Thursday, December 31, 2009

बीते साल

चन्द्रिका। विचारों तथा उम्र से युवा। राजनीति और समाज के बारे में स्पष्ट और तीक्ष्ण समझ। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में ‘किसी’ पाठ्यक्रम के छात्र। आप इनके ब्लॉग http://www.dakhalkiduniya.blogspot.com/ पर इनकी सचेत चिंतन प्रक्रिया तथा सरोकारों से लैस सामाजिक, राजनीतिक चेतना से परिचित होंगे। फैजाबाद से बनारस से अब वर्धा। यहाँ इनकी कवितायें। इनके पास भी खूब सारी प्रेम कवितायें हैं, वो सारी कवितायें ‘नई बात’ पर प्रकाशित होंगी, आपको यह सूचना देते हुए मैं बेहद प्रसन्न हूँ। अलबत्ता आज की कविता प्रेम पर नहीं, गुजरे साल पर है।



बीते साल

यह साल बहुत हल्का रहा
इतने हल्के रहे रात और दिन
कि चुरा ले गया कोई
पूरा का पूरा बरस
और हमें पता भी नहीं चला




गर्मी में नहीं हुई कोई गर्मी
बारिश में हम उतना भी
नहीं भींगे जितना
कोई पेड़
कोई पुलिया
कोई रास्ता
हर बार की तरह
एक मोड़ तक आते आते
बदल गया पूरा मौसम
एक छत है आदमी के सिर पर
जो नहीं आने देती
पूरा का पूरा मौसम



डस्टबिन में पड़ा है
बीते साल का कैलेंडर
और वहाँ बची रह गई है
कई सालों की जगह ॥

..........................चन्द्रिका

Tuesday, December 29, 2009

सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़ा होना

सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़े
होने की बहुत सी वजहें हो सकती हैं मसलन ये कि यह
क्रम बदस्तूर पिछली कई सुबहों से जारी है और इस
निरंतरता में मिल गया है कोई ऐसा अर्थ जो जीवन
की लगातार जारी प्रक्रिया में और कहीं संभव नहीं था.


सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़े होने के मामले में ऐसा भी
हो सकता है कि यह पूरी रात लगातार खड़े रहने के बाद के सुबह की स्थिति हो और
खड़े होने वाले का साथ रात के विस्तृत वीरान और अँधेरे के सिवाय किसी मकान के कमरे से बमुश्किल पहुँच रही एक टुकड़ा रौशनी और बलगम से जकड़ी लम्बी लम्बी खांसियों ने दिया हो.


इसकी एक वजह के तौर पर यह भी सोचा जा सकता है कि
मेहनत और पसीने से कमाई शुरू करने वाला कोई पूंजीपति
सामने की सड़क पार वाले विशालकाय घर और पूंजी के रूप
में अपनी पत्नी और संतानों के असुरक्षाबोध से ग्रस्त रात भर
उनकी रखवाली किया हो अथवा अपनी पत्नी, बेटे और बहुओं
द्वारा खुद को घर में पडी एक गैरज़रूरी चीज़ मान लिए जाने
की उपेक्षा में पूरी रात बस स्टॉप की खुली छत के नीचे खड़ा
खुद के किये को कोसता रहा हो.


ऐसा होने का एक और कारण यह भी संभव है कि खड़ा होने वाला सख्स
सूरज की रौशनी के प्रत्येक खुली जगह में बिखर जाने को दिन नहीं मानता और
खुद पर आरोपित दुनिया भर की मान्यताओं से ऊबकर वह अभी अभी सुबह
की सैर पर निकला हो.


और कोई इसलिए भी तो सुबह सुबह बस स्टॉप पर
खड़ा हो सकता है कि उसे किसी ऐसी जगह जाने
वाली बस का इंतज़ार है जहां अब दुनिया की कोई
बस नहीं जाती लेकिन चूंकि उसने किसी ऐसी ही सुबह
में एक बस से उस सफ़र को तय किया था इसलिए उसे
यकीन है कि वह सुबह कभी न कभी फिर से ज़रूर आएगी.

...............................................................श्रीकांत

कवि से सम्पर्क…..shrikant.gkp@gmail.com

Saturday, December 26, 2009

प्यार करता हुआ कोई एक...

लीशू, सूरज, पूजा, श्रीकान्त के बाद मनोज कुमार पाण्डेय। इस ब्लॉग पर इनकी कवितायें। इन कविताओं से पहले, बतौर कहानीकार अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करा चुके। शहतूत कहानी संग्रह चर्चित। लखनऊ में रहनवारी। मनोज की कहानियों पर विस्तृत चर्चा यहाँ उप्लब्ध।

लगे हाथ मन की एक बात आप सबसे बाँटना चाहूँगा - ब्लॉगिंग की शुरुआत करते हुए जरा भी अन्देशा नहीं था कि इतने गम्भीर साथी ‘नई बात’ से जुड़ते चले जायेंगे। किसी नये काम के शुरुआत में जिस विश्वास की जरूरत होती है वो भी आप सब से भरपूर मिला। सबका आभार। आज यह भी बताना चाहूँगा कि इस ब्लॉग पर कुछ ही दिनों में विश्व कविता में अब तक के सर्वोत्तम हस्ताक्षरों मे से एक मिर्जा गालिब पर एक लेखमाला की शुरुआत होगी। यह लेखमाला ख्यात युवा आलोचक डॉ. कृष्णमोहन द्वारा लिखी जायेगी। बस थोड़ा सा इंतजार...।

फिलहाल तो मनोज की उम्दा प्रेम कवितायें। एक एक कर के।

प्यार करता हुआ कोई एक...

भीतर ही भीतर जलती रहती है एक आग
जिसे भीतर का ही पानी धधकाता रहता है पल पल
हवायें चलती हैं तूफान से भी तेज
जिसे भीतर का ही पहाड़ रोकता है
कहीं बह रही होती है गर्म धारायें
उसी पल एक हिस्सा बदल रहा होता है बर्फ में
कहीं तैर रही होती है रौशनी
कहीं घिर रहा होता है अन्धेरा घुप्प
भीतर बसते हैं अच्छे बुरे लोग
उनके भीतर बसती हैं अलग अलग दुनिया
प्यार करता हुआ कोई एक पूरी पृथ्वी होता है
घूमती हुई पृथ्वी के उपर सबकुछ चल रहा होता है
जस का तस।
..................................................मनोज पाण्डेय
लेखक सम्पर्क – chanduksaath@gmail.com

Wednesday, December 23, 2009

होठों के फूल

नहीं,
नहीं है कुछ भी ऐसा मेरे पास
जो तुम्हे चाहिये

मुझे चाहिये
तुम्हारी निकुंठ हँसी से झरते बैंजनी दाने
तुम्हारे होठों के नीले फूल
अपने चेहरे पर तुम्हारी फिरोजी परछाईं
मुझे निहाल कर देगी

अपने भीतर कहीं छुपा लो मुझे
मेरा यकीन करो
जैसे रौशनी
और बरसात का करती हो
किसी पीले फूल
किसी जिद
किसी याद से भी कम जगह में बसर कर लूंगा मैं

अब जब तुम्हे ही मेरा ईश्वर करार दिया गया है
तो सुनो
मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिये
अथवा मृत्यु।

............................................सूरज
कवि से सम्पर्क – soorajkaghar@gmail.com

Monday, December 21, 2009

बेहोशी

नये साथियों की सूची में यह होनहार नाम - श्रीकांत दुबे। बाईस की कुल उम्र। हरेक ईमानदार की तरह, पहला प्रेम ही इनके जीवन की पहली रचना हुई। गोरखपुर से बनारस से दिल्ली से अभी बंगलौर। ‘’पूर्वज” कहानी से और साथ ही अपने शानदार व्यवहार से भरपूर चर्चित। पॉच वर्षों के सघन और उर्जावान प्रेम के बाद एक दिन अचानक प्रेमिका को घर की याद आ गई और उसके बाद हमने, हम सबने, किस्से कहानियों में नहीं, असल जीवन में प्रेम का घातक असर देखा। “पहला प्रेम जब राख हो गया खुद को बचाया उस साँवली नृत्य शिक्षिका ने..दंगे के खिलाफ दिखी वह प्रभातफेरी में..” की जीवनदायिनी तर्ज पर श्रीकांत ने खुद को कविता और नौकरी के सहारे बचाया। हम सब उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
बेहोशी
एक छोटी मृत्यु है बेहोशी.

बेहोशी के बाद होश आना एक पुनर्जन्म के जीवन की तरह है
बेहोशी के बाद बेहोशी के पहले की याददाश्त का धीरे धीरे वापस
आ जाना पिछले जन्म की विरासत को बदस्तूर अगले जीवन
तक लाये जाने जैसा है.

बेहोशी कि प्रक्रिया के दौरान अधिकतम चीज़ों का यथावत
रह जाना एक सुखद आश्चर्य भी हो सकता है लेकिन यह भी
संभव है कि बेहोशी के बाद के समय में बेहोशी के पहले की
याददाश्त कभी वापस न आती हो और बेहोश होने वाला तमाम
दूसरी मान्यताओं की ही तरह बेहोशी की घटना को अपने अतीत से
जुड़ा मानने लगे और पृथ्वी पर सृष्टि के इतिहास की अनेक
व्याख्याओं की तरह उसके मस्तिष्क ने भी अपनी बेहोशी
के पहले के जीवन की एक कहानी गढ़ ली हो और इस अचानक
गढ़े तिलिस्म में पूरी दुनिया सहायक की भूमिका निभाने
लगी हो. कुछ नहीं बदलने का बोध एक अनिवार्य भ्रम भी संभव
है जैसा कि रेटिना पर बने उलटे प्रतिबिम्ब को मस्तिष्क द्वारा हर बार
सीधा देखे जाने की स्थिति में होता है.

बेहोशी संभावनाओं का एक आकाश भी है जिसके भीतर सबसे
सुखद चीज़ प्रेम नहीं है. बेहोशी की दुनिया के भीतर हमारी
भाषाएं और व्याकरण अनावश्यक चीज़ें हैं और संभव है
कि वहाँ अभिव्यक्ति का कोई माध्यम अपनी सदियों जारी
विकास प्रक्रिया को जल्द ही पूरी कर लेने वाला हो जिसके बाद बेहोशी के
भीतर के जीवन कि दिलचस्प कथाएँ, इतिहास, मिथक और
तकनीकों पर बहस और शोधों का सिलसिला चले बेहोशी के बाहर
के जीवन में ब्रह्माण्ड के एक ही ग्रह पर खोजे गए जीवन के इन दोनों स्तरों
में सूचनाओं और संचार का विकास भी जारी हो जाए और दोनों के
बीच संस्कृतियों, रहन सहन और एक दूजे के
इतिहास से उठाए प्रेरक प्रसंगों की अदला बदली भी.

इन दोनों के सिवाय एक तीसरी दुनिया के बारे में भी सोचा जा
सकता है जो मृत्यु है और जिसके भीतर बेहोशी की दुनिया के भीतर के
रहस्यों से कई गुना अधिक संभावनाएं अब तक छुपी हुई हैं
लेकिन बेहोशी और मृत्यु के बाहर के जीवन से दोनों को एक
साथ देखने पर इनमें ढेर सारी चीज़ें एक जैसी लगती हैं.

एक संभावित निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है
मृत्यु एक लम्बी बेहोशी है.
..................................श्रीकांत
(पूर्वज कहानी तद्भव 16 में प्रकाशित)
(कोट की हुई कविता पंक्ति मशहूर कवि आलोक धन्वा की कविता “सात सौ साल पुराना छन्द” से है।)

Saturday, December 19, 2009

नाम तुम्हारा


बुजुर्गों की एक ही मुश्किल रही
तुमसे अपरिचय उनका ले गया उन्हे
दूसरे कमतर नामों वाले देवताओं के पास
सीने को दहला देने वाली खांसी
खुद को झकझोरती छींक
के बाद लेते हैं वो उन ईश्वरों के नाम
मैं लेता हूँ नाम तुम्हारा

मैं तलाशता हूँ, ईश्वर को नहीं, ऐसे शुभाशुभ मौके
जब ले सकूँ मैं नाम तुम्हारा, पुकारूँ तुम्हे

“जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं सी स्पेलिंग हो
छोटी-सी, प्यारी-सी तिरछी स्पेलिंग”
हाँ, देखो कि तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
पहिचानते थे,
ये तुम हो और शमशेर थे जिनने मेरी बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास रंगीनियाँ भाँप ली थी,
शमशेर थे जो मुझे इसी शरीर से अमर कर देना चाहा-
वो भी तुम्हारी बरकत।

तुम्हारे नाम के रास्ते वे मेरे दु:ख तक आ पहुंचे
खुद रोये और मुझे दिलासा दिया
तुम कौन से इतिहास की पक्षी हुई ठहरी कि
तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
उनकी बेचैन करवटें
मेरे लिये थी, आज भी ‘प्वाईजन’ की लेबल लगी
हंसती दवाओं और मेरे बीच शमशेर हैं,
तुम्हारे नाम से गुजर वो मुझ तक
इस हद तक आ पहुंचे।

तुम मेरे जीवन से कहीं दूर जाना चाहती हो,
इसे जान शमशेर मेरे लिये रोये होंगे,
ये उनकी ही नहीं समूचे जमाने की मुश्किल है,
ये संसार मुझे तुमसे अलग देखना नही चाहता और तुम यह नही


शमशेर ने मेरा तुम्हारा जला हुआ किस्सा फैज को सुनाया होगा
(तुम्हारा नाम [और तुम] है ही इतना अच्छा)
फैज तुम तक आयेंगे और जब कहेंगे कि अब जो उस लड़के के
जीवन में आई हो तो ठहरो के: कोई रंग, कोई रुत, कोई शै
एक जगह पर ठहरे।


मेरे हबीब, फैज़ की बात ऊँची रखना।

.....सूरज
(तस्वीर सूरज की है।)

Thursday, December 17, 2009

कैसे बताऊँ राज-ए-इश्क....

एक बार फिर करनाल रेलवे स्टेशन।

यह तस्वीर पोस्ट करते हुए एक संकोच मन में लगातार बना रहा कि इसे इजहार का अश्लील नमूना ना समझ लिया जाये और मेरे इस प्रयास को एक उच्श्रृंखल व्यवहार। जबकि मेरा यह भरपूर मानना है कि और जो भी हो, यह कहीं किसी कोने से अश्लील इजहार नहीं है। साथ ही यह भी, बचपन से ऐसी लिखावटों को पढ़ना ठीक लगता है। इजहार के ये तरीके आकर्षण लिए रहे हैं। मालगाड़ियों के लाल डब्बों पर लिखी ये इबारतें अक्सर पढ़ने को मिलती हैं। कहीं कहीं तो गाँव कस्बे का नाम भी दर्ज मिलता है। लड़के और लड़की का नाम भी। मैं सोचता हूँ कि इतनी मेहनत करने की हिम्मत जुटाना भी एक बात है। जिस किसी आशिक ने इसे लिखा होगा उसे जब कभी इसकी याद आती होगी वो, शायद, मुस्कुराता होगा और पुन: एकाध बीते ख्यालों से गुजर कर अपने काम में लग जाता होगा। दक्षिण मध्य रेल के इस डब्बे पर लिखी यह इबारत कहाँ कहाँ घूम आई होगी।

Monday, December 14, 2009

करनाल रेलवे स्टेशन पर कुछ गुत्थियाँ


यह तस्वीर करनाल रेलवे स्टेशन पर ली गई है। उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी है, मेरे सामने वह किताब खरीदी जो उसके हाथ में है। दोनों पुलिस वाले उतनी देर उस रस्सी, और उस रस्सी में बँधे आदमी, को थामे खड़े रहे जब तक की उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी है, अपनी मनपसन्द किताब नहीं खरीद ली। वो किताब ज्योतिष की है। उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी हुई है, पुलिस वालों को कुछ देर ज्योतिष में अपनी रुचि और गहरे ज्ञान के बारे में बताता रहा जब तक कि उनके प्रतीक्षित रेल की सूचना नहीं हुई।
मुझे यह दृश्य अजब लगा। लगा कि क्या बात है! और आश्चर्य कि तस्वीर को अब ध्यान से देखने के बाद एक नितांत नई और उतनी ही ताकतवर गुत्थी बनती नजर आई – पिछे बैठा प्रेमी युगल। कौन नहीं जानता कि करनाल जैसी छोटी जगहों पर प्रेम करने वालों के लिए ऐसी सुखद मुलाकात परिकल्पना या गप्प होती है।

Wednesday, December 9, 2009

महापुरुष का कथन और पराजित प्रेम

मैं किसी ईश्वर की तलाश में हूँ

जिस किसी ने कहा ईमानदार स्वप्न देखने वालों की मदद चाँद तारे आदमी आकाश सूरज बयार सब करते हैं गलत कहा/ प्रेम करते हुए मुझे अपनी प्रेमिका से भी यह आशा थी आशा ही रही औरों की तो बात क्या/ तुम्हे खोने के डर से थरथराता रहा और तुम थी कि मुट्ठी की रेत थी/ डर था मेरे स्वप्न को बेईमान कह दिया जायेगा और तुम वो पहली थी।

तुम कब थी ही यह बताना कठिन है पर जब थी मैने ठान रखा था तुम्हारे होठों के संतरें वाले रँग मैं कौमी रंग बनाउंगा उन संतरों के बाग मशहूर हो जायेंगे और मेरी प्यास अमिट/ मेरी अमिट प्यास की खातिर मेरे स्वप्न के भव्य चेहरे पर लम्बी नीली नदी का दिखता हुआ मखमली टुकड़ा है।
(बाकी बची नस सरस्वती की तरह ओझल)
(ठान अब भी वही है और तुम ‘अब भी’ हो)

हम ऐसे जुड़े कि निकलना बिना खरोंच के सम्भव ना था/ अपनी खरोंच से पहले यह मानना नामुमकिन था कि आत्मा से खून रिसता है/ तुम्हे मेरी आवाज से डरने की कोई वजह नहीं जैसे मेरे लिये तुम्हारी खुशी से विलग कोई मकसद नहीं/

डर है तुम्हे बजती हुई मेरी नवासी चुप्पियाँ ना सुनाई पड़े

एक कम नब्बे की संख्या, एक जिप्सी, एक बस और एक ही रात/ क्या खुद प्रेम को पराजित होने के लिये इन सबका ही इंतजार था/ पसन्द नापसन्द के बीच कोई झूला नहीं होता/ कोई कविता नहीं आई मुझे बचाने/सूरज देर से निकला/ मैने नींद से टूट जाने की प्रार्थना भी की/

प्रेम मकसद है पूरा का पूरा/ पर खरोंच भी एक गझिन काम है/ दुख देता हुआ/ समुद्र सी फेनिल यादें/ दरका हुआ आत्मविश्वास/ मांगता है
कुछ अजनबी ईंट,
अपना ही रक्त,
और उम्र से लम्बी उम्र।

-सूरज

Friday, December 4, 2009

शत्रु

मित्रता
जीने के आसान
से आसान हथियारों में से एक है।

जीवन भी कैसा/ कनेर की जामुनी टहनी/भारहीन गदा
भांजते रहो
आदर्श मित्रता कितनी सुखद रही होगी, कल्पनाओं में
कैसा घुटा जीवन बिताया होगा मित्रता की मिसालों ने
छोड़ देना प्रेमिका अपने मित्र के लिये, त्यागना प्रेम
(अपनी असफलता को ऐसा नाम देना)
माफ है
कि मरे हुए को कितनी बार मारोगे
मित्र के साथ
मित्र के लिए
विचार से जाना अपराध
है, चालू जीवन का शिल्प भी

मेरा शानदार दुश्मन खींचता है मुझे
विचारों के दोराहे तक, पैमाना है मेरा
मेरा शत्रु इतना ताकतवर जो पहुंचा आता
मुझे निर्णय के साफ मुहाने तक

जिनसे जूझता मैं आगे ही आगे
हर शत्रु मेरा सगा
हर निर्णय मेरा अपना।

सूरज.
Soorajkaghar@gmail.com

(सूरज की एक और कविता)

Wednesday, December 2, 2009

लॉटरी की वापसी

ये खबर अभी किसी याद की तरह ताजा है कि कांग्रेस सरकार “जनहित” में लॉटरी की शुरुआत फिर से करने वाली है, इससे जुड़ा कोई महत्वाकांक्षी बिल संसद मे पेश करने वाली है। जिन राज्यों मे लॉटरी का कारोबार चलता है कभी उन लॉटरियों का विज्ञापन देखिये, वो कुछ इस तर्ज पर होते है:- महालक्ष्मी लॉटरी, खेले आप, विकसित होगा राज्य। ऐसे ऐसे तमाम विज्ञापन। उदाहरण के लिये अपना महाराष्ट्र। वहॉ ऐसे खेल इन्ही विज्ञापनों के सहारे फल फूल रहे हैं। इस खेल के पीछे कोई ना कोई मंत्री या दूसरा रसूखवाला ही क्यों होता है ये जान लेना हमारे आपके बस का नहीं है। हम तो इतने लाचार है कि चाह ले तब भी बर्बादी के इस खेल की पुन: वापसी रोक नहीं सकते।

पर क्या हम यह भी नहीं सोच सकते कि अपने जीवन मे हमने लॉटरी से जुड़ा क्या खेल देखा है? हमारे आपके जीवन में ऐसे पात्र जरूर हैं जिन्हे शराब या पैसे की तरह लॉटरी का नशा है या था।

लॉटरी से तबाह होने वालों को अपनी आंखो से देखा। मेरा एक मित्र था जिसने मुझे लॉटरी के नम्बर पकड़ना सिखाया था। उसका दिमाग इसमें खूब चलता था। बचपन में हम लॉटरी का स्टाल देखते थे और तमाम फंतासियॉ बुना करते थे। पर डर लगता था। उस उस समय कभी आजमाया नहीं और बाद में किस्मत जैसी चीजों का कोई मह्त्व नहीं रहा।

लॉटरी आपको कैसी लगती है? क्यों ना लॉटरी पर आपकी राय हम जाने? क्यों ना हम आपके शहर/कस्बे के उन लोगों के बारे मे जाने जो राज्य का विकास कर रही लॉटरी के चक्कर में बर्बाद हो गये और अपने आश्रितों को भी सड़क पर ला दिया? उनके बारे में जानना सुखद होगा जो लॉटरी से आबाद भी हुए, भले ही वो लाखों में एक क्यों ना हों?

अपन इतना तो कर ही सकते हैं कि इसे सम्भाल कर रखेंगे और जब इस वैज्ञानिक समझदारी वाले देश में जुये(लॉटरी) का जानलेवा खेल अखिल भारतीय स्तर पर शुरु होगा तब उन व्यवसायिओं को इसका पुलिन्दा बना कर भेजेंगे।