Tuesday, June 22, 2010

जोसे सारामागो नहीं रहे.

यह दुख:द घटना बीते मनहूस शुक्रवार, 18 जून को घटी, जो ना घटती तो कितना अच्छा होता.

रविवार को मैं हिसार था और सेल्स रिव्यू मीटिंग के दौरान मन बेधने वाले सवालो की बौछार से मरा जा रहा था. उसी बीच दिन के ढ़ाई तीन बजे के करीब फेसबुक देखा और मनोज पटेल से वॉल पर यह अत्यंत दुख:द खबर मिली. हाईस्कूल के बाद छुट्टियों में ईलाहाबाद आया था तो पहली बार कोई साहित्यिक पत्रिका देखी- कथादेश. उसमें जितेन्द्र भाटिया द्वारा अनुदित सारामागो की एक कहानी पढ़ी थी.

यह मेरी साहित्य के सामान्य ज्ञान वाली उमर थी. यह वह समय था जब मैं गुनाहों के उस कमाल के रोमांटिक देवता को पढ़ चुका था और साहित्यकारों के बारे मे जानना, उनका नाम तक जानना, अजीब से एहसास से भर देता था. मुझे लगता था कि इन रचनाकारों के नाम भूल जाऊँगा, इसलिये मैं उनके नाम, नाम के आगे डैश लगाकर इनकी किताबों के नाम अपनी डायरी में लिखता था. किताब की दुकानों पर खड़ा होना, देर तक किताबें पलटना पसन्दीदा काम हो गया था. इस हद तक पसन्दीदा कि किताब की दुकान वाला जब पत्रिका छीन कर रख लेता तब भी मुझे बुरा नही लगता था. इन्ही अच्छे दिनों में मेरा परिचय इस महान उपन्यासकार से हुआ. इनका भी नाम, किताबों के नाम सहित, अपनी डायरी में लिख लिया.

जोसे सारामागो से मैने बहुत कुछ सीखा है. ब्लाईंडनेस पढ़ने के बाद तो मैं हर रोज एक उपन्यास लिखने (लिख ही डालने) की योजना बनाता. इंटर में था और कहानी लिखने की सोचते सोचते ही सो जाता था. अब भी, जब नौकरी ने सारा समय सोखना शुरु कर दिया है, तब सारामागो का जीवन दिलासा देता है जिनके लेखन में उनके ही जीवन ने अनेक बाधायें पहुंचाई.

ईयर ऑफ दि डेथ ऑफ रिकार्डो रेईस पढ़ने के बाद सारामागो को समझा. लम्बे लम्बे वाक्यों, कई कई पन्नों तक फैले पैराग्राफ्स से डराने वाले इस लेखक के लेखन में ‘सिमप्लिसिटी’ कमाल की है. इनका गद्य, भोर के हवा की तरह और स्टीफन ज़्विग के गद्य की तरह, सरल और सुरुचिपूर्ण है. जिस शहर को हम प्यार करतें हैं उसका चित्रण करना हो तो आपको हिस्ट्री ऑफ दी सीज ऑफ लिस्बन जरूर पढ़ना होगा. (जो लोग इस्तांबुल की चित्रकथा पर मर मिटें है उनके लिये एक नेक सलाह.) जब लेखक लिस्बन के सड़कों के ढ़लान का जिक्र करता है तब आप उसकी जादूगरी देखिये. और हाँ, यह लेखक जादुई यथार्थवाद के फॉर्मूला युग में भी यथार्थ को तरजीह देता है.

इनकी रचनायें सबसे पहले एक ऐसे सत्य को उद्घाटित करती हैं जो है तो अवश्यम्भावी पर हम उसे देखना नही चाहते, इसलिये उस सत्य को सुनना भी टालते रहते हैं यह कहते हुए कि अरे ये तो भारी झूठ है, गप्प है.. उसके बाद यह रचनाकार अपनी सारा सामर्थ्य उस झूठ दिखते सच के परदे हटाने में लगा देता है. अंत आते आते आप यकीन कर लेते हैं कि ईशा मसीह एक सामान्य इंसान थे, कि कुम्हारों और अन्य देशज कलाकारों का जीवन नष्ट हो ही जायेगा, कि लिस्बन को मुस्लिम सेना अपने कब्जे मे नही ले पाई थी, और यह भी कि दिमाग के जिस अन्धेपन से गुजर रहे हैं वो त्रासदिक है.

इनके शब्द विन्यास पानी की तरह पारदर्शी रहे हैं जिसने ‘विनोद कुमार शुक्लीय’ समय में मेरी बड़ी मदद की. साथ दिया वरना हिन्दी के भतेरे कहानीकारों को पढ़ कर लगने लगा था कि बिना काव्यात्मक और फिजूल विशेषण लगाये संज्ञा, सर्वनाम का इस्तेमाल अपराध है. घोर अपराध है.

मुझे सबसे जरूरी शिक्षा इस लेखक ने (जाहिर है अपनी पुस्तकों के मार्फत) विराम चिन्हों के इस्तेमाल के बारे में दी. इनके शब्द ही बोलते थे. कॉमा या पूर्णविराम के अलावा इन्होने दूसरा कोई चिन्ह, जैसे प्रश्नवाची या विस्मयबोधी या ब्रैकेट या डैश या और भी तमाम, कभी इस्तेमाल ही नही किया. वरना अपने लेखन के शुरुआत में तो मैं बिना विस्यमादिबोधक चिन्ह लगाये रोटी भी नही मांगता था.

हालांकि समय की अपार ताकत और जीवनचक्र के कठोर सच से मैं वाकिफ तो हूँ पर अभी अपने इस प्रिय लेखक से दोएक उपन्यासों की उम्मीद और थी. खासकर दक्षिणी और पूर्वी यूरोप में फैल रहे जहरीले धार्मिक उन्माद और इसी क्षेत्र में फैल रहे नये और खतरनाक दक्षिणपंथ के विषय पर. एक जरूरी बात बताना तो भूल ही रहा था. बहुत कम ऐसे नोबेल पुरस्कार विजेता हैं जिन्होने ‘समकाल’, अपने वर्तमान को अपने लिखने का विषय बनाया. ज्यादातर लेखक/लेखिकायें तो इतिहास के आरामदायक और गर्म ओवरकोट या पेटीकोट में छुपे रहते है. पर सारामागो के साथ ऐसा नही था. उन्होने तात्कालिक राजनीति के चरित्र पर ‘सीइंग’ लिखा. हिन्दी के पुराने पड़ गये कथाकारों के पसन्दीदा विषय ‘बाजार’, जिसकी आड़ ले हिन्दी के ‘महान’ कथाकारों ने अभी तहलका के साहित्य अंक में युवा कथाकारों के खिलाफ ‘सुभाषित’ उगलें हैं, पर ‘दि केव’ लिखा.

मेरे सारे अज़ीज, एक एक कर के, शुक्रवार को एक शनिवार को दूसरा, मुझे छोड़ते जा रहे हैं.

सारामागो या मार्खेज या कुन्देरा या एदुआर्दो मेन्दोसा या अपने ज्ञान जी (ज्ञान जी, हम आपकी ही रचनायें पढ़कर बड़े हुए है. जब सब कुछ सीखा ही जाता है तो इसका भी जबाव आपको ही देना होगा कि अगर यह पीढ़ी, जिस पर आपको नाज होना चाहिये था, आपके अनुसार मनुष्य विरोधी है, तो इसने यह मनुष्य विरोध सीखा कहा से? पर मैं आपको एक राज की बात बताऊँ- हम मनुष्य विरोधी नही हैं.) या उदय – कोई भी हो मेरी कभी इनसे मिलने की इच्छा हुई तो इनकी रचनायें पढ़ लेता हूँ. इन्हे पढ़ना, लिखने से भी अच्छा लगता है.

मैं जोसे सारामागो को अपने सामर्थ्य जितनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. आप हमेशा हमारे साथ रहोगे.

7 comments:

anurag vats said...

lagbhag usi waqt maine bhi manoj k fb wall pr yh khabar dekhi aur thithak gaya...सबसे जरूरी शिक्षा इस लेखक ने (जाहिर है अपनी पुस्तकों के मार्फत) विराम चिन्हों के इस्तेमाल के बारे में दी. इनके शब्द ही बोलते थे. कॉमा या पूर्णविराम के अलावा इन्होने दूसरा कोई चिन्ह, जैसे प्रश्नवाची या विस्मयबोधी या ब्रैकेट या डैश या और भी तमाम, कभी इस्तेमाल ही नही किया...bahut vilakshan baat note kiya aapne,saramago ko dhyan se padhne wale yh jante hain...mere hisse ''the history of the siege of lisbon'' tatha ''all the names'' aai...abhi hal hi men saramago ne apna memoir chapaya hai...''small memories'' naam se yh bhi जो लोग इस्तांबुल की चित्रकथा पर मर मिटें है unhen zaroor padhni chahiye...shraddhanjali...

Udan Tashtari said...

जोसे सारामागो को श्रद्धांजलि.

मनोज पटेल said...

चन्दन, मैनें सारामागो, मार्खेज और कैल्विनो जैसे लेखकों को आपके माध्यम से ही जाना था | मुझे याद है जब आपने मुझे पहले-पहल सारामागो के बारे में बताया था और मैं विश्व पुस्तक मेले में उनकी किताबों के लिए भटकता फिरा था | आपकी इस पोस्ट ने संक्षेप में उनके बारे में बहुत कुछ बता दिया है | शायद ये दुखद सूचना मुझे ही आपको देनी थी | हर रविवार की तरह उस दिन भी सुबह-सुबह मैंने नेट पर ही 'जनसत्ता' खोला था जिसमें अशोक वाजपेयी ने अपने कालम में सारामागो की नोटबुक के प्रकाशन के अवसर पर उन्हें याद किया था | फिर कुछ देर बाद अखबार आ गए, जिसमें ये खबर मिली | अशोक वाजपेयी ने नोटबुक से सारामागो को quote किया था , , " जब हम एक ऐसे कमरे में प्रवेश करते हैं जो घुप अँधेरे में डूबा हुआ है और उसमें रौशनी कर देते हैं तो अँधेरा गायब हो जाता है | तो यह पूछना अजब नहीं है की वो कहाँ चला गया | और इसका केवल एक ही उत्तर हो सकता है वो कहीं नहीं गया, अँधेरा रौशनी का दूसरा पहलू है, उसका छिपा पक्ष |"

शायद सारामागो भी कहीं नहीं गए................

मनोज पटेल

सुशीला पुरी said...

सारामागो को मेरी विनम्र विदाई ..., आपने उन्हे जितनी बारीकी और गहराई से जिया है ,किसी अच्छे लेखक को लोग कम जी पाते हैं ।

Rangnath Singh said...

सरामागो कालजयी लेखक थे। उनकी खूबियों पर फिर कभी। तुमने लिखा बहुत अच्छा है। तुम्हारी सबसे अच्छी पोस्ट में इसे रखुंगा। सरामागो को हमारी श्रद्धाजंलि।

डॉ .अनुराग said...

सरामागो को श्रद्धाजंलि।

रोली पाठक said...

जोसे सारामागो को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि....
चन्दन,आपने उनके लेखन का जिस खूबसूरती से वर्णन किया है वह सच्ची श्रद्धांजलि है आपकी उनके प्रति...
ऐसे महान साहित्यकार सिर्फ देह का त्याग करते हैं,उनका लेखन तो अमर है...जो आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरणा देगा.