Wednesday, February 24, 2010

गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की कहानी: समार्रा में मृत्यु

(श्रीकांत का अनुवाद)

भयाक्रांत नौकर मालिक के घर पहुंचता है।

कहता है- हुजूर, मैंने बाजार में मृत्यु को देखा और उसने मुझे खतरे का इशारा किया।

मालिक उसे एक घोड़ा और पैसे देता है, और बोलता है : तुम समार्रा के लिए भाग निकलो।

नौकर समार्रा के लिये भाग निकलता है।

उसी शाम, तड़के, बाजार में मालिक की मुलाकात मृत्यु से होती है।

वह मृत्यु से कहता है - आज सुबह तुमने मेरे नौकर को खतरे का इशारा किया!

वह इशारा खतरे का नहीं – मृत्यु उत्तर देती है - बल्कि आश्चर्य का था। क्योंकि मैंने उसे यहाँ देखा, समार्रा से इतनी दूर, और ठीक आज ही की शाम मुझे उसे समार्रा से उठाना है।

21 comments:

संदीप कुमार said...

Wow what a art of story telling...
brilliant Srikant

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

स्तब्ध हू...

संदीप कुमार said...

चंदन ये कहानी दोबारा खींच लाई तो अचानक ध्यान गया। शाम और तड़के एक साथ!

dhananjay shukla said...

theek hai

dhananjay shukla said...

srikant bhai tumhare sms milte rahe,mai tumhare anuvad padhta raha hun, theek ja rahr ho.jyada chot to nahi aayi.

dahleez said...

bahut bariya sri. adbhut kahani hai ye. itne kam shabdon main apni baat kah pana aasan nahin.

पुनीत शर्मा said...

ab kya kahooo ?... ye bhi bata dijiye...

सुधांशु said...
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चन्दन पाण्डेय said...

आदरणीय फिरदौस जी,

आपकी अद्भुत मानसिकता से पता चला कि अनुवाद या कविता करना दोयम या उससे भी निचले दर्जे का काम है। यह खास किस्म की कुंठित मानसिकता है। वरना अगर आपको धर्मगुरुओं से फुर्सत मिली होती तो शायद स्टीफन ज़्विग का लिखा आपने जरूर पढ़ा होता। ज़्विग दुनिया के सर्वकालिक महान लेखको में हैं और उन्होने युवा लेखको को यह सलाह दी है कि नये लेखक नियमित तौर पर महान लेखको का अनुवाद करें और उनका पुन:लेखन करें। हमारी हिन्दी के प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश ने बहुत सारी किताबों का अनुवाद किया है और उनके लेखन पर कोई नकारात्मक नहीं पड़ा। युवा आलोचक कृष्णमोहन और युवा कहानीकार वन्दना राग तथा कुणाल सिंह ने अनुवाद के खूब काम किये हैं, इससे उनके लेखन पर कही से नकारात्मक प्रभाव नही पड़ा। और जहाँ तक श्रीकांत का सवाल है तो यह श्रीकांत का चुनाव है कि अनुवाद करते हैं। किसी के चाहने से कोई कुछ नही करता। अनुवाद तो छोड़ दें मेरे चाहने से, महानुभाव, आप तमीजदार भाषा भी नहीं सीख सकते कि अपने ‘सीनियर्स’ से कैसे बात करते हैं? जहाँ तक आपको याद होगा आपने ही मुझे फोन कर बताया था कि आप बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरे जूनियर रहे हैं।

आपसे यह निवेदन है कि आप इस ब्लॉग पर तमीजदार भाषा में टिपण्णी करे अन्यथा मान्यवर, मेरे इस ब्लॉग पर न पधारने की कृपा करें।

चन्दन

vidrohi said...

महाज्ञानी फिरदौस जी,
आपके विचारों को जानकार काफी ख़ुशी हुई. मुझे नहीं पता कि आप क्या करते हैं, किन लेखकों कि किताबें पढ़ते हैं, और दुनिया के महान साहित्यकारों कि रचनाओं को किस भाषा में पढ़ते हैं. मैं तो दुनियाभर के अनुवादकों का शुक्रगुजार हूँ जिनकी वजह से जो भाषा नहीं जानता हूँ, उस भाषा की रचनाओं को देखने पढने की खुशकिस्मती मुझे हासिल है. आप अगर वाकई साहित्य से वास्ता रखते होंगे, तो आपको शुक्रिया कहना चाहिए श्रीकांत को और दुनिया भर के तमाम अनुवादकों को. आप नेरुदा, मार्केस, गोर्की, ब्रेख्त या हिंदुस्तान से बाहर के किसी कवि या लेखक से परिचित हैं या नहीं, उनकी रचनाओं को आप कैसे पढ़ पाए, (या पढ़ा भी नहीं, कम से कम नाम तो सुना ही होगा). आप क्या जर्मन, रुसी और स्पेनी भाषाएँ जानते हैं.

और मेरे विद्वान साथी,
अनुवाद इतना आसान काम नहीं है, जितना आपको लौकता है. कभी समय मिले तो अंग्रेजी से हिंदी में ही अनुवाद करके देख लीजिये. अनुवाद करने के लिए भाषा का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है. आप के लिए इतने शब्द खर्च कर दिए, जो यक़ीनन व्यर्थ जायेंगे.

सुधांशु said...
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सुधांशु said...
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सुधांशु said...
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संदीप कुमार said...

फिरदौस भाई चंदन की कहानियों और उनकी कथित नेटवर्किंग से आपकी जो अपेक्षाएं टूटी हैं उनके बारे में तो मुझे नहीं पता लेकिन अगर बात करें आपकी पहली कमेंट की तो मामला केवल e और a की टाइपिंग इरर का नहीं था।

शशिभूषण said...

फिरदौस जी,
हम खुश हों तो सब अच्छा
हम नाराज़ हो जाएँ तो सब बुरा
हमें खुश रखो हम निहाल करेंगे
हमे नाराज़ कर लो पर कुतरने दौड़ेंगे.
ये क्या है बंधु?दंभ ही न.
आपने जो कहा था उसका मतलब था कि चंदन श्रीकांत का इस्तेमाल कर रहे हैं,चंदन,श्रीकांत का शोषण कर रहे हैं.अब पहचान में आ गयी नीयत तो भोले बनना भी ठीक नहीं.हमें अपने कहे कि लाज रखनी चाहिए.कभी आपने प्यार से कविता लिखी आज नीलकंठ कहकर गाली दे रहे हैं.कोई आप पर ही निर्भर करने लगे तो उसे मार ही डालें आप.आप खुद के प्रति जवाबदेही महसूस करें अच्छा रहेगा.
बंधुवर,कोई जिसे हम बड़ा मानते हैं जब हमें अपेक्षित महत्व नहीं दे पाता तो हम पहले शिकायती फिर आक्रामक होने लगते हैं.क्योकि हम वास्तव में अपने प्यार या आदर की क़ीमत वसूलनेवाले वणिक लोग ही रहे आते हैं.
मैं बहुत गहराई से महसूस करता हूँ कि चंदन पाण्डे का साथ किसी को भी समृद्ध करेगा.यह ऐसा शख्स है जो अपनी ऊर्जा और कल्पनाशीलता के साथ श्रम का न्याय कर पाया,खुद को अपनी रचनाशीलता पर फोकस कर पाया तो आनेवाले कुछ ही सालों में अच्छे-अच्चे लोग ईर्ष्या करेंगे.इसे मेरा डर ही कह सकते हैं कि चंदन के पीछे भी काफ़ी कालनेमि मडराने लगे हैं.कालनेमि के बारे में आप जानते ही होंगे राह के साधू जो उपयुक्त वक्त निकल जाए इसके लिए राह में आश्रम बनाकर खातिर करते हैं.पहचान लिए जाने पर ताक़तभर लड़ते हैं.
आई ए एस होना गुनाह नहीं दोस्त.गणित के विद्यार्थी हैं आप.मैं भी गणित से स्नातक हूँ.कभी आई ए एस के लिए श्रम करनेवालों की लगन,उनके दिन-रात देखिए.सलाम करके न निकलें तो समझिए इंसान का दिल नहीं रखते.
लोगों से सम्पर्क रखना अपराध नहीं.त्यौहारो की पूरी अवधारणा ही है कि निकलो अपनी क़ैद से मिलो-जुलो.बड़ों को आदर दो.सुख-दुख साझा करो
आप भोलेपन के साथ श्रीकांत को चंदन से काटने की कोशिश में हैं.किन्हीं भी दो लोगों को हमारे दुश्मन ही क्यों न हों साथ में अच्छा काम करते देखकर खुश होने का अभ्यास कीजिए.
चंदन के साथ हाल ही में किसी भी रचनाकार को बहुत उदास करनेवाला बुरा हुआ है.जबसे बात हुई है मुझे नहीं भूल रहा है.उनकी उदासी की कल्पना मैं कर सकता हूँ.लोग होली के रंग खरीद रहे हैं वह अपना ही छीन लिया गया लैपटाप पाने पुलिस से उम्मीद लगाए थाने का चक्कर काट रहे हैं.चंदन,इस नुकसान से जल्दी उबर जाएँ.इस नुकसान की भरपाई कर पाएँ.
पर यह तब ज्यादा अच्छे से होगा जब आप जैसों पर ध्यान न दें.इसी शुभकामना के साथ.

संदीप कुमार said...

फिरदौस जी कुछ मासूम सी जिज्ञासाएं कल से मेरी जान खा रही हैं। उम्मीद है आप उनका समाधान करेंगे।
नेटवर्किंग किसे कहते हैं?
क्या यह शास्त्रों में लिखा है कि चंदन को नेटवर्किंग नहीं करनी चाहिए। यह भी कि कोई आईएएस कवि या उसकी पत्नी कहानीकार नहीं हो सकती।
एक शेर है
दुशमनी है तो मेरे सामने आ
दोस्ती है तो फिर दगा मत दे।
सामने आ ही रहे हो तो खुल के आ जाआे दोस्त् ये a e का आडंबर क्यों रचना पड़ रहा है।

Shrikant Dubey said...

जब से यह संवाद शुरू हुआ है, मैं लगातार एक पशोपेश में हूं। क्या कहूं, क्या नहीं? पर फिलहाल, कह रहा हूं।

फिरदौस ने अब तक जो भी कुछ कहा है, वह मुझे सिर्फ फिरदौस की ही बात नहीं लगती। बल्कि यह मुझे साहित्य के कुछ और चिंतकों (मेरे शुभचिंतकों) की चिंता भी प्रतीत होती है (मेरे पास इस आशय के कुछ फोन भी आ चुके हैं अब तक)। मेरी कहानियों का छपना अचानक बंद होना जाना और फिर इस लंबे अंतराल के बाद एक नई ही विधा में काम शुरू कर देना उनके लिए विस्मय का प्रश्न है। और खासकर मेरे, चंदन के साथ काम करने की बात ने उनकी कल्पनाओं को रचनात्मक भी बना दिया है। तो, मेरी शुभ चिंता के लिए मेरे उन चाहने वालों का बहुत बहुत शुक्रिया, इस एक बात के साथ, कि मैं इतना भी अपढ़ और कमअक्ल नहीं हूं जो आसानी से मेरा बौद्धिक शोषण किया जा सके। और अगर यह मेरा शोषण है, तो चंदन पर सूरज, चंद्रिका और पूजा जैसी शानदार कविताएं लिखने वालों के शोषण के आरोप भी लगाए जाने चाहिए, जिन पर चंदन से पहले किसी भी संपादक या उप संपादक की नजर नहीं पड़ी है। इस बात के लिए चाहे कोई उन्हें कटघरे में खड़ा कर ले, लेकिन मेरा आॅब्जर्वेशन यह भी है कि चंदन ने दूसरे कई सारे ब्लाॅगर्स की तरह अपना दिमागी फ्रस्ट्रेशन निकालने के लिए ब्लाॅग इस्तेमाल बिलकुल भी नहीं किया।

आगे, अपने अनुवाद करने की बात पर बताना चाहूंगा कि लैटिन अमेरिकी कविताओं से उनकी मूल भाषा में गुजरना इतना रोचक लगा कि एक दिन यूं ही मैंने निकोलस गियेन की दो कविताएं अनूदित कर दीं। उसी के अगले रोज चंदन से मेरी बात हुई, उन्होंने कविताएं मांगी और मैंने दे दी। मैं चंदन की इस ईमानदारी की भी तारीफ करना चाहूंगा जो हर बार मेरे द्वारा मेल किए जाने के बाद उसी कविता (या कहानी) को अपने ब्लाग का अगला फीड बनाया। चंदन की यह चीज मुझे दूसरे तेज तर्रार संपादकों - उपसंपादकों से कई गुना ज्यादा अच्छी लगी, जो मेरी कहानियों और कविताओं को इतने लंबे अरसे तक दराजों में बंद रख दिए कि मुझे उनका फाॅलोअप करना भी छोड़ देना पड़ा (मेरी दो कविताएं और एक कहानी, जिन्हें कि हड़बड़ी के मारे उनकी मूल प्रतियों में ही मैंने भेज दिए, कई बार गुहार लगाने के बाद भी वे अब तक मुझे वापस नहीं मिलीं)। बहरहाल, मैं बता दूं कि मैं फिर भी लिखता रहा हूं, और कुछ विशेष लोगों को इससे आपत्ति न हो तो वे इसी ब्लाॅग पर जल्द ही प्रकाशित भी होंगी।

अब एक दोस्त की हैसियत से कुछ बातें फिरदौस को। भाई, एक हद तक तो तुम्हारी बात में तर्क खोजा सकता था, लेकिन अपने दूसरे अवतार में तुमने जो कुछ लिख दिया, वह एक अस्वस्थ दिमागी हालत की सूचना देने लगा (मैं चिंतित भी हुआ)। तुम्हारी पूरी भाषा और कंटेंट मुझे जीवन के कई सारे मुकामों पर असफल, किसी इंसान की भंडास लगी (और मैंनें तुममें अब तक सकारात्मक उर्जा ही देखी थी)। मामला सिर्फ नजरिए का है, और अपनी प्राथमिकता का भी, कि आप किसी चीज को कैसा देखना चाहते हैं। अभी कल ही की बात है, अपने एक चचेरे भाई के साथ एक फिल्म देखा 'शोशैंक रिडंपशन', मुझे उसका धीमा शिल्प बेहद पसंद आया और मेरे भाई ने उसे 'थर्ड क्लास टाईम कंज्यूमिंग मूवी' करार दिया।

अंत में, यदि मेरे लिखे से किसी को तकलीफ हुई हो, तो क्षमा प्रार्थना। फिरदौस को, जरूरी हो तो एक छोटा सा ब्रेक लेने और अपनी उर्जा का इस्तेमाल किसी क्रिएटिव चीज में करने की सलाह। शशिभूषण जी और संदीप जी को उनकी समझ और समय के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। और चंदन को हुए 'न भूलने वाले' दुख को महसूसते हुए....

श्रीकांत

सुधांशु said...
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सुधांशु said...

dekhiye sandeepjee meri kisi se koi dushmani nahi hai...haan apni bat jo mujhe achhi ya buri lagti hai..use khuleaam likhta hun...
chandan ko kuchh bura lkaga isake liye mujhe dukh hai...
wo jald hi isase ubar jayenge...
ymmidtah unka khya laptop bhi mil jaye...
shashibhushanjee bahut age tak jayenge yehi kamna hai aapse...
is blog pe antim bar....

सुधांशु said...

shrikant tumhara sujhaw bahut achha laga mujhe...
jara ye bhi bata dena safalta kya hai...
muktibodh or shamsher, nirala kitne safal the
yeh bhi bata dena...
haan blog pe yeh charcha mat chherna...
or yeh mat sonchna mujhe tumhari koi bat buri lagi hai...tumhi ne to kaha tha har admi ki apni kamjoriyan hoti hai..chandan ki bhi hai tumhari bhi or apni bhi...
all the best 4 your creative and proffesional career...

vidrohi said...

Muktibodh, shamsher aur nirala kitne safal huye, ye to khud unhe bhi apni zindagi mein pata nahi chala hoga.

lekin Mahanubhav, aap safal rahe bahut sare logon ka samay nasht karne mein, mansik tanav dene mein, aur Cyber aatank failane mein.

ab is blog ke sare visitors ne rahat ki saan jarur li hogi,jaise main le raha hun.