Tuesday, June 15, 2010

गौरव सोलंकी की कविता - चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ

गौरव सोलंकी की यह कविता अद्यतन कविता परिदृश्य को समृद्ध करती है. आई.आई.टी रूड़की से पढ़े लिखे गौरव फिलवक्त पत्रकारिता से जुड़े है. बेहद अच्छा और जरूरी कवि. गौरव की बहुत सारी कविताओं के लिये यहाँ क्लिक करें.


यह उजाले की मजबूरी है
कि उसकी आँखें नहीं होतीं
और वह ख़ुद अपने लिए
अँधेरा ही है।
जिस तरह सब लालटेनें अनपढ़ हैं,
सब पंखे गर्मी से बेहाल,
अब आरामदेह गद्दे खुरदरी लकड़ी और नुकीली कीलों के बीच धँसे हैं ,
याहू मैसेंजर का नहीं है कोई दोस्त,
सब एसी कारें सड़कों पर धूप में जल और चल रही हैं,
नंगे हैं महंगे से महंगे कपड़े,
मछलियाँ संसार के किसी भी पानी में डूबकर
आत्महत्या नहीं कर सकतीं,
नहीं है जुबान किसी इस्पात-से गीत के पास भी,
कोई शीशा नहीं देख सकता
किसी शीशे में अपने नैन-नक्श।

चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ
और नौकरी करने वाले दोस्त काम आएँगे,
यह उनकी इच्छा के साथ-साथ
शनिवार और इतवार के होने पर भी निर्भर करता है।

आँखों में काँटे या आग है
इसलिए किताबें और दुखद होती जाती हैं,
फिल्में थोड़ी और काली,
शहर थोड़ा और राख
और इस तरह इस कविता में भी विद्रोह है
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था।

4 comments:

Rajeysha said...

वाकई काफी ताजगी है इन पंक्‍ि‍तयों में। लड़कि‍यों की आजादी शनि‍वार, रवि‍वार जैसे कि‍सी दि‍न .. कि‍सी डेट पर नि‍रभर कर रही है। क्‍या स्‍वतंत्रता कि‍सी पर र्नि‍भर होती है ???

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया

shesnath pandey said...

गौरव ने इस कविता में शिल्प को सुगम संगित की तरह पेश किया है....और पंक्तियों के भावों में तो आम जन की आम बातो को गहरे तक उतारने की सफल कोशिश है.... बेहतरिन कविता है....

शरद कोकास said...

अच्छी कविता है भाई ।