Thursday, December 30, 2010

डॉ. बिनायक सेन मामले में स्थानीय मीडिया की सन्दिग्ध भूमिका



 [ इस आलेख को पढ़ते हुए आप बारम्बार यह सोचने पर बाध्य होंगे कि पिछले चार वर्षों से चल रहे इस मामले में मीडिया ने निष्पक्ष भूमिका निभाई होती तो...? मीडिया से उम्मीद तो कुछ स्कारात्मक की रहती है पर निष्पक्षता तो अनिवार्य शर्त होनी चाहिये. छत्तीसगढ़ी मीडिया ने पत्रकार,पुलिस और जज तीनों की शामिल भूमिका निभाते हुए  बिनायक सेन को चार साल पहले ही अपराधी घोषित कर दिया था. प्रस्तुत आलेख उसी गन्दे खेल की एक बानगी है.

आलेख मिथिलेश प्रियदर्शी का है. मिथिलेश चर्चित युवा कथाकार हैं. इनके परिचय का एक मजबूत कोना यह भी  कि एम.फिल. में इनका शोध विषय यह रहा है : छत्तीसगढ़ के अखबारों में मीडिया ट्रायल ( डॉ. बिनायक सेन के विशेष सन्दर्भ में ). इन्हीं सन्दर्भों को उकेरती हुई मिथिलेश की एक कहानी 'बलवा हुजुम' है जो शीघ्र ही ब्लॉग पर दिखेगी.]

                                                       डा.बिनायक सेन का मीडिया ट्रायल


रीब, आदिवासी, मजलूमों के मोबाईल डाक्टर, डा.बिनायक सेन को ताजिंदगी जेल में रखे जाने की सज़ा मुकर्रर की गयी है. फैसले के बाद सब गंभीरतम चर्चाओं में मशगूल हैं. दोषी और उनकी भूमिकाओं की पडताल जारी है. लोकतांत्रिक ढांचे के तीनों खंभे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका इसकी जद में हैं. पर चौथा, जो सबसे शातिर है और इस साजिश में बराबर का हिस्सेदार भी, अब तक इन चर्चाओं से बाहर है. इसने बडी चतुराई से उन अज्ञात षड्यंत्रकारियों की भूमिका अख्तियार कर लिया है जो उजाले में स्यापा के दौरान सबसे जोरदार रूदन पसारते हैं. यह स्थानीय मीडिया है, यानी छत्तीसगढ की मीडिया.

आज की तारीख में भले ही देश के कमोबेश हर हिस्से का मीडिया डा.बिनायक सेन के आजीवन कारावास की सज़ा पर अवाक नजर आ रहा हो, पर राज्य मशीनरी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले छत्तीसगढ की मीडिया ने डा.बिनायक सेन को लेकर प्रारंभिक दौर में ही प्रोपगैंडा का एक जबर्दस्त अभियान छेड रखा था. उस दौरान लगभग खबरें पूर्वाग्रह और प्रोपगैंडा से प्रेरित थीं. क्या पत्रकार, क्या संपादक सब के सब डा.सेन के मीडिया ट्रायल में मुब्तिला थे. पत्रकार तिहरी भूमिकाएं निभा रहे थे. वे पत्रकार भी थे, पुलिस भी और जज भी. खबरों के लिये पुलिसिया स्रोत ही पहली और आखिरी स्रोत था. थाने से निकला वक्तव्य सारे सत्यों से ऊपर था. आरोपी को अपराधी लिखने-साबित करने की होड सी मची थी. मामला ठीक से अदालत भी नहीं पहुंच पाया था कि मीडिया ने अपना एकतरफा फैसला सुना दिया था और डा.बिनायक सेन रातों-रात चिकित्सक से खूंख्वार हो गये थे.

१४ मई २००७ को डा.सेन के गिरफ्तारी के बाद से ही स्थानीय मीडिया प्रोपगैंडा के सुनियोजित काम में लग गया था. १५ मई २००७ को स्थानीय अखबारों ने मोटे-मोटे शिर्षक के साथ खबर लगायी, ‘ पुलिस के हत्थे चढा नक्सली डाकिया’. इसी दिन स्थानीय अखबार हरिभूमि ने लिखा, ‘जिस नक्सली डकिये की तलाश में रायपुर पुलिस दिन-रात जुटी थी, उसे मुखबिर की सूचना पर तारबाहर पुलिस को पकडने में सफलता हासिल हुयी है. बिनायक सेन नामक इस व्यक्ति की तलाश रायपुर पुलिस को ६ मई से थी. माना जा रहा है कि वह जेल में बंद और शहर में गोपनीय रूप से रह रहे नक्सलियों का पत्र वाहक था. उनकी सूचनाओं को बस्तर और दूसरी जगहों में तैनात खूंखार नक्सलियों तक पहुंचाने के लिये इसने अपना अलग तंत्र तैयार कर रखा था. घेराबंदी कर नक्सलियों के इस प्रमुख डाकिए को पुलिस ने धर दबोचा. शुरु से ही यह आशंका थी कि नक्सलियों का ये प्रमुख डाकिया बिलासपुर जिले में कहीं छिपा हुआ है.’ 

इस खबर के बीच में ही उपशीर्षक देकर एक और खबर थी, ‘ नक्सली देखने थाने में लगी भीड’- ‘तारबाहर पुलिस के हत्थे चढने के बाद बिनायक सेन की नक्सलियों के प्रमुख डाकिये के रूप में पहचान हुई. यह खबर पूरे शहर में फैल गई. तारबाहर थाना में नक्सली डाकिये को देखने के लिये लोगों की भीड एकत्र हो गई. लोग उसकी एक झलक पाने के लिये काफी समय तक खडे रहे.’

ऐसी तमाम खबरों में डा.बिनायक सेन के लिये हर जगह ‘नक्सली डाकिया’, ‘नक्सली मैसेंजर’, ‘नक्सली हरकारा’ जैसे विशेषण ही इस्तेमाल किये गये. खबर की भाषा और लहजे को ऐसे बरता गया, मानों गिरफ्तार किये गये शख्स की सार्वजनिक पहचान से सारे अखबार अनजान हों. कई शीर्षकों में बस ‘बिनायक सेन’ भर लिखा गया, ‘बिनायक सेन की पुलिस को तलाश’ या ‘बिनायक सेन गिरफ्तार’. उनके नाम के आगे न ‘डाक्टर’ था, न ‘मानवाधिकार कार्यकर्ता’. एक अपरिचित पाठक के लिये बिनायक सेन का मतलब चोर, बलात्कारी, चाकूबाज कुछ भी हो सकता है. पूरे दो हफ्ते तक डा. बिनायक सेन की चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता की पहचान सुनियोजित तरीके से छिपाई गई.

ह कितनी भारी विडंबना है कि १५ मई २००७ से पहले तक डा.बिनायक सेन को उनकी समाजसेवा और मानवाधिकारों के लिये निर्भिकतापूर्वक संघर्ष के लिये स्थानीय मीडिया में कोई जगह नहीं मिली, और जब उन्हें दुर्भावनावश गिरफ्तार कर लिया गया तो स्थानीय मीडिया इस मामले को लेकर अचानक इस तरह से सामने आया जैसे उसने डा.सेन के नक्सली होने की पूरी पडताल पहले से ही कर रखी हो. यह वाकई अप्रत्याशित था कि विगत तीन दशकों की उनकी सार्वजनिक पहचान का उल्लेख किये बगैर उनपर खबरें लिखी जा रही थीं. खबरों के शीर्षक को अस्पष्ट रखा जा रहा था. और यह सब सचेतन किया जा रहा था.

कई अखबार इनकी गिरफ्तारी के पहले से ही पीयूष गुहा (१ मई २००७ को पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यवसायी) के लिये ‘नक्सली मैसेंजर’ लिख रहे थे. बाद में यही विशेषण डा.सेन के लिये भी प्रयोग किया जाने लगा. ‘छत्तीसगढ’ अखबार १० मई २००७ को लिखा कि बिनायक सेन के खिलाफ पुलिस को राजधानी में नक्सली गतिविधियां संचालित करने की बहुत ठोस जानकारी मिली है. इसी तरह अगले दिन ‘हरिभूमि’ भी पुलिसिया रिपोर्ट के आधार पर यह घोषणा करने में जुटा था कि पीयूसीएल के नेता नक्सली मैसेंजर से मिले हुए हैं. ये अखबार छत्तीसगढ पुलिस के नक्शेकदम पर चल रहे थे. क्योंकि जेल में दस्तावेजों में डा. बिनायक सेन को हार्डकोर नक्सली दर्ज किया गया था. हालांकि तब कई संगठनों ने इसका विरोध किया था कि न्याययिक फैसलों के पूर्व इस तरह के दुष्प्रचार सर्वथा अनुचित हैं.

स्थानीय अखबारों में प्रोपगैंडायुक्त खबरों का सिलसिला चल पडा था. संबंधित हर खबर का ‘फालोअप’ लिखा जाता था. यह अदालती ट्रायल के पहले का ट्रायल था, जिसकी बुनियाद पूर्वाग्रह, भ्रम, दुष्प्रचार और तथ्यहीनता पर केंद्रित थी. प्रोपगैंडा का अभियान चलाने वाले अखबारों में बडे समझे जाने वाले नाम भी शामिल थे. १७ मई २००७ को ‘नई दुनिया’ लिखता है- ‘नक्सली सूची में कई बडे लोग.’ यह खबर किसी कोण से तथ्यात्मक नहीं थी बल्कि एक मुहिम का हिस्सा थी. आगे ३ जून को इसी अखबार ने लिखा, ‘एनजीओ की दो युवतियां लापता.’ यह डा.सेन की छवि को ध्वस्त करने की एक और कोशिश थी. पुलिस ने इसे जबर्दस्ती एक गंभीर मामला बताया था और कहा था कि इस आधार पर इलिना सेन के खिलाफ भी जुर्म साबित किया जा सकता है. गौरतलब है कि जिस एनजीओ (रूपांतर) में काम करने के लिये दोनों लडकियां दिल्ली गयी थीं, उसे इलिना सेन चलाती थी. और तथ्य यह है कि दोनों लडकियों को जिन्हें लापता बताया जा रहा था, वे बालिग थीं. और यदि वे रूपांतर छोडकर कहीं अन्य जगह चली गयीं थीं तो यह सर्वथा उनका फैसला था. पर इस खबर को जिस तरीके से बिनायक सेन और उनके परिवार के खिलाफ गढा गया, वह शर्तिया दुराग्रहपूर्ण और प्रोपगैंडा का हिस्सा था.

१७ मई को ही ‘हरिभूमि’ की खबर थी-‘नक्सली समर्थकों की खैर नहीं’. इसमें खबर जैसा कुछ भी नहीं था. बस बातें बनाकर माहौल को गर्म बनाए रखने की एक कवायद भर थी. खबर के भीतर एक कहानी थी, जिसमें सलवा जुडूम के शुरुआत को उस दिन से माना गया था, जब २००५ में बस्तर में भगवान गणेश की मूर्ति को नक्सलियों ने तोडा-फोडा था और गणेश बिठाने का विरोध कर हिंदू धर्म पर हमला बोला था और अपने खिलाफ स्वंय ही माहौल तैयार कर लिया था.’ सलवा जुडूम की स्थापना की यह एक हास्यास्पद कथा थी. खबर में आगे सफेदपोश नक्सलियों पर ‘राजसुका’ के तहत कार्रवाई की बात कही गयी थी. यानी अखबार भी साफ तौर पर अपना यह मत जाहिर कर रहा था कि डा.सेन पर ‘राजसुका’ के तहत राजद्रोह लगे. इससे स्थानीय अखबारों की मंशा समझी जा सकती है और इनके द्वारा निष्पक्षता बरते जाने की संभावना की प्रतिशतता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.

इसी तरह ९ जुलाई २००७ को ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘धर्मांतरण के आरोप में युवकों की पिटाई’. यह खबर भी सीधे तौर पर प्रोपगैंडा के तहत ‘प्लांट’ किया गया था. इस खबर में लिखा गया था कि डा.बिनायक सेन अपने प्रभाव वाले गांवों में धर्मांतरण करवा रहे थे. इसके लिये उन्होंने कई युवकों को पैसे दिये थे. साथ ही बगरूमनाला में क्लीनिक चलाने के पीछे भी धर्मांतरण ही इनका मुख्य मकसद था. इस कार्य में संलग्न लोग उनसे जुडे हुए हैं. लगातार विभिन्न ग्रामों में इलाज, तालाब, खुदाई एवं पैसे का लालच ग्रामिणों को दिया जाता है. इस बेबुनियाद खबर की कोई सीमा नहीं थी. जाहिर है, इस खबर को डा.बिनायक सेन के चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता वाली छवि को खंडित करने के लिये प्रकाशित किया गया था.

प्रोपगैंडा की इसी कडी में ‘नवभारत’ ने ३ अगस्त २००७ को खबर बनायी-‘बस्तर में बिजली टावरों को उडाने का षड्यंत्र सान्याल ने जेल में रचा’. इस खबर के बीच में एक पासपोर्ट साईज तस्वीर डा.बिनायक सेन की लगी थी. इस खबर में उपरोक्त शीर्षक से संबंधित केवल एक पंक्ति लिखी गयी, शेष लगभग चार कालमों वाले इस खबर में पूरी बात डा.सेन पर केंद्रित थी जिसमें लिखा गया था कि डा.सेन और श्रीमती सेन नक्सलियों से मिले हुए हैं. उनके बीच इनका सक्रिय घुसपैठ है. खबर में डा.सेन के चिकित्सक होने को भी झूठलाया गया था. खबर के बीच में उनकी तस्वीर कुछ इस प्रकार चस्पां की गयी थी जैसे टावर डा.सेन ने ही उडाया हो. यानी कि शीर्षक कुछ, खबर कुछ और तस्वीर कुछ.

स्थानीय अखबार शुरू में डा.सेन को फरार और भगोडा तक घोषित कर चुके थे. जबकि वे कोलकाता के पास कल्याण में अपनी मां से मिलने, बच्चों के साथ गये हुए थे. उन्हें मित्रों से यह जानकारी मिली कि पुलिस के साथ-साथ मीडिया भी उन्हें फरार बता रही है. इसपर उन्होंने फौरन अखबारों से सम्पर्क कर अपनी स्थिति स्पष्ट की थी. अपना मोबाईल नं. भी प्रकाशित करवाया था कि जिन्हें कोई शंका हो, वो बात कर लें.

इस किस्म की खबरों से स्थानीय अखबारों की मंशा साफ जाहिर होती है कि किस तरह डा.बिनायक सेन के खिलाफ शुरूआती दौर से ही माहौल बनाया जा रहा था. ‘हरिभूमि’ अपनी खबरों में एक कदम आगे बढकर यह माहौल तैयार कर रहा था कि इलिना सेन को भी गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए क्योंकि ये सारे जनवादी खतरनाक हैं.

स्थानीय मीडिया की भूमिका पर डा.बिनायक सेन ने भी सवाल उठाया था. स्थानीय मीडिया खासकर अखबार वाले राज्य सरकार से वफादारी निभाने के लिये किसी ऐसे ही मौके की तलाश में थे. और उनका यह रवैया केवल इस मामले में ही नहीं बल्कि इस किस्म के सभी मामलों में स्थायी रूप धर चुका है. जनआंदोलनों, मानवाधिकारों के लिये संघर्ष के प्रति स्थानीय अखबार न केवल उदासीन रहते हैं, बल्कि कई दफा इनके विरुद्ध जाकर बेहद आक्रामक रूख भी अपना लेते हैं. लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता की सेहत के लिये यह कतई चिंतनीय है.

पुलिस और सरकार के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी घोषित करना बेहद आसान होता है. इस प्रक्रिया में यदि मीडिया की पर्याप्त मिलीभगत हो तो मनमाफिक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं. डा.बिनायक सेन के केस में पुलिस और सरकार ने मीडिया की सहायता से यही काम किया. प्रोपगैंडा के लिये ऐसी आधारहीन खबरें ‘प्लांट’ की गयीं, जिससे डा.बिनायक सेन के व्यक्तित्व, छवि और सार्वजनिक कार्यों को न केवल जबर्दस्त क्षति पहुंचे, बल्कि उन्हें सीधे तौर पर नक्सली साबित कर न्यायालय पर भी पर्याप्त दवाब बनाया जा सके. और आज साढे तीन साल बाद जब डा.सेन को आजीवन कारावास की सजा अदालत ने सुनायी है तो इसे राज्य सरकार, पुलिस और वहां की ब्यूरोक्रेसी के षड्यंत्र के साथ-साथ स्थानीय मीडिया के ट्रायल, प्रोपगैंडा और उसके पूर्वाग्रह के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए. और जहां तक न्यायालय की भूमिका का सवाल है, अदालतें राजनीतिक समीकरणों और मीडियाई प्रभाव से निरपेक्ष नहीं होती हैं.
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लेखक से सम्पर्क:  09096966510 ; askmpriya@gmail.com
मंडेला, सू की और बिनायक की तस्वीर गीत चतुर्वेदी के ब्लॉग 'वैतागवाड़ी' से.

Saturday, December 25, 2010

बिनायक सेन को सजा के फैसले का तथ्यपरक विश्लेषण .. ..और पाश की एक कविता..


  (  सत्ता की हर काली करतूत पर एक पोस्ट लिख देना भी अब गलत लगने लगा है. यह एहसास लगातार बना रहता है कि आखिर किससे अपनी बात कही जाय? जैसे कुछ भी करना असम्भव हो गया हो. ठीक इसी तरह का मामला बिनायक सेन और उनके आजीवन कारावास की सजा का है. इस पूरे मामले पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि कुछ और ही वजह है जो बिनायक को यह सजा सुनाई गई है. छत्तीसगढ़ के नये मालिकों और राजाओं के सीने पर कहीं ना कहीं बिनायक सेन और उन जैसे लोग चुभ रहे हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के तरीके ईजाद किये जा रहें हैं.. फिर भी यह पोस्ट इसलिये ताकि कुछ तथ्य आपके जेहन में लगातार बसे रहे और जब भी आप गुलाम मीडिया के जरिये कार्पोरेट्स के आग उगलते शुभचिंतको को सुने तो आप उनकी ‘नेकनीयती’ भाँप सकें.... आलेख अनिल का है और उम्मीद की किरण जैसी यह कविता पाश की है..)   

सिद्धांतहीन फ़ैसला
 
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और जाने माने बाल चिकित्सक डॉक्टर बिनायक सेन को देशद्रोह और साज़िश के आरोप में उम्रक़ैद का फ़ैसला सुनाया गया है. उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के अनुसार, ’यह फ़ैसला भारत की निचली अदालतों में लोगों के भरोसे को कमतर करेगा.’ एमनेस्टी इंटरनेशनल ने वक्तव्य ज़ारी करते हुए कहा है कि डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान स्वच्छ न्याय के अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन नहीं किया गया है और इससे तनावग्रस्त इलाक़ों में स्थितियों के और बदतर होने के आसार हैं.
निर्णय की तारीख़ के कुछेक दिनों पहले अभियोजन पक्ष के वकील अदालत में कार्ल मार्क्स के ग्रंथ पूंजी (दास कैपिटल) की प्रति लेकर आए. उस वकील ने अपनी मूर्खता की हद यह बता कर की कि यह दुनिया की सबसे खतरनाक किताब है और माओवादी इससे भी ज्यादा खतरनाक होते हैं. इस आधार पर वे माओवादी ख़तरे को इंगित करते हुए डॉ. बिनायक पर राजद्रोह और साज़िश रचने का दोषी ठहरा रहे थे. हद तो तब हुई जब डॉ. बिनायक की पत्नी प्रो. इलीना सेन द्वारा दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट को लिखे एक पत्र को अभियोजन पक्ष ने पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के साथ जोड़ दिया. और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क का हिस्सा बताने में जुटा रहा. ये सच्चाईयां भारतीय लोकतंत्र के संकट को और गहरा करती हैं. जहां एक ओर तो घोटालेबाज़ राजनेताओं, आर्थिक अपराधियों, बिचौलियों और व्यवस्थाजन्य नरसंहार के आयोजकों को खुलेआम खेलने की अनंत छूट मिल जाती हैं तो दूसरी ओर मूलभूत ज़रूरतों से वंचित विशाल तबक़े के लिए अपने जीवन और करियर का सर्वश्रेष्ठ लगा देने वाले वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा मुकर्रर कर दी जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह निर्णय सरकार की जन-विरोधी नीतियों की आलोचना का मुंह बंद करने और अन्य लोगों को कड़ा सबक़ सिखाने की राजनीतिक मंशा से प्रेरित है.
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोगों में काफ़ी रोष देखने को मिल रहा है. नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अगर यह झटका देने वाला फ़ैसला है तो न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती भी है कि शोषण और भ्रष्टाचार के कूड़े-ढेर तले दबे भारत के असंख्य लोगों के बीच यह भरोसा कैसे क़ायम रखा जाए कि न्याय के इन ’मंदिरों’ में न्याय सुलभ हो पाएगा? जब शिक्षित, शहरी और नौकरीपेशे वर्ग के लिए समुचित न्याय पाना दिनों दिन एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है तो उन लाखों करोड़ों ग़रीब, ग्रामीणों की कैसी स्थिति होगी जिन्हें छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश के गांवों से किसी तरह के क़ायदे क़ानून के पालन के बग़ैर ही गिरफ़्तार किया जाता है? डॉ. बिनायक सेन का मुक़दमा समूची न्याय प्रक्रिया की एक बानगी मात्र है. मई, २००७ में गिरफ़्तार करने के बाद उन्हें निराधार जेल में बंद रखा गया. लोग जानते हैं कि यह क़दम छत्तीसगढ़ सरकार की इस बदनीयती से संचालित था कि वह पुलिस और अपराधियों के गिरोह सल्वा जुडुम के आलोचकों की ज़बान ख़ामोश करना चाहती थी जिसके लिए डॉ. बिनायक को क़ैद करना अहम हो गया था. डॉ. सेन उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से दो साल बाद ज़मानत पर रिहा हुए थे.
रायपुर में शुक्रवार के दिन जिस वक़्त डॉ. बिनायक सेन पर सज़ा सुनाई जा रही थी वहीं उसी वक़्त  एक प्रकाशक असित सेनगुप्ता को भी राजद्रोह और साज़िश के आरोप में ११ साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई है. इस सज़ा के क्या मानक हैं इसकी चर्चा जनमाध्यमों में कम हुई है. अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है जो क़ानून ही अवैध हों, जो क़ानून संवैधानिक मान्यताओं के सरासर उल्लंघन की बुनियाद पर टिके हों, उन्हें आधार बनाकर दिए गए फ़ैसले कितने न्यायसंगत होंगे! दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर का यह आक्रोश ग़ौरतलब है कि ’यह धोखाधड़ी है.’ डॉ. बिनायक सेन को न्याय के किसी सिद्धांत के आधार पर राजद्रोह और साज़िश का दोषी नहीं ठहराया गया है. बल्कि अपराध को एक ढीली ढाली, दलदलीय  परिभाषा में ढाल दिया गया और फिर न्याय को पदच्युत करके ऐसा किया गया है. ऐसे कठोर निर्णय के औचित्य पर न्यायाधीश ने जैसा संबंध जोड़ने की कोशिश की है वह हैरत में डालने वाला है. क्योंकि डॉ. बिनायक सेन पर लगे आरोपों के लिए यह वक्तव्य किसी प्रमाणिक साक्ष्य का काम नहीं कर सकता.
न्यायाधीश बी.पी. वर्मा ने एक टिप्पणी में कहा है कि “आतंकवादी और माओवादी जिस तरह से राज्य और केंद्रीय अर्ध-सैनिक बलों और निर्दोष आदिवासियों को मार रहे हैं तथा देश और समुदाय में जिस तरह डर, आतंक और अव्यवस्था फैला रहे हैं उससे अदालत अभियुक्तों के प्रति सहृदय नही हो सकती और क़ानून के अंतर्गत न्यूनतम सज़ा नहीं दे सकती.” ग़ौरतलब है कि न्यायाधीश महोदय की इस टिप्पणी का डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे से कोई लेना देना नहीं है. न्याय का सिद्धांत और शासन इसकी इजाज़त नहीं देता कि घटना कहीं घटे तो उसका अभियुक्त किसी और को कहीं भी बना दिया जाए.
प्रशांत भूषण कहते हैं, “उच्चतम न्यायालय ने साफ़ किया है कि राजद्रोह का दोष तभी लगाया जा सकता है जब अभियोजन पक्ष यह साबित करे कि अभियुक्त हिंसा भड़काने या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश में था. यह स्पष्ट है कि यह मामला इस मानक पर खरा नहीं उतरता.” इतना ही नहीं, अदालत में पुलिस द्वारा पेश किए गए गवाहों में से कई पहले ही अपने बयान से मुकर गए हैं और बचाव पक्ष ने जब उनके विवरणों की जांच पड़ताल की तो उसकी भी असलियत सामने आ ही गई. जैसे पुलिस का कहना था कि उसने डॉ. बिनायक सेन के काम की तारीफ़ वाली भाकपा (माओवादी) की एक चिट्ठी बरामद की थी. लेकिन बचाव पक्ष ने स्पष्ट किया कि डॉ. सेन को झूठे फंसाने के लिए ख़ुद पुलिस ने यह चिट्ठी बाद में जोड़ी है क्योंकि ज़ब्त किए गए हर सामान की तरह इस चिट्ठी की बरामदगी में न तो डॉ. सेन के हस्ताक्षर हैं और न ही प्रत्यक्षदर्शियों के.
डॉ. बिनायक सेन पर भाकपा (माओवादी) की मदद करने का आरोप पुलिस ने कथित नक्सली नेता अस्सी बर्षीय नारायण सान्याल से जेल में ३० से भी ज़्यादा बार मिलने के आधार पर लगाया है. बचाव पक्ष ने इस आरोप को यह कहते हुए चुनौती दी कि जेल रजिस्टर में इन मुलाक़ातों का स्पष्ट उल्लेख है. डॉ. बिनायक सेन ने पीयूसीएल के उपाध्यक्ष रहते हुए जेल मे बंद आरोपी के स्वास्थ्य कारणों से भेंट की थी जो कि जेल अधीक्षक की उपस्थिति में होती थी और सारी बातचीत हिंदी में होती थी ताकि वहां बैठे दो अन्य निरीक्षक यह समझ सकें कि क्या बात हो रही है.
उपरोक्त तथ्यों को नज़र अंदाज़ कर दी गई उम्रक़ैद की यह सज़ा न्याय की भावना को हीनतम बनाती है. इसके समर्थन में दी गई जिन कमज़ोर और बौनी दलीलों के आधार पर अदालत ने यह फ़ैसला सुनाया है वे न्याय-व्यवस्था से उम्मीद लगाए लोगों को निराशा की खाई में धकेलती हैं.

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पाश की कविता 
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो हॉस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
...
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है

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Friday, December 24, 2010

महाकवि नाजिम हिकमत की कवितायें


( महाकवि नाजिम हिकमत को पढ़ते हुए यह एहसास लगातार बना रहता है कि जैसेजीना हमारी जिम्मेदारी है”. इनकी कविता में जो उम्मीद के स्वर हैं वे किन्ही वायवीय स्वप्न सरीखे नहीं हैं. यह उम्मीद गूलर का फूल भी नहीं है जो आज तक किसी को दिखे ही नहीं. उनकी कविता की दिखाई उम्मीद - राह बहुत खास परंतु प्राप्य लक्ष्यों की तरह होती है. अपने अदना से ब्लॉग पर नाजिम को पोस्ट करते हुए मैं बे-इंतिहा खुश हूँ.)

अनुवादक का नाम बार बार बताना कहाँ जरूरी होता है....

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दिल का दर्द : नाजिम हिकमत


अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,

तो चीन में है बाक़ी का आधा

उस फौज के साथ

जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..

और हर सुबह, डाक्टर

जब उगता है सूरज

यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .

और हर रात को डाक्टर

जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,

रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन

इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.

और फिर दस सालों के बाद

अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर

सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर

एक सुर्ख़ सेब :

मेरा दिल.

और यही है वजह डाक्टर

दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --

न तो निकोटीन, न तो कैद

और न ही नसों में कोई जमाव.

कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,

और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद

धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.

* *


दरअसल, यह कुछ इस तरह से है


खड़ा हूँ मैं राह दिखाती हुई रोशनी में,

भूखे हैं मेरे हाथ, खूबसूरत है दुनिया.


बाग का बड़ा हिस्सा नही पातीं मेरी आँखें

कितने आशापूर्ण हैं वे, कितने हरे-भरे .


एक चमकीली सड़क गुजर रही है शहतूत के पेड़ों से होकर

कैदखाने के अस्पताल की खिड़की पर खड़ा हूँ मैं.


दवाओं की गंध नहीं ले पा रहा मैं --

जरूर गुलनार के फूल खिल रहे होंगे कहीं आस-पास.


इस तरह से है यह :

गिरफ्तारी तो दीगर मसला है,

असल मुद्दा है हार न मानना.

***


अनुवादक से सम्पर्क: 09838599333; manojneelgiri@gmail.com


शुरुआती पंक्तियों में कोट की हुई पंक्ति "जीना हमारी जिम्मेदारी है" कवि मित्र सूरज की आगामी कविता की पंक्ति है.