परसों रात साढ़े ग्यारह बजे हिसार के होटल में चेक-इन कर रहा था जब चन्द्रिका का फोन आया। उसके मार्फत यह खबर मिली कि अनिल चमड़िया को महात्मा गान्धी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाये, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जायें, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गई। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलाई गई और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।
हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक तल्ख उदाहरण है। बचपन की बात है, गाँव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी कभी पीट भी देते थे। किसी ना किसी बहाने से,उन बच्चों को जानबूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ?
हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक तल्ख उदाहरण है। बचपन की बात है, गाँव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी कभी पीट भी देते थे। किसी ना किसी बहाने से,उन बच्चों को जानबूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ?
वजहें जो भी हों सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने समझने के लिये विश्वविद्यालय तैयार नही था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छ: महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गई एक मात्र सही नियुक्ति को खा गया।(मैं चाहता हूँ कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पाण्डेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडम्बना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ सम्बन्धो का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।
आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये: अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी। इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशे व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाये। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिये।
ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय सम्बन्धों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहरायेगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है उन्हे भी उनका हिस्सा दिया जायेगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूँ पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नही देखी जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हाँ उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डाले” जैसे लेख लिखती है। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नही रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाये।
अनिल जी, हम लोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में ना लाना कि आपसे कोई चूक हो गई। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिये। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।
आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये: अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी। इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशे व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाये। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिये।
ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय सम्बन्धों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहरायेगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है उन्हे भी उनका हिस्सा दिया जायेगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूँ पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नही देखी जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हाँ उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डाले” जैसे लेख लिखती है। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नही रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाये।
अनिल जी, हम लोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में ना लाना कि आपसे कोई चूक हो गई। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिये। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।
11 comments:
नौकरी किसी की जाए दुखद है, लेकिन चमड़िया जी को आप जितने बड़े पत्रकार के रूप में पेश कर रहे हैं, वो उतने बड़े शायद नहीं. पत्रकारिता में कितने ब्राह्मण है और कितने दलित इससे ज्यादा तो आज तक उन्होंने कुछ लिखा ही नहीं.
बिल्कुल सही लिखा है आपने। ऐसे हरकतों के खिलाफ मन में क्रोध और खीझ उमड़ती है। अनिल चमड़िया जी के समर्थन दूसरे रचनाकारों को भी उतरना चाहिये।
सत्य प्रकाश जी अनिल का वह नेपाल पर लिखा लेख भूल गये क्या?
सोचने वाली बात है... वाकई
Mujhe Anil Chamadiya ke vahan jaane kee khabar se hairani huii thi, is khabar se nahin huii. ...
Aur agar unhone sirf itna hi likha hai ki patraakarita men kitne brahman hain aur kitne dalit to yah ek line kafee hai. iska jawaab bata do bhaaii. sirf Patrkaarita hee nahin, kahin bhi dekhao.
सब कुछ बहुत दुखद है चंदन। मैं अनिल जी को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानती हूं, लेकिन उनकी लेखकीय ईमानदारी से थोड़ा बहुत परिचित हूं। चंदन तूम्हारे साहस की भी दाद देनी होगी। प्राइवेट जॉब में फ्रस्टेट हो रहे जाने कितने साथी अपने मन की बात सार्वजनिक करने में डरते हैं। इस फील्ड में काफी हद तक संबंध ही आपका करियर निर्धारित करते हैं वरना आप के लिए संघर्श ही संघर्श है। जहां देखो कहीं जातिवाद है तो कही क्षेत्रवाद। इन्हीं लोगों ने देष को बरबाद कर रखा है। जाति, धर्म, क्षेत्र मेरे कभी आड़े नहीं आता, लेकिन जब मैं इसकी शिकार होती हूं तो मन आता है कि इन सबको गोली मार दूं। विभूतिनारायण राय का यह दूसरा रूप बहुत दुखद है। भगवान उन्हें सदबुधी दे। सच की तुम्हारी पक्षधरता को एकबार फिर सलाम।
राय बहादुरों की इस फासिस्ट हरकत का हम कड़े शब्दों में विरोध करते हैं। अनिल जी ने सच कहने की कीमत चुकाई है। ऐसे अनुभव बहुत कम हो रहे हैं इन दिनों जब कोई सच बोले और लोग निस्वार्थ भाव से उसके साहस की दाद दें। चंदन अनिल जी की इस लड़ाई में हम सब उनके साथ हैं यह उनकी अकेले की बात नहीं है। विरोध का स्वर धीमा पड़ना दुखद तो है लेकिन चकित नहीं करता।
BAHUT HI ACHHA LAGA KI AAKHIR IS PROFESSIONAL LIFE MEIN AANE KE BAAD BHI MANAWATA AAPKE ANDAR BACHI HAI AUR DUSRON KO BACHAYE RAKHNE KE LIYE BHI TATPAR HAIN JO AAP JAISE HI SANGHArshsil hain...kkeeepppp iiiiitttttt uuuuuuupppppppp
यह भी देखें
चमड़िया जैसा 'इडियट' नहीं, राय जैसा 'चतुर' चाहिए
http://naipirhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html
चंदन, विश्वविद्यालय की विजीटर द्वारा मनोनीत ई. सी के इन सदस्यों - राम करन शर्मा, डा. एस थंकमनी अम्मा, एस एन राय , कृष्ण कुमार, मृणाल पांडे , गंगा प्रसाद विमल के अलावे विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय और प्रति कुलपति नदीम हसनेन के समक्ष उक्त फैसला किया गया। गोकर्ण शर्मा नही उनका नाम राम करन शर्मा है।
बाकी सब तो बस घासीराम हुये...जब चाहा कोतवाल बना दिया जब चाहा हटा दिया..
कितना गंद भरा है इन तथाकथित अच्छे अच्छे संस्थानों में.
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