Thursday, March 11, 2010

निकानोर पार्रा की एक और कविता - पहले सबकुछ भला दीखता था

पहले सबकुछ भला दीखता था
अब सब बुरा लगता है

छोटी घंटी वाला पुराना टेलीफोन
आविष्कार की कुतूहल भरी खुशियां देने को
काफी होता था
एक आराम कुर्सी - कोई भी चीज

इतवार की सुबहों में
मैं जाता था पारसी बाजार
और लौटता था एक दीवार घड़ी के साथ
-या कह लें कि घड़ी के बक्से के साथ -
और मकड़ी के जाले सरीखा
जर्जर सा विक्तोर्ला (फोनोग्राम) लेकर
अपने छोटे से 'रानी के घरौंदे' में
जहां मेरा इंतजार करता था वह छोटा बच्चा
और उसकी वयस्क मां, वहां की

खुशियों के थे वे दिन
या कम से कम रातें बिना तकलीफ की।

श्रीकांत का अनुवाद

Friday, March 5, 2010

इस ब्लाग के पाठकों के लिए सूचना

बीते शनिवार को कुछ लुटेरों ने मेरा लैपटाप मुझसे छीन लिया. मुझे तत्काल यह समझने में वक्त लगा कि वह घटना मेरे साथ घटी है. अब इसके बारे में क्या बताऊँ कि लैपटाप कैसे छिना. बस इतना बताना काफी है कि लैपटाप मेरे लिए महज कुछ हजार रुपए की कोई चीज नहीं था. उसके साथ में मेरा जो कुछ छिना है उसकी भरपाई संभव नहीं. चोर लैपटॉप को चोर बाज़ार में अधिक से अधिक ३-४ हजार में बेच देंगे. उन्हें क्या पता कि उसमें मेरी दर्जनों कहानियां और फिल्मों की २ पटकथाएं हैं.