बाबा नागार्जुन की यह कविता बचपन में पढ़ी थी. उस समय, याद है, इसके शीर्षक में उलझ गया था. मतलब दिमाग यह मानने को तैयार नही होता था कि एक दिन में इतना परिवर्तन कैसे आ सकता है? अभी जब इसे दुबारा पढ़ रहा था तो स्पष्ट हुआ कि ये जो ’कल’ है वो बहुत लम्बा वक्फा है और हू-ब-हू ‘आज’ भी, उतना ही बड़ा. और यह भी कि यह कविता प्रकृति के सर्वाधिक निर्दोष नियम यानी बदलते बदलते बदलने की बात करती है, अचानक से बदलने की नहीं.
फिर आज समय सुकाल ऐसा आया है कि ये कविता मौजूँ बन पड़ी है.
कल और आज
अभी कल तक
गालियॉं देते तुम्हेंर
हताश खेतिहर,
अभी कल तक
धूल में नहाते थे
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
धरती की कोख में
दुबके पेड़ थे मेंढक,
अभी कल तक
उदास और बदरंग था आसमान!
और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तम्हारे तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरो की शहनाई अविराम,
और आज
ज़ोरों से कूक पड़े
नाचते थिरकते मोर,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,
और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।
6 comments:
dilli ki garmi me is kavita ne barish shuru kar di...hum sab bhi koshish kar rahe hai ki humara kal itna hi alag ho..is kavita se aas jagi..dhanyawad.
- Bodhisatva
nice poem
ओर इत्तेफकान मैंने" चक्की उदास "वाली उनकी कविता पढ़ी है.......
बहुत खूबसूरत भाव
बहुत आभार आपका बाबा की इस रचना को पढ़वाने का.
पढ़ते जा रहा हु
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