मिर्ज़ा ग़ालिब। दुनिया के महानतम काव्य विभूतियों में से एक। या शायद सर्वोत्तम।
डॉ. कृष्णमोहन। हिन्दी आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर। मुक्तिबोध की प्रमुख कविताओं पर किताब। साहित्यालोचना पर आपकी किताब “आधुनिकता और उपनिवेश”। हिन्दी कथा साहित्य की विशद पड़ताल करती आलोचना पुस्तक “कथा समय” शीघ्रातिशीघ्र प्रकाश्य। हिन्दुस्तानी कविता पर महत्वपूर्ण काम। पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। ग़ालिब पर यह लेखमाला किश्तों में चलेगी। सम्प्रति, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर।
अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
ग़ालिब की शाइरी के सामाजिक राजनीतिक आशयों को लेकर कई तरह के भ्रम हैं। पिछले दिनों 1857 के सन्दर्भ में बात करते हुए अनेक अध्येताओं ने उन्हे नये सिरे से व्यक्त किया है। कविता की सामाजिक भूमिका की गलत समझ और भारतीय काव्य-परम्परा की अवहेलना के कारण यह समस्या पैद हुई है। हम यहाँ संक्षेप में इन्हीं पहलुओं पर विचार करेंगे।
ग़ालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई ग़ज़ल के चन्द शेर हैं-
गुलशन में बंदोबस्त बरंगे–दिगर है आज
कुमरी का तौक हल्का-ए-बेरूने-दर है आज
आता है एक पारा-ए-दिल हर फुग़ां के साथ
तारे-नफस कमंदे-शिकारे-असर है आज
अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज
पहले शेर का आशय है कि बग़ीचे का इंतज़ाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिड़िया के गले के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिड़िया अपना गीत गाने के लिए तो आजाद है, लेकिन यह आज़ादी एक बड़े कैदखाने के अन्दर की आज़ादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फ़र्क शासकवर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेजों ने इन हथकंडों का बखूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दिख जाते हैं। यहाँ ‘दूसरे (दिगर) ढंग का इंतज़ाम’ की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आज़ाद करने वाला समझा जा रहा है जबकि वह गुलामी को ही और गहराई देता है।
दूसरे और तीसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है।
‘ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घरबार को ढा देने पर उतारू है।‘
ग़ालिब के अधिकांश आधुनिक अध्येताओं के साथ समस्या यह है कि वे उन्हें वास्तविक सन्दर्भों से काटकर पढ़ते हैं। नतीजा यह निकलता है कि उनके शेर शाब्दिक अर्थ तक सीमित हो जाते हैं और उनकी व्यंजना खो जाती है।....(जारी..)
1 comment:
Dinesh Jugran: गालिब का एक बहुत ही बेहतरीन शेर आपने जरूर पढ़ा होगा –
'' हूँ गर्मिये निशाते तसव्वुर से नग्मा संज
मैं अंदलिबे गुलशने ना-आफरीदा हूँ|”
उम्मीद है कि आप इसकी व्याख्या बखूबी करेंगे|
यह टिप्पणी प्रसिद्ध कवि श्री दिनेश जुगरान जी की है जो इन्होंने मेरे फेसबुक के वाल पर की थी। यह टिप्पणी व्याख्याकार श्री कृष्णमोहन जी के लिये है इसलिये मैं इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
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