्तक “हिन्दी व्याकरण एवम रचना” पढ़ता रहा. आगे भी पढ़ता रहता पर कुछ ऐसी अभागी मुश्किले दरपेश आई हैं कि कुछ भी पढ़ना लिखना नहीं हो पा रहा है.

इसके प्रयास तो चलते रहेंगे पर अभी हम इससे जुड़ी कुछ अच्छी बातें करेंगे.

बात तबकी है जब मैं कक्षा तीन का विद्यार्थी हुआ करता था. हुआ यह कि विश्वनाथन आनन्द का जलवा टूटे तारों की तरह हर जगह बिखरा था और देखा-देखी मुझे भी शतरंज खेलने का चस्का लगा. जीवन के चार चस्के बहुत सुन्दर पर जानलेवा निकले. शतरंज, क्रिकेट, साहित्य और चौथे की याद अभी नहीं आयेगी. शतरंज खेलना सीखा. खेलना क्या सीखा कि सारा सारा दिन शतरंज खेलने लगा. हॉस्टल में छुट्टियों का मौसम चल रहा था और एक मित्र था – धीरेन्द्र, जिसने मुझे शतरंज खेलना सिखाया. पहले जब मैं हारता था तब धीरेन्द्र मेरे साथ लगातार आठ आठ बाजियाँ खेलता था. पर दिन पलटे. मैंने खेलना सीखा और मित्र धीरेन्द्र पर भारी पड़ने लगा. शतरंज खेलने वाले जानते हैं कि इस खेल में मिली हार कितनी तकलीफदेह होती है. ऐसे में एक दिन धीरेन्द्र ने शतरंज का बोर्ड फाड़ दिया. पर अब मुझे इसकी लत लग चुकी थी. फिर धीरेन्द्र भी शौकीन तो था ही. हमने मिलजुल कर एक प्लान बनाया.

मैने जीवन में पहली बार पापा को पत्र लिखा. पत्र का विषय था कि पापा मुझे सारे खर्च से अलग शतरंज खरीदने के लिये बीस रूपये चाहिये. विषय को स्थापित करने की गन्दी आदत शायद मुझे उनदिनों भी थी कि पत्र लम्बा हो गया और लम्बा होकर मेरे ही गले की हड्डी बन गया. पैसे, पापा खुद लेकर पापा आये और साथ में वह पत्र भी. भारी मुश्किल. उन्होने वह पत्र प्रधानाचार्य के सामने रख दिया: उसमें भाषा की अनगिन गलतियाँ थीं जिनपर पापा ने बाकायदा निशान लगा रखा था. मेरे पापा की दो खास आदतें हैं. पहली: वे बोलते बहुत कम हैं. दूसरी: जब बोलते हैं, निर्णायक बोलते हैं.

पता नहीं उनमें और प्रधानाचार्य में क्या बात हुई कि स्कूल के सिस्टम में ऐसा परिवर्तन आया जिसे ‘लगभग आमूलचूल परिवर्तन’ की श्रेणी में रख सकते हैं. कक्षा दो से लेकर कक्षा नौ तक की घंटियों में बदलाव आ गये. हर कक्षा में दो घंटियाँ (पीरियड्स) श्रुतिलेख की शुरु हो गई. यह दोनों घंटियाँ एक ही शिक्षक के हवाले की गई. शिक्षक भी वह जो छात्रों की पिटाई में नव्यतम प्रयोग कर सके. हमें एक दिन पूर्व ही पाठ बता दिया जाता था. उस पाठ को हम पढ़कर आते थे क्योंकि अगले दिन का श्रुतिलेख उसी पाठ से होना होता था. फिर भी अगर कोई भूल हो गई तो सजा..और सजा भी ऐसी कि बता देने से उसका असर कम हो जायेगा. और फिर, भूलने की महान बिमारी मुझे उन दिनों भी थी.

किस्सा कोताह यह कि उनदिनों से लेकर बारहवीं तक मैं अमूमन किसी गलती का शिकार नहीं हुआ. मेरी लिखावट भी ऐसी नहीं जो आमजन से अलग हो और उसे देखकर आमजन ईर्ष्या करने लगे, बल्कि यों कि मेरा लिखा सुथरा होता है और आप आसानी से यह पहचान ले जायेंगे कि ये जो कुछ लिखा है हिन्दी में ही लिखा है :(.

सबसे जरूरी बात सबसे आखिर में: पापा की निगाह में भाषा का इतना महत्व क्यों था ये तो अब समझ पा रहा हूँ जब चाह कर भी उन शब्दों और उस भाषा के सहारे म्हे कंविंस नहीं कर पा रहा पर पापा ने मेरी भाषा सुधार के लिये एक प्रयास और किया. पहले नन्दन और चन्दामामा मुझे हॉस्टल से घर तथा घर से हॉस्टल की लम्बी और अझेल रेलयात्राओं में पढ़ने को मिलती थी और उसमें भी चन्दामामा को पहले पापा ही पढ़ते थे. मेरी उस गलती के बाद मेरे पास चार पत्रिकायें नन्दन, चन्दामामा, बालहंस और सुमन सौरभ हर महीने मिलने लगी.

इन पत्रिकाओं ने मेरे लिये बाहरी दुनिया के जंग लगे दरवाजे खोले. मैं उन कहानियों को अकेले ही पढ़ता और जीता था. दूसरे, इन्ही पत्रिकाओं से होते हुए मैं बेहद जल्द यानी कक्षा पाँच तक आते आते प्रतियोगिता दर्पण तथा प्रतियोगिता किरण तक आ गया था. पत्रिका वाले हॉकर अंकल ने फोटोग्राफी से समबन्धित पत्रिकायें भी भिजवाई. लगातार. और मनोहर कहानियों तथा दफा 302 आदि कभी नहीं भिजवाया.

उन्होने ही कॉमिक्स पढ़ने की लत लगाई. जिसमें सुपर कमांडो ध्रुव मेरा चहेता था. नागराज का ड्रेस सेंस मुझे उनदिनों से ही कमपसन्द था जो आज भी है. बाद के दिनों में भोकाल, परमाणु तथा डोगा भी अच्छे लगे पर बांकेलाल कभी अच्छा नहीं लगा और ना ही तौशी. पिंकी बबलू टाईप कॉमिक्स के लिये मुझे बचपन से लगता था कि मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि पिंकी बबलू को पढूँ. चाचा चौधरी को तो अब पढ़ा जब भांजी प्राची को उसे पढ़ पढ कर सुनाने का काम खुद को ही सौंपा था. अलबत्ता राम रहीम इसलिये अच्छे लगते थे कि उनके जैसा बनने का मन करता था. यह सब इसलिये कह रहा हूँ कि घर परिवार की स्थिति यह थी जहाँ इन जरुरतों को गैरजरूरी कह कर आराम से खारिज किया जा सकता था. पर अब वो भी बीती बात हुई.

शतरंज का जीवन में बड़ा योगदान रहा. शतरंज खेलते हुए कम ही हारा पर ऐसा कुछ होता गया कि खेलने के मौके ही कम मिले. ईर्शी फ्रीड का उपन्यास बाहर और परे पढ़ते हुए लगा कि यह उपन्यास मेरे लिये ही लिखा गया है.

इन प्रयासों से मेरी भाषा सुधरी थी. बारहवीं तक मेरी कॉपी में एक भी भूल नहीं हुआ करती थी. पर शायद जितनी याद मेरे भीतर भाषा की थी उस पर पर्दा पड़ गया है जो जल्द ही ठीक हो जायेगा .आगे की रचनाओं में यह कोशिश रहेगी कि भाषा का कोई तिरस्कार जाने अनजाने ना हो.

Wednesday, September 8, 2010

पाब्लो नेरुदा की कविता – रेल के सपने

इस वर्ष दिल्ली में हुई बरसात की तरह, मतलब रोजाना की बारिश की तर्ज पर, नई बात पर भी अब महाकवि पाब्लो नेरुदा की कवितायें लगातार प्रकाशित होंगी. अनुवाद किसका है, अब यह भी बताने की जरूरत है क्या? वैसे महज सूचनार्थ : पाब्लो नेरुदा की लम्बी कविता ‘द सेपरेट रोज़’ का अनुवाद श्रीकांत ला रहे हैं और साथ ही पाब्लो से सम्बन्धित एक ‘सरप्राईज’ भी..

रेल के सपने


बिना रखवाली के स्टेशनों पर
सोती हुई रेलगाड़ियां
अपने इंजनों से दूर
सपनों में खोई थीं।

भोर के वक्त मैं दाखिल हुआ
टहलता, हिचकिचाता
मानो भेदता कोई तिलिस्म
चारो ओर बिखरी थी यात्रा की मरती गंध
और मैं खोजता हुआ कुछ
डिब्बों में छूट गई चीजों के बीच।
जा चुकी देहों की भीड़ में
निपट अकेला था मैं,
ठहरी थी रेलगाड़ी।

हवा की सांद्रता
अवरोध की महीन पर्त थी
अधूरी रह गई बातों और
उगती बुझती उदासियों पर।
गाड़ी में छूट गईं कुछ आत्माएं,
जैसे चाभियां थीं बिन तालों की,
सीट के नीचे गिरी हुईं।

फूलों के गुच्छे और मुर्गियों के सौदे से लदीं,
दक्षिण से आई औरतें
जो शायद मार डाली गई थीं,
जो शायद वापस लौटकर बिलखती भी रहीं थीं,
शायद बेकार चले गए थे सफर में खर्च उनके भाड़े
उनकी चिताओं की आग के साथ,
शायद मैं भी उनके ही साथ हूं, उन्हीं के सफर में,
यात्रा में छूटी उनकी देहों की भाप,
और गीली पटरियां,
सब कुछ यथावत हैं शायद
रेल की स्थिरता में।
मैं एक सोता हुआ यात्री
यक ब यक जाग गया हूं
दुखों से सराबोर!

मैं बैठा रहा अपनी सीट पर
और रेलगाड़ी दौड़ती रही
मेरी देह की रहगुजर
ढहाती हुई मेरे भीतर की सारी हदें -
यूं अचानक, वह हो गई मेरे बचपन की रेल,
बिखरा धुंआ सुबहों का,
खट्टी मीठी गर्मियां।

बेतहाशा भागतीं, और भी थी रेलगाडियां
दुखों से इस कदर लबालब थे उनके डिब्बे,
जैसे बजरियों से भरी मालगाड़ी,
तो इस तरह दौड़ती रही वह स्थिर रेलगाड़ी
सुबह के फैलते उजाले में
मेरी अस्थियों तक को दुखाती हुई।

अकेली रेल में अकेला सा मैं,
लेकिन सिर्फ मैं ही नहीं अकेला
बल्कि मेरे साथ अनगिन अकेलेपन
सफर की शुरूआत की आस लगाए
प्लेटफार्म पर बिखरे
गंवई लोगों सरीखे अकेलेपन।

और रेलगाड़ी में मैं,
जैसे एक ठहरा गुबार, धुंए का
घिरा हुआ,
जाने कितनी मौतों के बाद की
जाने कितनी जड़ आत्माओं से!
मैं, गुम हो गया उस सफर में,
कि जिसमें ठहरी हुई है हर चीज
मुझ अकेले के दिल के सिवाय।

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Saturday, September 4, 2010

रिवॉल्वर ( Revolver )

आप मित्रों को यह सूचित करते हुए अत्यंत प्रसन्न महसूस कर रहा हूँ कि मेरी नई कहानी ‘रिवॉल्वर’ वेब पत्रिका ‘सबद’(www.vatsanurag.blogspot.com) पर प्रकाशित हुई है.

किसी भी रचना का प्रकाशन महत्वपूर्ण होता है परन्तु ‘रिवॉल्वर’ के इस रूप में प्रस्तुतिकरण का श्रेय सबद-सम्पादक अनुराग वत्स को जाता है. सत्तर पृष्ठों के विस्तार में फैली इस कहानी को वेब-माध्यम पर प्रकाशित करने तथा कहानी को बेहतरीन सज्जा वाली ‘ई-बुक’ की शक्ल देने के पीछे की समूची तैयारी अनुराग ने जिस लगन से की वो प्रशंसनीय है. अनुराग को धन्यवाद, इसलिये नहीं कि रचना इन्होने प्रकाशित की, बल्कि इसलिये कि कहानी के प्रस्तुतिकरण में जो ‘इंवॉल्वमेंट’ इन्होने दिखाया वो काबिले-गौर है तथा सबक-सिखाऊ भी.

विनम्रता के साथ कहूँ [हालाँकि मेरे विनम्र होते ही ‘मित्रों’ के कान खड़े हो जाते हैं :)] कि मेरे जानते हिन्दी कथाजगत में ‘ई-बुक’ के जरिये कहानी प्रकाशित करने का यह नितांत पहला प्रयास है. वेब दुनिया रंगों से जुड़ी जो सहूलियत हमें मुहैया कराती है उसका सदुपयोग ही इसे प्रिंट से अलग करता है. प्रिंट से याद आया, यह कहानी साखी पत्रिका के नये अंक में प्रकाशित हो रही है.

वैसे, यह कहानी उन रचनाओं में से जो मेरे पिछले लैपटॉप में उन अच्छे इंसानों के साथ चली गई जिन्होने मेरा लैपटॉप चुराया था/ चुराया क्या था, मेरे कन्धे से छीन लिया था. किन्ही तरीकों से अगर वे लैपटॉप खोल पाये होंगे तो उन्हे इस बात का दु:ख जरूर हुआ होगा कि जिस इंसान का यह लैपटॉप है वो इतनी फाईलें दुबारा कैसे बना पायेगा? छोटी को किनारे कर दें तब भी उस लैपटॉप में कुल सात लम्बी कहानियाँ थीं जो अपने अन्दाज में पूरी भी हो चुकी थीं. खैर.

उस लैपटॉप के साथ खोई अपनी अनेक रचनाओं को ‘रिट्रीव’ करने की कोशिश में यह ‘रिवॉल्वर’ पहली कोशिश है. रिवॉल्वर पढ़ने के लिये कृपया यहाँ क्लिक करें.