Saturday, January 23, 2010

होर्खे लुइस बोर्खेस की कविता : अनुपस्थिति

जैसे शमशेर हिन्दी में कवियों के कवि कहे जाते हैं वैसे ही अर्जेंटीना का यह शख्स समूचे विश्व के कवियों का कवि, कथाकारों का कथाकार कहा जाता है। ऐसा रचनाकार जिसके प्रभाव से कोई नासमझ ही बच सकता है। तुर्रा यह कि हिन्दी के साहित्य संसार में कुछ बिल्कुल ही नही लिखने वाले लेखकों ने मौलिकता को लेकर जो काट मार मचा रखी है उनके लिये आईना हैं बोर्खेस, इन्होने हमेशा हमेशा प्राचीन कथाओं का पुनर्लेखन ही किया है। यहाँ उनकी कविता।
अनुपस्थिति

जागना होगा समूचे जीवन, वह जीवन
जो फिलवक्त तक तुम्हारा आईना है:
हर सुबह उसे फिर से होगा जोड़ना।
जब से तुम छोड़ आई उन्हें,
न जाने कितनी जगहें हो चलीं असार
और बेमतलब की, जैसे
दिन में रौशनी।
शामें जो तुम्हारे ख्वाब का ठिकाना हुआ करती थीं,
गीत, जिनमें तुम हमेशा मेरा इंतजार करती थी,
उस वक्त के शब्द को,
लुटाते रहना होगा अपने हाथों से।
किस कंदरा में छुपाउंगा अपनी आत्मा को
ताकि सहनी न हो तुम्हारी अनुपस्थिति
जो प्रचंड धूप सी, बिन सूर्यास्त वाली,
चमकती है कठोर - निर्मम?
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे घेरती है
जैसे कोई रस्सी गले को,
जैसे समुद्र
जो डुबोता हो।
.........होर्खे लुइस बोर्खेस
(अनुवाद श्रीकांत का। अनुवाद की दुनिया में श्रीकांत ने जर जमा बीस पच्चीस दिन बिताये हैं और पूत के पाँव पालने में दिखा गया की तर्ज पर श्रीकांत के पास तमाम सम्पादको उप सम्पादकों के फोन जा रहे हैं। सभी को उससे रचनायें चाहिये। हाल ही उसके द्वारा अनुदित मार्खेज की कहानी राजस्थान के एक अखबार ‘डेली न्यूज’ में प्रकाशित होने वाली है। शायद आज ही। तुम्हे बधाई, श्रीकांत।)

9 comments:

Bodhisatva said...

Touching ! Like when one touches a bare iron rod at -10 degree temperature!.....this poem seems like a raw material of a nude pain thrown away to take its own shape....it seems it did; like nothing else!
Thanks !!

Mockingbird said...

Thanks Chandan for the poem. It is really one of the mysteries that a poem written in a language you do not know can touch you so. My wishes to Srikant for his beautiful work. His translations are beautiful, a piece of art.

शिरीष कुमार मौर्य said...

एक बहुत अच्छी कविता का उतना ही अच्छा शानदार अनुवाद....वो भी मूल से. दुआ करता हूँ संपादकों-उपसंपादकों के फोन यूँ ही आते रहें. उपसम्पादक अक्सर जीवन और विचार से भरे नौजवान होते हैं....संपादकों से ज़्यादा उन पर भरोसा करना प्यारे. श्रीकांत को बधाई.

Aparna Mishra said...

It is always difficult to express the absence of something or someone. Its a touching poem,anyone can relate himself by this by reading or going through this.. Shrikantji, congrats to you for such a nice translation.... thanks Chandan for presenting such a nice composition to all of us....

vidrohi said...

शब्दों के अभाव के कारण मैं श्रीकांत को सिर्फ ' बहुत बहुत बधाई' ही कह सकता हूँ. मुझे हैरत इस बात की है की श्रीकांत अपनी इन हरकतों के लिए इतना वक्त कहाँ से निकाल पाते हैं और इस कॉर्पोरेट मायानगरी (बंगलोर) में रहते हुए अपने इस हुनर को बचा पाना और लगातार इसे सींचते रहना ये शायद श्रीकांत के लिए ही संभव है. आप वाकई लाजबाब हैं श्रीकांत. अनुवाद जैसे मुश्किल काम के लिए हिम्मत जुटा पाना और उसे इस खूबसूरती और ईमानदारी से अंजाम देना, ये कोई आपसे सीखे. मैंने spanish भाषा से हिंदी में में अब तक हुए बहुत सारे अनुवाद पढ़े हैं. लेकिन हिंदी और इंग्लिश जानने वाला पाठक वर्ग spanish में नामों का जैसा उच्चारण कर रहा है, कई बार उसमें हम spanish जानने वालों को छोटी छोटी खामियां नजर आती हैं, लेकिन हम नजरंदाज कर जाते हैं. उदहारण के लिए Marquez को हिंदी पाठक 'मार्खेज ' कहते हैं,जबकि सही उच्चारण 'मार्केस' है. आपने अपने पहले के और इस अनुवाद में भी (gorge को 'होर्खे' अनुवाद कर) हिंदी को सही अनुवाद उपलब्ध करा कर एक अच्छा काम किया है, मैं एक हिंदी का पाठक और शुभचिंतक होने के के नाते आपको 'शुक्रिया' कहना चाहता हूँ.

गिरिराज said...

यह भी एक बहुत अप्रिय सच है कि बोरहेस अगर हिन्दी लेखक होते तो उन्हें रहस्यवादी,जटिलतावादी,अध्यात्मवादी, पुनरूत्थानवादी, जनविरोधी आदि कहा जाता और उनके लेखन में साम्राज्यवाद का विरोध करने के, नवउदारवाद का प्रतिरोध करने के, जनपक्षधर प्रवृतियों का बढ़ावा देने के, समकालीन यथार्थ के यथार्थवादी चित्रण के, सही राजनीति के सख़्त, स्वाभाविक अभाव के कारण उन्हें रूपवादी-कलावादी-राष्ट्रवादी आदि बताया जाता।

यह बहुत सुखद, किंचित हैरानी की बात है कि मेरे समकालीनों में, युवतर मित्रों में बोरहेस को लेकर बहुत प्यार और सम्मान है। कभी कभी उन में भी जो उपरोक्त किस्म के आलोचना-पर्यावरण पर न सिर्फ डिपेंड करते हैं खुद अपनी पहचान के लिये उसे लेजिटिमाईज भी करते हैं।

श्रीकांतः अगर हो सके तो यह कविता स्पेनिश में mail@pratilipi.in पर भेज दो।

डॉ .अनुराग said...

गिरिराज जी की टिपण्णी के बाद कुछ कहने को शेष नहीं रहता .....कविता पढवाने के लिए शुक्रिया

Anonymous said...

shrikant sachmuch tum badhai ke patra ho. tumhari pratibha ka kayal to mai pahle se hu lekin is kavita ne tumhe ek nai uchhai dee hai. aasha karta hu tum isi tarah apni kalam ki dhar banay rakhoge. bahut-bahut shubhkamnayen.
Indra mohan

सुधांशु said...

श्रीकांत, अनुवाद बहुत ही अच्छा है...मैं जानता हूँ इन अनुवादों को पाठकों तक लाने में तुम्हे कितना मानसिक वैचारिक और अनुवादकों की दुनिया के शब्द कोशिये द्वन्द से गुजरना पर रहा होगा...bhu ke एक नहीं बीसीओं मित्र है जिनके पास विदेशी भासा का अच्छा ज्ञान है...लेकिन उनका यह ज्ञान उनके रोज़ी रोटी से ऊपर नहीं उठ पाया...लेकिन तुम्हारे श्रीज्नात्मक प्यास और लगन की देन है की इतनी अछी चीजें लोगों को मिल रही है...
और क्या लिखूं इसी तरह लगन से काम करते रहो , आज जयपुर निकल रहा हूँ...आते ही तुम्हारा कम करता हूँ...
चन्दन भैया को साधुवाद उनकी वज़ह से इतनी अछी चीजें मिल रही है....