मस्तिष्क के किसी कोने में रखी तुम्हारी
आहटें चींथती हैं, मुर्झायी कोई कील चुभती
है, जैसे छेनी हथौड़ी से सर की हड्डियों
पर कशीदाकारी की जा रही हो कोई
ठक ठक ठक
लगातार
ठक ठक ठक
मृत्यु इच्छा की तरह प्यारी लगती है
अपने अनकिये अपराध खूब याद आते
है समय ठहर जाता है जब सुबह सुबह
आने वाले इस संकट का आभास मुझे
होता है मैं तैयार होने लगता हूँ अपने
आप से लड़ना कठिन है दर्द का ईश्वर
उस पार से मुझे देख मुस्कुराता है मेरी
लुढ़की गर्दन, जिसके हिलने भर से हजार
हजार बिच्छुओं का डंक लगता है, जानती
है दर्द के उस पापी ईश्वर से अलग मेरे
लिये कोई नही, अब कोई भी नहीं
फौरन से पेश्तर मैं जीने की अपनी
असीम आकांक्षा किसी को भी बताना
चाहता हूँ,
ताकि सनद रहे।
........सूरज
9 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। सरदर्द ऐसा ही बुरा लगता है। सूरज जी आपको पढ़ना इसलिये भी अच्छा लगता है क्योंकि आप दिल से लिखते हैं। हर बात पर समाज समाज की नकली रुलाई वाले कवियों से बिल्कुल अलग हैं।
दर्द का ईश्वर/ उस पार से मुझे देख मुस्कुराता है
क्या कहूं !
सूरज सूरज हैं ! बेचैन करनेवाली अभिव्यक्ति, कविता का पूरा तनाव यहाँ मौजूद है .
बढिया लिखा आपने .. बहुत बधाई !!
बेहतरीन...वाह!
पूरी कविता में त्रासद तनाव है। दर्द का ईश्वर, तुम्हारी आहटें..रखी हुई, ये दोनो बेहतरीन बिम्ब हैं। मन विचलित कर देने वाली कविता के लिये सूरज जी आपको बधाई।
bahut khoob!
बहुत अच्छी कविता... नयी बात बड़ी सक्रियता से चल रहा है... अपने स्तर के साथ.. शुक्रिया... बांकी अनुराग जी ने कह दिया है..
sirf ek hi comment-- "Lazawab!"
you have increased our expectations from you..... It was a bit disappointing for me.....
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