अप्रतिम युवा कथाकार कुणाल सिंह। अभिनव भाषा, बेहतरीन गद्य और नई सूझ बूझ से लैस कथाकार। ‘सनातन बाबू का दामपत्य’ कथा संग्रह खूब चर्चित। पारम्परिक किस्म के आलोचकों की पहली (ना)पसन्द। बावजूद इसके, लोग इनकी रचनाओं का इंतजार करते हैं। पच्चीस तक की उम्र कलकत्ते में गुजारी और अब पिछले तीन सालों से दिल्ली में। यह पहला उपन्यास- ‘आदिग्राम उपाख्यान’। आज की तारीख में बेहद मौजूँ विषय वस्तु।
इस उपन्यास के अंश नितांत पहली बार कहीं भी प्रकाशित हो रहे..नववर्ष के पहले पहल दिन पर...। उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।
किस बाबरनामे में आदिग्राम का जिक्र आता है?
परिमलेन्दु दा ने बच्चों को जिस रानी रासमणि की कथा सुनाई थी, वह कोई सचमुच की रानी नहीं थी। वह एक गरीब चासी (किसान) की बेटी थी, जिसकी मौत बंगाल के अकाल में चावल की खुशबू से हुई थी। बंगाल में अकाल कब पड़ा था, पूछने से इतिहास के सर बताते हैं कि सन् तैंतालीस की बात है। रानी रासमणि की शादी बाबर से कब हुई थी, पूछा जाए तो परिमलेन्दु दा कहेंगे कि सन् 1760 की बात है जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस पूरे इलाके को गोरे-काले फौजियों और तोपचियों से भर दिया था। बाबर कौन था, यहाँ कहाँ से आया था, पूछने से इतिहास के सर बताते हैं...। यह सब क्या गोलमाल है! परिमलेन्दु दा एक साथ कितनी कहानियों को जोड़-गूँथ देते हैं।
अच्छा, बाबर मतलब तो मुस्लिम, फिर उसकी शादी रानी रासमणि से क्योंकर हुई! होती है क्या? फटिकचन्द्र पूछना चाहता है कि इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ की बेटी बिलकीस से वह चाहे तो ब्याह कर सकता है क्या! पिछले बरस गौरांग पूजा के टाइम उसने बिलकीस को एक हेयरबैंड और रोटोमैक की कलम दी थी। लिखते-लिखते लव हो जाए। बिलकीस ने मुस्कराकर कहा था— आईलवयू।
इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ दोनों जुड़वाँ भाई थे। बचपन से ही वे दोनों इतने एक जैसे थे कि उनके अम्मी-अब्बा भी उन्हें सही-सही नाम से पहचानने में धोखा खा जाते थे। जब तक दोनों ने होश सम्भाला, तब तक किसका नाम इज़राइल है और किसका इस्माइल, यह पता कर पाना मुश्किल था। हो सकता है बचपन में कई बार इनके नामों में अदला-बदली भी हुई हो। अन्तत: लोगों ने इसका समाधान ऐसे निकाला कि जब भी किसी एक से काम पड़ता, वे दोनों का ही नाम लेकर पुकारते। जब वे स्कूल जाने जितने बड़े हुए, आर्थिक तंगी के कारण उनके अब्बा ने स्कूल में दोनों में से एक को ही दाखिला दिलवाया— इज़राइल हसन। लेकिन गुप्त बात यह थी कि कभी इज़राइल स्कूल चला जाता तो कभी इस्माइल। इस तरह गाँव वालों को बहुत मुश्किल से दोनों को अलग-अलग पहचानने का एक नुस्खा मिला कि दोनों में से जो भी स्कूल जाए वह इज़राइल, और जो न जाए तत्काल के लिए वह इस्माइल। स्कूल के रजिस्टर की मानें तो इज़राइल हसन ही पढ़ा-लिखा है और इस्माइल हसन काला अक्षर भैंस बराबर है। इस प्रकार 'इज़राइल हसन’ नाम ने छठी दर्जा पास कर लिया और 'इस्माइल हसन’ नाम अब्बा के साथ हाइवे के पास जड़ी-बूटियों और मसालों की दुकान पर बैठने लगा। बाद में जब उनकी दाढ़ी-मूँछ आ जाए जितने वे बड़े हो गये तो लोगों ने सुझाया कि एक को दाढ़ी और दूसरे को मूँछ रख लेनी चाहिए। कुछ दिनों तक उन्होंने ऐसा किया भी। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। लोग भूल जाते कि दाढ़ी वाला इज़राइल है या इस्माइल।
चूँकि अब्बा ने स्कूल में सिर्फ एक लड़के की फीस भरी थी, इसलिए उनका एक ही लड़का छठी पास कहा जा सकता था और दूसरे को अनिवार्यत: अनपढ़ होना होगा। उन्होंने एक पतलून-कमीज़ सिलवा दी ताकि पढ़े-लिखे इज़राइल को नलहाटी बाज़ार में कोई ठीक-ठाक काम मिल सके। पतलून-कमीज़ वाले लड़के को एक आढ़त में मुंशी के काम पर रख लिया गया। पतलून-कमीज़ पहनकर मुंशीगिरी करने कभी इज़राइल चला जाता तो कभी इस्माइल। दूसरा जो रह जाता, लुंगी-बनियान पहनकर मसालों की दुकान पर बैठ जाता। एक दिन पास के गाँव से पढ़े-लिखे इज़राइल के लिए एक रिश्ता आया। पहले यह सोचा गया था कि इज़राइल और इस्माइल की शादी एक ही साथ किन्हीं दो बहनों से की जाएगी। लेकिन अब्बा को दहेज़ में अच्छी-खासी रकम मिल रही थी, सो इंकार न कर सके। अच्छा, लड़की अगर दो बहन होती तो भी क्या उसका बाप दूसरी लड़की की शादी 'अनपढ़’ इस्माइल से करने के लिए राज़ी हो पाता? बहरहाल, लड़की इकलौती थी और सुनने में आ रहा था, बहुत सुन्दर थी।
ऐन शादी के दिन क्या हुआ कि इज़राइल को दस्त लग गयी। शादी की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, बारात निकल पडऩे को तैयार थी और इधर इज़राइल ने खाट पकड़ ली। लोगों को कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक इज़राइल तैयार होकर घर से बाहर आया और बोला कि अब उसकी तबीयत बिल्कुल ठीक हो चुकी है और बदले में इस्माइल की तबीयत बिगड़ गयी है। लोगों ने कुछ नहीं कहा। इज़राइल ने निकाह पढ़ी। शादी हो गयी। दुल्हन घर आई। साल भर बाद बिलकीस का जन्म हुआ।
बिलकीस का जन्म 6 दिसम्बर, 1992 को हुआ था। उसके जन्म के दिन देश भर में एक ज़लज़ला आया था, आदिग्राम में भी। लोगों के घर धू-धू कर जलने लगे थे। कई लोग मारे गये। कुछ मुसलमान बांग्लादेश भाग गये और कुछ हिन्दू वहाँ से भागकर यहाँ आ बसे। इज़राइल-इस्माइल की जोड़ी भी उसी साल टूटी। इनमें से एक के बारे में कहा जाता है कि वह बांग्लादेश भाग गया। कुछ लोग कहते हैं कि दरअसल वह कहीं नहीं गया, सचाई यह थी कि वही बिल्कीस का असली बाप था, इसलिए इज़राइल-इस्माइल में से दूसरे ने उसे मारकर कहीं दफ्ना दिया। अन्त के दिनों में कुछ लोगों ने उसे बाघा की पत्नी मयना के साथ भी देखा था और वे मानते हैं कि अफरा-तफरी का फायदा उठाकर वह मयना के साथ बांग्लादेश भाग गया। बाघा भी ऐसा ही सोचता है।
यह बहुत पहले की बात है जब बिलकीस पैदा हुई थी। जिस दिन बिलकीस पैदा हुई थी, उसी दिन बाबरी मस्जिद का ढाँचा ढहाया गया था। इतिहास के सर बताते हैं कि बाबर दिल्ली का...। लेकिन रानी रासमणि तो आदिग्राम की थी। ...इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ की तरह इतिहास में दो-दो बाबर हुए थे क्या? या दोनों दो इतिहास में अलग-अलग हुए। कौन से इतिहास में आदिग्राम का जिक्र आता है?
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रानी रासमणि का जन्म एक गरीब किसान के घर हुआ था। रासमणि जब पैदा हुई, उसे देखकर उसका बाप डर गया। रासमणि की माँ ने समझा कि उसके पति का चेहरा सहसा इसलिए बुझ गया है कि वह मन ही मन बेटे की आस लगाये होगा। उसने डरते-डरते कहा, ''लेकिन तुम तो कहते थे कि बेटा हो या बेटी, भगवान का दिया सर-आँखों पर! बेटी को भी वही दर्जा दोगे जो, मान लो कि बेटा होता, तो उसे देते’’।
''लेकिन इतनी सुन्दर लड़की! हमलोग गरीब हैं। आखिर क्या गलती हुई जो हम गरीब को ऊपरवाले ने इतनी सुन्दर लड़की दी!”
रासमणि की माँ ने नवजात को देखा, उसकी छोटी-सी देह से जैसे रोशनी की धारें फूटती हों।''हम इसे कहाँ छिपा के रखेंगे!” बाप ने कहा और डर गया।
कहते हैं जिस दिन वह पैदा हुई, एकाएक उसके बाप की उमर दुगनी हो गयी। बाल आधे से ज़्यादा झड़ गये और जो बचे उस पर चाँदी का पानी चढ़ गया। चेहरा झुर्रियों से भर गया, सारे दाँत गिर गये, आँखों में मोतिया के छल्ले पड़ गये। वह दिन-दिन भर खाँसने और कमर के दर्द के मारे झुककर चलने लगा। वह इतना कमज़ोर हो गया कि साँस लेने में भी उसे काफी मशक्कत करनी पड़ती और चलते वक्त अक्सर उसका दायाँ पैर सन्तुलन खोकर घिसटने लग पड़ता था।
जैसे-जैसे रासमणि बड़ी होती गयी, उसकी सुन्दरता की कीर्ति फैलती गयी। वह जहाँ कहीं जाती, एक पवित्र उजाले से उसका आसपास भर उठता। अँधेरे में भी रासमणि की देह से रोशनी फूटती होती। लोग दूर-दूर से उसे देखने आते और कहीं किसी आड़ से देखते, लौट जाते। दुनिया में यह कहने-सुनने का प्रचलन होता था कि रासमणि की सुन्दरता में ऐसी गैबी ताकत है कि जो कोई भी उसे सीधे-सीधे, बिना किसी ओट के देखता, फिर उसमें कुछ और देखने की लालसा हमेशा के लिए मर जाती। उसका कोई अंग विक्षत हो जाता, एक आँख की रोशनी चली जाती, एक पैर में फालिज मार जाता, एक हाथ बेकाम हो जाता, वह गूँगा-बहरा हो जाता। इस संसार से उसका जी उचाट हो जाता, मन में वैराग्य घर कर जाता, घर-द्वार पत्नी-बच्चे बूढ़े माँ-बाप को छोड़कर वह साधू-संन्यासी हो जाता, जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत घूमता-बउआता रहता, एक दिन आत्महत्या कर लेता।
रानी रासमणि जब अठारह साल की हुई तो बंगाल में फिर दूसरा अकाल पड़ा। तब तक ईस्ट इंडिया कम्पनी नलहाटी बाज़ार में अनाज की आढ़त और गोदाम बनवा चुकी थी। यहाँ से अनाज बैलगाडिय़ों में लादकर कलकत्ते पहुँचाये जाते। कहा जाता है कि जब दूसरा अकाल पड़ा, कम्पनी के गोदामों में कोई एक लाख मन धान जमा रखे हुए थे। रानी रासमणि का बूढ़ा बाप अब तक इतना कमज़ोर पड़ चुका था जैसे कोई पुराना ज़र्द कागज़। उसकी देह की चमड़ी छिपकली की तरह सिकुड़ गई थी। कहते हैं कि जिस दिन वह मरा, उस दिन अँग्रेजों की कोठी में बासमती चावल पकाया जा रहा था। चूल्हे पर चढ़ाई गयी चावल की हाँड़ी से गरम-गुदाज खदबदाहट की आवाज़ निकल रही थी।
पकते हुए चावल की खुशबू हाँड़ी से निकलकर कोठी की सेहन तक जब पहुँची, सुबह के सवा दस बज रहे थे। सेहन में दो काले पहरेदार रात भर के जागरण के बाद अभी अधनींदे बैठे थे। वहीं एक खाज खाया कुत्ता गुटिआया हुआ पड़ा था। कुत्ते ने अपनी थूथन उठाकर खुशबू को देखा और इशारा किया। खुशबू, इसकी भरपूर कोशिश करते हुए कि उसके पैरों की आहट पहरेदारों को न मिले, सेहन से उतरकर बाहर चली आई।कुत्ते ने जिस रास्ते की ओर इशारा किया था, उस पर कदम रखते ही चावल की खुशबू के होश उड़ गये। चारों तरफ, जहाँ तक नज़र जाती, लाश ही लाश पड़ी थीं। कुछ लाशों को गिद्ध-सियारों ने बुरी तरह नोंच डाला था। उनके खुले हुए पेट से आँतों की बद्धियाँ दूर-दूर तक खिंची हुई थीं। एक बच्चे की साँसें अभी तक चल रही थीं। दो कौव्वे उसकी आँखों पर चोंच मार रहे थे। बच्चे के शरीर में इतनी सकत भी नहीं बची थी कि वह उन्हें उड़ा पाता। खून और कीचड़ से सनी पृथ्वी पर बेशुमार घोंघे और केंचुए रेंग रहे थे। साँपों से धरती पट गयी थी।
चावल की सोंधी खुशबू ने अपने पाँयचे उठा लिए और खून के चहबच्चों को पार करने लगी। जैसे ही वह बच्चे के पास से गुज़री, न जाने कहाँ से ताकत बटोरकर बच्चे ने उसके एक पैर को कस के जकड़ लिया। खुशबू डरकर चीख पड़ी। बच्चे की आँखें कौव्वों की चोंच के प्रहार से बाहर निकलकर किसी पतली शिरा के सहारे लटक रही थीं। बच्चे का मुँह बार-बार खुलता बन्द हो रहा था, लेकिन कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी। थोड़ी देर बाद बच्चे की पकड़ ढीली हो गयी और उसका आधा उठा हुआ शरीर वापस ज़मीन पर धम्म-से गिर पड़ा।
खुशबू ने ठिठककर इधर-उधर देखा कि कहीं उसकी चीख सुनकर पहरेदार तो नहीं दौड़े आ रहे हैं! ...नहीं, कोई नहीं। वह जल्दी-जल्दी रानी रासमणि की झोंपड़ी तक पहुँची। दरवाज़ा जैसा जो कुछ था, खुला हुआ था। भीतर चटाई पर लेटा रासमणि का बूढ़ा बाप भूख से बिलबिला रहा था। खुशबू ने राहत की एक लम्बी साँस ली कि उसे यहाँ आते किसी ने देखा नहीं। उसकी साँस की आवाज़ बूढ़े तक पहुँची तो उसने पूछा, ''आ गयी तू?”खुशबू ने कहा, ''हाँ!”
अपरिचित आवाज़ से बूढ़ा चौंका। पूछा, ''रासमणि? ...कौन?”
''मैं, चावल की खुशबू!”
बूढ़ा बाहर आया। उसे चावल की खुशबू की लू लग गयी। वह मर गया।