Friday, July 25, 2014

दो दिन और तीन एफ.आई.आर : एक वो हैं जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे

22 जुलाई की 'निन्दनीय और दु:खद' घटना के बाद कृष्णमोहन की गिरफ्तारी हुई. एफ.आई.आर ( प्राथमिकी ) दर्ज हुआ. विधान सम्मत धारा 151 लगाई गई. शाम होते-न-होते उनकी जमानत और रिहाई हो गई.

खिलाड़ी, दर्शक और खेल के नियंता पहले से तय थे लेकिन असल खेल इस रिहाई के बाद शुरु हुआ.

सिर्फ मीडिया ही नहीं प्रशासन भी कृष्णमोहन किरण प्रकरण में कृष्णमोहन से बेहद नाराज था और वह चुस्त और मुस्तैद प्रशासन न्याय का ऐसा पक्षधर निकला कि शाम साढ़े सात बजे पुलिस उनके घर फिर आ धमकी. इस बार पुलिस दल के अगुआ  ने 'ऊपर' के दबाव की बात स्वीकारी और यह भी बताया कि दूसरा एफ.आई.आर दर्ज हुआ है. इस बार जो धाराएँ लगाई गई थी वे क्रमश: 107/16 और 151 हैं. चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने शाम साढ़े सात बजे कृष्णमोहन को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. इस चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने सार्वकालिक महान मीडिया को यह नहीं बताया कि इस बार जो एफ.आई.आर दर्ज हुआ है, उसका आधार निरा काल्पनिक है. आधार यह था कि शाम को अपनी रिहाई के बाद दोनों पक्षों में पुन: मारपीट हुई है. जबकि सच यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था और मीडिया को न बताने के पीछे का राज भी यही कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. लेकिन चुस्त और मुस्तैद प्रशासन को अपने आकाओं का दिल भी रखना था जिन आकाओं का दिल और दिमाग ईलाहाबाद और लखनऊ से संचालित हो रहा था.

जबकि 151 के मसले में गिरफ्तारी भी नहीं हो सकती, यह सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है. फिर भी उस रात चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने कृष्णमोहन को जेलखाने में डाल दिया. चुस्त और मुस्तैद प्रशासन निश्चिंत था कि अगले दिन ये जमानत नहीं ले पायेंगे और उसके आगे तीन दिनों की छुट्टी है. जो समूह कृष्णमोहन के पीछे लगा है, उसका उद्देशय पूरा होता दिख रहा था. उद्देशय संख्या 1: कृष्णमोहन को विश्वविद्यालय से निलम्बित कराना. ऐसा हो गया होता अगर वो अड़तालीस घंटे कैद में रह गए होते.

चुस्त और मुस्तैद प्रशासन को बड़ा सदमा पहुँचा जब उन्हें लगा कि जमानत मिल सकती है. जमानत मिल जाने की सम्भावना प्रशासन पक्ष और विपक्ष के लिए ऐसी विस्मयकारी थी कि उन लोगों ने कृष्णमोहन पक्ष के वकीलों से हाथापाई तक की नौबत खड़ी कर दी थी. किसी तरह जमानत हुई, दिन के दो बजे. आदेश जिला जेल तक पहुँचा.

इस बीच लखनऊ और इलाहाबाद फिर सक्रिय हुए और आनन फानन में चुस्त और मुस्तैद प्रशासन ने तीन ऐसी धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जिनमें रिहाई की सम्भावनाएँ शून्य हैं या उससे भी कम. वे धाराएँ हैं : 494, 498 (A) तथा 506. ज्यादातर 'शोरबाज' बुद्धिजीवियों, जिन्होने अपने घर आँगन में गाली गलौज करना ही सीखा है,  के लिए ये सब एक संख्याँ भर है. उनका इनदिनों मीडिया पर अथाह और अगाध विश्वास उमड़ आया है. वो निर्भया केस का उदाहरण दे रहे हैं, कह रहे हैं कि आखिर इसी मीडिया ने उस केस को 'कवर' किया. उन्हें यह कोई न समझाए कि निर्भया जैसे मामले मीडिया के 'मैनुपुलेशन' से बाहर हो जाते हैं. मीडिया चाहकर भी इन खबरों से छेड़छाड़ नहीं कर सकता. लेकिन जहाँ मीडिया का बस चलता है, वहाँ मीडिया क्या करता है, ये कोई उनसे पूछे जो इसके शिकार हैं. कोई छत्तीसगढ़ की मीडिया से पूछे कि बिनायक सेन और साथियों के साथ उसने क्या किया था. 
( http://nayibaat.blogspot.in/2010/12/blog-post_30.html )

चुस्त और मुस्तैद प्रशासन का दुर्भाग्य यह कि वो कभी सच में चुस्त रहे ही नहीं. वजह कि जब तक इन तीन नई धाराओं वाला मामला जेलअधिकारी तक पहुँचा, वो दूसरे केस में कोर्ट के आदेश पाकर कृष्णमोहन को रिहा कर चुका था.

कुछ लोग अपने गुस्से और चालाकी के घोल में यह कहते हुए पाए गए हैं - वे लोग कृष्णमोहन को इतना मजबूर कर देंगे कि KrishnaMohan आत्महत्या कर लेगा ! जी हाँ. यह तथ्य है.

दूसरी तरफ मेरे कुछ मित्र मुझे इस बात की सलाह दे रहे हैं कि मैं इस मुद्दे पर कुछ न लिखूँ. क्योंकि इस मुद्दे पर कृष्णमोहन का पक्ष रखना भी 'पोलिटकली इनकरेक्ट' होना है. वो मेरे शुभचिंतक हैं जो कह रहे हैं कि इससे मेरा लेखक - जीवन खराब हो सकता है. वे मित्र उन लोगों की दुहाई दे रहे हैं जो चुप हैं. मेरे मना करने के बावजूद मुझे वो सब उल्टा सीधा सुना रहे हैं जो मेरे बारे में कहा जा रहा है और फेसबुक आदि पर लिखा जा रहा है. और मैं मजाक करते हुए इनसे कहता हूँ कि ये तो अच्छा है जो कुछ लोग मेरी बातों के सहारे अपना दिन यापन कर रहे हैं पर सच में इनकी बातें सुनते हुए इतना भर सोच पा रहा हूँ कि क्या ये लोग सचमुच में मेरे मित्र हैं ?  क्या सच का दामन हम इस डर से छोड़ दें क्योंकि कुछ लोग हमारी खिलाफत करते हैं ?

यह तो नहीं होने जा रहा है.

अगर मेरा लेखन डिजर्व करता होगा तो समय उस पर फैसले देगा. लेकिन भविष्य में भी मैं मीडिया या पोलिटिकल करेक्टनेस से डरकर नहीं लिखने जा रहा. मैं सच के साथ रहूँगा.    

Wednesday, July 23, 2014

मीडिया के शिकार होते जा रहे डॉ. कृष्णमोहन के मामले का सच

डॉ. कृष्णमोहन और किरण का मुद्दा स्त्री-पुरुष के साथ दो इंसानों का भी है. सीमित समझ की पतित मीडिया ने इसे पीड़ित स्त्री बनाम प्रताड़क पुरुष बना दिया है. यहाँ तक कि प्रशासन भी मक्कार मीडिया के दबाव में कार्र्वाई करने की बात, अप्रत्यक्ष तौर पर, स्वीकार रहा है. इससे शायद ही किसी को गुरेज होगा कि सबको न्याय मिले पर ऐसा भी क्या भय खाना कि आप दूसरे की गर्दन देकर अपनी गर्दन बचाएँ.

ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि सच सामने हो.

यह बात दुहरा देना चाहता हूँ ( ताकि लोग "कौआ कान ले के भागा" वाले अन्दाज में हमला न करें ) कि किसी भी मामले में न्याय ही अंतिम पैमाना होना चाहिए और हम सब उसकी तरफ हैं जो निर्दोष है पर इसका क्या अर्थ कि हम मामले को जाने भी नहीं ? तो आखिर यह फैसला कैसे होगा कि कौन निर्दोष है और कौन दोषी ?

मामला यह है कि इनके बीच अलगाव/ तलाक से सम्बन्धित मुकद्मा न्यायालय में है. किरण घोषित तौर Krishna Mohan से अलग रहती है. इस बाबत उनके बीच समझौता भी हुआ था कि तलाक होने तक वो दोनों अलग रहेंगे. एक निश्चित माहवार भत्ता भी तय हुआ था. कोई भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि जब अलग रहना तय हुआ है तो क्यों किरण बार बार घर में प्रवेश करने की जुगत लगाती रहती हैं ?

यह कई मर्तबा हो चुका है जब किरण ने मीडिया के सह-प्रायोजन में कृष्णमोहन के घर के सामने धरना प्रदर्शन या घर में भीतर जाने की कोशिश की हैं. ध्यान रहे कि मामला जब अदालत में है तो मेरी समझ के बाहर यह है कि जबरिया घर में घुसने की कोशिश को क्या कहा जाए ? अगर कोई 'हिडेन अजेंडा' न होता तो किरण को मीडिया और पुलिस के लाव-लश्कर के साथ घर में घुसने की कोशिश का कोई मतलब नहीं था. कायदे से उन्हें न्यायालय के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. सस्ते सिनेमा के अलावा यह कहीं भी सम्भव नहीं दिखता कि तलाक की अर्जी भी पड़ी रहे और साथ साथ रहा भी जाए. यह भी ध्यातव्य हो कि किरण अपना सारा सामान घर से लेकर बहुत समय पहले ही जा चुकी हैं. अगर उन्हें कोई सुबहा है तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए. लोमड़ी मीडिया को थानेदार बनाने का शगल गलत है.

मानवाधिकार व्यक्ति के, भी, होते हैं, सिर्फ समूह के ही नहीं.

घर से अलग रहने का निर्णय लेने के बाद, अदालत की कार्र्वाई के दरमियान, घर में घुसने की कोशिश क्या इस कदर निर्दोष है ? वो भी तब जब आप पहले से ही अलग रह रहें हों. या क्या भारतीय व्यव्स्था ने ठान लिया है कि दो ही छोर पर रहना नसीब है, एक छोर जिसमें आप स्त्री को इंसान भी न समझे और दूसरा छोर यह कि स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी हो.

जिस वीडियो का हवाला मन्द-बुद्धिजीवी, मीडिया और साथी, दे रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि आखिर उस विडियो में कृष्णमोहन के कपड़े फटे हुए हैं. और कोई भी समझ सकता है कि वह वीडियो घर में घुसने की जिद और न घुसने देने की जद्दोजहद की है. यह सारा मामला उन्हें उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था. आखिर वही मीडिया इस बात का जबाव क्यों नहीं देता कि जब अलग रहना तय हुआ था तो किरण वहाँ क्या कर रही थीं ? अगर उन्हें शक था तो क्या उन्हें कानूनी मदद नहीं लेनी चाहिए थी ? घर में घुसकर तमाशा करना भी एक नीयत हो सकती है. वरना जहाँ प्रेम विवाह रहा हो, वहाँ ब्याह के इतने वर्षों बाद दहेज उत्पीड़न के तहत मामला दर्ज करना साफ नीयत का मामला नहीं है.

उस वीडियो को बनाने वालों से यह क्यों न पूछा जाए कि जिस स्त्री के पक्ष में तुम वीडियो उतार रहे हो, अगर - तुम्हारे अनुसार - उस पर जुल्म हो रहा था तो तुम कैमरा पकड़ने की बजाय उस स्त्री को बचा भी तो सकते थे.

अभी जो आतंकवादी मीडिया को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं उन्हें ध्यान देना चाहिए कि पिछले दिनों इस मीडिया ने खुर्शीद अनवर का क्या किया. बाजार की पतलून के पिछले हिस्से से गिरा यह मीडिया स्त्री-पुरुष मामलों में इतना एकतरफा होता है कि इसके सामने आप अपनी बात भी नहीं रख सकते.

मैं इन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ. अपनी इस उम्र तक मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ उसमें शायद ही कोई मिला हो जो कृष्णमोहन के स्तर का हो. गज़ब के इंसान हैं. मैने देखा है कि इंसान तो इंसान अपने कुत्ते की मामूली बीमारी तक में वे अन्दर से परेशान हो उठते हैं. घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखना कोई उनसे सीखे. ऐसे में टुकड़े टुकड़े खबरों से किसी को परेशान किया जाता हुआ देखना दु:खद है.

और इतनी तो इल्तिजा कर सकता हूँ कि पुलिस अपनी किसी भी कार्र्वाई में मीडिया के दबाव को कारण न बनाए.

Friday, May 23, 2014

रविशंकर उपाध्याय: वह नायक की तरह जिया और कवि की तरह मरा


इनदिनों परिचितों की मृत्यु अखबार हो गई है. कभी रोज चली आती है तो कभी पाक्षिक या मासिक. साहित्य जगत में प्रवेश से जो दायरे बढ़े उनमें इसका अन्दाजा न था कि जितने अधिक लोगों को जानना होगा, उतनी ही दफा मृत्यु की दु:खद खबर से गुजरना होगा. और सच कहूँ तो डर लगता है. लगता है, अगली रशीद अपनी तो नहीं ! इनमें कई ऐसे देशी विदेशी लेखक भी हैं जिनसे कोई परिचय/बात सम्भव भी नहीं पर, मुरीद होने के नाते, उनकी मौत की खबरें भी वैसा ही दु:ख देती हैं जैसे किसी परिचित की...

रविशंकर का जाना दु:खद के साथ डरावना भी है. मतलब 'शॉक' की स्थिति है. जैसे अब भी मन में एक आवाज उछल रही हो कि तय तो यह नहीं हुआ था. मृत्यु आग की तरह चोर है.  सब खत्म कर दे, ऐसा.

उसके कवि रूप से परिचय कम और देरी का है पर वो गजब का 'ऑर्गेनाईजर' था.

कविता सम्बन्धित दो बड़े आयोजन तो प्रचलित होने के नाते लोगों के जेहन में हैं. चार वर्ष पहले का एक वाकया मेरी स्मृति में है: कृष्णमोहन और मैं मधुबन ( बी.एच.यू ) में थे तभी कहीं से रविशंकर आता दिखा. बातचीत के दौरान भाई ने बताया कि वो समीक्षा पर कोई सेमिनार या कार्यशाला का आयोजन कराना चाहता है. यह बात महज दिल्लगी के लिए नहीं कही गई थी. भाई ने तुरंत रजिस्टर निकाला जिसमें कार्यक्रम की रूपरेखा थी, उन किताबों के नाम थे जो इस समीक्षा कार्यशाला का आधार बनने वाले थे. उस वक्त की स्मृति ऐसी नहीं कि सम्वाद भी याद रहें पर साहित्य क्षेत्र पहली बार ऐसा कमिटेड बन्दा देख रहा था. अपनी जो दुनिया है उसमें खुद से 'इनिशियेटिव' लेने वालों की इतनी पूछ है, इतना मान है कि क्या कहिए !

( यह इत्तेफाक की हद है कि जो, मैं, कई बड़े मौकों पर बनारस नहीं पहुँच पाया वो दिसम्बर 2011 में जब बनारस पहुँचा तो मालूम पड़ा, आज उस कार्यशाला का समापन है. मैं घूमते-घामते वहाँ पहुँच गया ).

हो सकता है यह सही मौका न हो पर आयोजन का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहता हूँ कि जितनी भी मेरी दुनिया है,उसमें मैने पाया है,  आयोजनकर्ता या जिम्मेदारी उठाने वाले अक्सर किसी मुकाम पर अकेले छूट जाते हैं. बाहर से चाहें जैसे भी दिखतें हो लेकिन अन्दर ही अन्दर हम गुमसुम होते जाते हैं. वजह है. वजह यह है कि बड़ी जिम्मेदारियों में रोजाना के दोस्तों मित्रों अभिभावकों का भी सच हमारे सामने खुलता है, मसलन, हम सबसे मदद की अपेक्षा करते हैं. आर्थिक, शारीरिक, सामयिक, तमाम. और यह सच है कि यही मौका होता है जब वह ( आयोजनकर्ता ) लोगों के दो या तीन आयामों से परिचित होता है. हो सकता है, दोनों चेहरे सकारात्मक हो ( मैं किसी सस्ते निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहता ). क्योंकि कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण होता है - निर्धारित समय. वो हमें बाँध देता है. कार्यक्रम से पहले हम मरे जाते हैं कि कैसे तो सब निबटे और कार्यक्रम के बाद - वह भयावह खालीपन !

 ऐसा होता है कि आयोजनों में सफलताएँ सामूहिक मान ली जाती हैं और असफलताएँ जैसे आर्थिक कर्ज, अथिति का न आना, कुछ गलत हो जाना आदि कई मर्तबा व्यक्ति पर थोप दी जाती हैं. मैं तहे-दिल से यह मानना चाहता हूँ कि रविशंकर के सारे अनुभव अच्छे रहे होंगे. मगर ऐसा होता है-यह सच है.

दो वर्ष पहले भी जब वाशरूम में गिर गया था, तब ही यह खबर आई थी कि भाई के मस्तिष्क में कुछ गम्भीर दिक्कत है. इलाज भी चला. या 'शायद' चला. किताबों के शौक और अनेक जिम्मेदारियों में यह इलाज कितना निभ पाया होगा, इसका अनुमान मुझे नहीं है.

मित्रों से मालूम पड़ा कि कुछ दिनों पहले ही पी.एच.डी जमा की थी. भाई का स्वप्नशील और अनेक सुन्दर व्यक्तिगत जीवन भी रहा होगा, जो इस दुनिया की तरह अधूरा ही रहा गया.

रविशंकर के चाहने वाले बहुत थे / हैं. यह उसके जीवन काल में भी देखा जा सकता था और अब, जब वह खुद नहीं है, तब भी. लोगों को ऐसे रोते हुए देखा-सुना तब ताज्जुब हुआ कि एक आदमी, जो रिश्तों की दायरे में भी न हो, कितना करीब हो सकता है. ऐसे जैसे वह आदमी एक जज्बा था.

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( शीर्षक मारीना त्स्वेतायेवा के एक आलेख से, जो उन्होने मायकोवेस्की के न रहने पर लिखा था )

Monday, May 19, 2014

अच्छे दिन - 1: नमो ब्रिगेड ने यू.आर.अनंतमूर्ति को कराची तक का हवाई टिकट भेजा


उपर: यू. आर. अन्नतमूर्ति ( यस डियर, यू रियली आर अन्नंतमूर्ति ! )

नीचे: नमोब्रिगेड की मंगलौर शाखा की वो "आम जनता", जिसने टिकटादि का इंतजाम किया.

Monday, May 5, 2014

सनद - 2: तो क्या भारत पर विजय पाने में भाजपा कामयाब हो पायेगी ? ( सन्दर्भ: भारत विजय रैली )

बीजेपी आज गया में भारत विजय रैली कर रहीे थी।इतिहास में किसी भारतीय समूह द्वारा भारत विजय का उदाहरण नहीं मिलता।यह अभियान हमेशा विदेशी हमलावरों के जिम्मे होता था।लेकिन बीजेपी आरएसएस के सर तो भारत को हड़पने का नशा चढ़ा हुआ है।उनको भला अपने देश को रौंदने की भाषा से क्या तकलीफ हो सकती है।उनका एक नेता है जो मेंढक की तरह गला फुलाकर जगह जगह टर्रा रहा है और उसके सामने चीखती चिल्लाती और सीटी बजाती लफंगों की भीड़ है।पूरी दुनिया को जान लेना चाहिए कि हेडगेवार और गोलवलकर की परंपरा की असलियत क्या है।

( कृष्णमोहन )

Sunday, May 4, 2014

सनद - 1 : मर्दवादी मुहावरों की प्रासंगिकता

सलमान खुर्शीद ने मोदी को 2002 के क़त्लेआम को न रोक पाने के लिए नपुंसक कहा जिस पर आज न्यूज़ चैनलों पर घमासान छिड़ा हुआ है। राजनीती में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल गलत है क्योंकि इससे मुद्दे पीछे चले जाते हैं और व्यर्थ की बहसें शुरू हो जाती हैं।बहरहाल अगर कोशिश करें तो इस बात से भी वास्तविक मुद्दों तक पहुंचा जा सकता है।अधिक दिन नहीं हुए जब मोदी ने यूपी को गुजरात बनाने के लिए 56 इंच के सीने की ज़रुरत पर बल दिया था।भाषा में छिपे मर्दवादी स्वर पर ध्यान दें।इस मुहावरे में स्त्रिओं के लिए उतनी ही भूमिका है जितनी कि RSS के किसी अन्य एजेंडे में हो सकती है। गुजरात बनाना मर्दानगी का काम है । अब अगर सचमुच बात किसी आर्थिक विकास की हो रही होती तो ऐसे किसी मुहावरे की ज़रूरत ही न पड़ती। परंपरागत रूप से हम जानते हैं कि ऐसी मर्दानगी का इस्तेमाल करने की डींग उन्ही किस्म के कामों के लिए हांकी जाती है जिनके चलते 2002 का गुजरात नेकनाम रहा है। इस सन्दर्भ में देखें तो खुर्शीद ने मोदी को इसी मर्दानगी के दावे पर खीज भरी चुनौती देने की कोशिश की है।दोनों की मानसिकता स्त्रीविरोधी और अलोकतांत्रिक है।यहीं से हमारे समाज की वास्तविक मुश्किल की शुरुआत होती है।

इस मामले में अन्य पार्टिओं की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। आम आदमी पार्टी ने तो अपने नाम से ही स्त्रिओं का बहिष्कार कर रखा है। उनके लिए किसी महिला के सम्मान और गरिमा का मुद्दा मायने नहीं रखता। इस बाबत सवाल उठने पर वे भी सड़कछाप शोहदों के अंदाज़ में उन्हें चरित्रहीन वगैरह बताने लगते हैं। वामपन्थी भी जब सत्ता में होते हैं तो टाटा जैसों के लिए अपनी जनता पर;विशेषकर स्त्रिओं पर वैसे ही ज़ुल्म ढाने में नहीं हिचकते जिसके लिए वे सामंती पूंजीवादी शक्तिओं को कोसते रहते हैं।सत्ता से हटने के बाद महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ उनके नेताओं की जुबान भी मर्दवादी चाशनी में लिथड़ कर ही चलती है।क्या लोकतंत्र का एक और त्यौहार भी महज़ तमाशा बनकर गुज़र जायेगा ? लोकतंत्र के वास्तविक मुद्दों पर बहस करने के लिए हम अपने नेताओं को बाध्य कर सकेंगे या टीवी पर होने वाली जुगाली से तृप्त हो जाना ही हमारी नियति है?

( क़ृष्णमोहन )

Wednesday, April 30, 2014

जिनके मुँह में कौर माँस का, उनको 'बनारसी' पान ?


सुप्रसिद्ध काव्यपंक्ति "जिनके मुँह में कौर माँस का उनको मगही पान" के साथ जरा मौजूँ खिलवाड़. इस प्रश्न के वस्तुनिष्ठ उत्तर की प्रतीक्षा में. हाँ या ना.  

Monday, April 14, 2014

इस महीने की किताब: अजाने मेलों में



प्रमोद जी की भाषा में कहें या यों कह लें कि कहने की कोशिश करे तो बात कुछ यों होगी: कईसे एगो मुहाविरा जीवन में सच होते दिखता है एक्कर निमन नमूना है परमोद जी की किताब. मुहावरा ई है कि बटुली के एगो चावल टोअल जाला. एक्दम्म से अईसे ही..... प्रमोद जी की एक ही कहानी हंस में पढ़ी थी और मुरीद हो गया. तभी से इनकी एकाधिक कहानियाँ या संकलित कथेतर गद्य पढ़ने का इंतजार था. बाद में उसी कहानी का जिक्र बेहद आदरणीय ( उनका ज्ञान तो इतना है कि उन्हें प्रात: स्मरणीय भी कहें तो अतिशयोक्ति न हो ) श्री वागीश शुक्ल ने किया. उसी प्रमोद जी की किताब अजाने मेलों में को "हिन्दी युग्म" ने प्रकाशित किया है. 

इस किताब की मेरी प्रति, दुआ की तरह, रास्ते में है. मार्फत होम शॉप 18

Monday, March 17, 2014

आधुनिक 'विकास' नसबन्दी कार्यक्रम की तरह हो गया है

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/03/140316_modi_kejriwal_varanasi_analysis_vr.shtml

मैं उम्मीद करता हूँ कि उपर के लिंक में जो बातें काशीनाथ सिंह के नाम से छपी हैं वो, काश, उनकी बातें न हों.

सड़कछाप विकास ( जिसमें सड़के और इमारतें बनाना भर ही शामिल हो, शिक्षा, गरीबी या अन्य जरूरी मुद्दे नहीं ) हर जगह हो रहा है. यह नसबन्दी कार्यक्रम की तरह जबरा हो गया है. इसके तर्क इतने तगड़े और लूट इतनी शानदार हैं लोग चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पा रहे. जहाँ कुछ् भी नहीं हैं वहाँ भी विकास के नाम पर सड़के हैं. सड़के विकास का पैमाना कब से हो गईं इसकी जाँच होनी चाहिए. आज अगर कॉर्पोरेट्स का मुनाफा इस इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में कम हो जाए तो ये सारे 'विकास' झटके में बन्द हो जायेंगे. जिन्हें लगता है कि सरकारें इस सड़कछाप विकास की कर्ता धर्ता हैं उनकी मृत समझ के लिए मेरी ओर से दो फूल रखें. कनेर के फूल.

नरेन्द्र का बनारसी संकल्पना से अरसा पहले बनारस के प्रशासन ने जो सड़्क चौड़ीकरण और अन्य अभियानों में जो मुस्तैदी दिखाई है वह मैं समझता हूँ पर्याप्त है और काबिल-ए-तारीफ भी. बनारस हो या कटक, इन बेहद पुराने शहरों की अपनी काबिलियत और अपनी मुश्किलें है.

परंतु बी.बी.सी-हिन्दी ( website ) की इस छिछोर रिपोर्ट की माने तो शायद अब नरेन्द्र बनारसी गलियों को ही नेस्तनाबूद कर बनारस का विकास करेंगे. हो सकता है, गंगा के किनारे को, घनी और आबाद आबादी से खाली कराकर वहाँ, अहमदाबाद की मरती हुई साबरमती के किनारे शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तर्ज पर, विकास कराने की उम्मीद वरिष्ठ रचनाकार काशीनाथ सिंह ने लगा रखी हो.

यह सबको मालूम होना चाहिए कि शहर का विकास नगर निगम या पालिका के हाथों होता है.

रही पहचान की बात तो यह सबको समझ लेना चाहिए कि नरेन्द्र तो फिर नरेन्द्र हैं, खुद ओबामा भी बनारस से चुनाव लड़े तो इससे उनकी ही पहचान पुख्ता होगी. बनारस की पहचान जिन पैमानों पर बननी बिगड़नी है, वो सौभाग्य से 'राजनीति' नहीं है.

जिसे भी शहर से प्यार है उसे मुख्तार अंसारी या उसके समकक्ष नरेन्द्र मोदी जैसों के झाँसे में नहीं आना चाहिए.

  

Sunday, March 16, 2014

नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं

बनारस, स्वप्न द्वारा यथार्थ को लिखा हुआ प्रेमपत्र है. मुचड़ा हुआ, उनींदा, गुम हुआ चाहता हुआ प्रेमपत्र. तारीख ने, बनारस की मर्जी के बगैर, फिर से उसे खोज निकाला है.

नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं. लोग (कुछ लोग ) ऐसे मतवाले हुए जा रहे हैं कि मोदी के बजाय बनारसियों को बधाई दे रहे हैं. ऐसे अन्दाज में कि मानो कह रहे हों, बहुत बनारस बनारस किए रहते थे, लग गए न किनारे ?  रविवार की सूनी सुबह, दो बधाई सन्देशों के बाद मैं जब खुद को शर्मिन्दा और निरुत्तर पा रहा हूँ तो एक ख्याल यह भी आ रहा है कि बनारस को कैसा लग रहा होगा ?

गनीमत है कि यह अभी आरोप है. कलंक नहीं. किसी न किसी नगर को यह जहर पीना था इसलिए भी शायद बनारस ने खुद को आगे किया हो. बनारस का समय अगर शरीर धर ले तो शर्तिया चुनाव का दिन उस शरीर का कंठ बनेगा. बनारस ने सबक सिखा दिया तो वह दिन नए जमाने का नीलकंठ कहा जायेगा. लोग ( कुछ ) नीलकंठ को समय की संज्ञा सरीखे याद रखेंगे.

चुनाव के समय तक, तीस हजार करोड़ के अनुमानित चुनावी खर्चे ( व्यवसाय ) पर नजर टिकाए शिकारी कुत्तों   ( सम्पादित, कृपया इसे पढ़े - नजर टिकाए मीडिया कॉर्पोरेट्स ) ने अगर अरविन्द केजरीवाल की असामयिक सामाजिक हत्या न कर दी तो वो, अपनी सीमाओं के बावुजूद, नरेन्द्र से बेहतर विकल्प हैं.

तस्वीर नाग नथैया की है. बनारस के प्रमुख उत्सवों में से एक यह, कृष्णलीला का एक अंश है, जिसे हर वर्ष मनाया जाता है.



Wednesday, January 22, 2014

मेक्सिको सिटी के कोने - अँतरे.






अगले दो दिन, यानी शनि और रविवार हमने मेक्सिको सिटी की ज्यादातर महत्वपूर्ण चीजें-जगहें देख लेने में खर्च किये. ऐसा इसलिए भी था की हम जल्द से जल्द ‘मेक्सिको सिटी’ के दायरे से बाहर निकल इकतीस प्रान्तों में बंटे असल ‘मेक्सिको’ से भी मिलना चाहते थे, जो दूर दराज तक छोटे शहरों, कस्बों व गावों के रूप में फैला पड़ा है. मैक्सिको सिटी का क्षेत्रफल लगभग दिल्ली के ही बराबर ठहरता है, और इसे भी एक राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसे ‘दिस्त्रितो फेदेराल दे मेक्सिको’ अथवा ‘सिउदाद दे मेक्सिको (मेक्सिको सिटी)’ के नाम से जानते हैं. यूं, इस शहर को घूमने के लिए हमने यात्री बस से लेकर मेट्रो, टैक्सी, साइकिल तथा ढेर सारी पदयात्रा तक का सहारा लिया. लेकिन ख़ास तौर पर साइकिल का. जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर चुका हूँ, विकसित से लेकर भारत जैसे छद्म विकसित देशों तक के बड़े शहरों में, जबकि यात्रा का पारंपरिक साधन ‘साइकिल’ लुप्तप्राय है और चार, आठ और सोलह लेन की चमचमाती सड़कों के खुमार में मशगूल सरकारें साइकिल सवारों को तीन फीट चौड़ी पट्टी तक दे पाने में आना-कानी किये जा रही हैं, मेक्सिको सिटी इस मामले में एक मिसाल की तरह है. मसलन मेरे दफ्तर के तीन सहकर्मी, जो 5 से लेकर 10 किमी तक की दूरियों के बीच कहीं रहते हैं, काम करने के लिए हर रोज साइकिल से आते हैं. जाहिर है, साइकिल की सवारी इस शहर में वर्ग-विशेष से ताल्लुक नहीं रखती. जबकि हमारे भारत में साइकिल को अपने यातायात का प्रमुख साधन मानने वालों में नगरपालिकाओं के सफाई-कर्मी, विद्युत् –विभाग, एमटीएनएल - बीएसएनएल एवं अन्य सरकारी-अर्धसरकारी संस्थानों में एक-दो साल के कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारी, घर-घर घूम कर चिट्ठियां देने की मजबूरी से त्रस्त डाकिये और कुरियर बॉयज आदि वर्ग मात्र शामिल हैं, जिनकी साइकिलें भी अक्सर इतनी पुरानी होती हैं, मानो वे जल्द ही बीती सदियों के वैज्ञानिक विकास को दर्शाने वाले किसी म्यूजियम में पहुंचकर सज जाना चाहती हों.

खैर, तो हमने भी कम दूरियों को घूम लेने के लिए साइकिलें चुनी. यूं तो यहाँ के लोग एक तयशुदा सुरक्षा राशि देकर साइकिलों की वार्षिक सदस्यता ले लेते हैं और हरेक एक दो चौराहे के अंतराल पर बने साइकिल स्टैंड्स में से किसी से भी एक साइकिल लेकर अपने गंतव्य के करीब वाले साइकिल स्टैंड पर छोड़ देते हैं. जाहिर तौर पर, साइकिलें सरकार मुहैय्या कराती है. हमारे पास वार्षिक सदस्यता के लिए जमा किये जाने वाले सुरक्षा राशि नहीं थी, इसलिए हमने किसी और विकल्प के बारे में पूछा, तो पता चला कि कुछ विशेष स्टैंड्स ऐसे भी होते हैं जो आपके किसी सरकारी पहचान पत्र को गिरवी रखकर दिन भर के लिए एक साइकिल आपको दे सकते हैं. हमने इस तरह का अपना करीबी साईकिल स्टैंड खोजा और स्टैंड इंचार्ज के पास अपने पासपोर्ट रखकर साइकिलें उठा लीं.
तकरीबन पांच किलोमीटर की साईकिल यात्रा, जिसके लिए हर सड़क के किनारे एक सुरक्षित पट्टी बनी हुई है, के बाद हम फिर से ‘सोकालो’ नामक चौक पर पहुंचे. सोकालो तक पहुँचने में हमें यातायात की भारतीय पद्धति के विपरीत, सड़क की दायीं ओर चलने की ज़रा सी आदत हुई, जो कि बहुत जरूरी थी. शायद यूरोप और अमेरिका के सभी देशों में यातायात संबंधी शिक्षा देते हुए बच्चों को यही सिखाया जाता होगा, ‘सड़क पर हमेशा दायें चलें’, जिसका भारतीय रूप ‘बाएं चलें’ होता है.

‘सोकालो’ यानी ‘शहर के मुख्य चौक’ का विस्तृत मैदान अपने चारों ओर क्रमशः कैथेड्रल (प्रमुख गिरजाघर), नेशनल पैलेस, फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट बिल्डिंग, एवं पोर्ताल दे मेर्कादेरेस नामक स्थापत्य से घिरा है, जिनसे सटी सडकें अपने विकास के साथ दूर तक अपनी दोनों तरफ दूसरी अनेक उल्लेखनीय चीज़ें लिए हुए हैं. जिनसे गुजरते हुए जिस पहली चीज से हम रूबरू हुए, वह था ‘पालासिओ दे बेय्यास आर्तेस’. यह पड़ोस के ‘आल्मेंद्रा सेन्ट्रल पार्क’ से सटा श्वेत रंग का विशालकाय स्थापत्य है. यह मेक्सिको सिटी के पुराने ‘तेआत्रो नसिओनाल’ यानी ‘नेशनल थिएटर’, जो कि सन 1901 में ध्वस्त हो गया था, के विकल्प के तौर पर इतालियन वास्तुकार आदामो बाओरी द्वारा बनाया गया, जिसका उद्घाटन ‘मेक्सिकन क्रांति’ की अनेक लहरों के कारण सन 1934 में हो सका. यह पैलेस कलात्मक प्रदर्शनियों के अलावा थिएटर, दृश्य कला, संगीत, स्थापत्य एवं साहित्य से जुड़ी गतिविधियों के लिए भी विख्यात है. यूं तमाम अन्य दर्शनीय चीज़ों के अलावा जो चीज़ यहाँ सर्वाधिक उल्लेखनीय लगी, वो थी थिएटर के प्रमुख मंच में लगा कांच का पर्दा था, जो खुलने के बाद अपनी सतह पर मेक्सिको की घाटी के साथ यहाँ के ‘पोपोकातेपेत्ल’ तथा ‘इस्तक्चिउआत्ल’ नामक दो ज्वालामुखियों के चित्र दिखाता है, तथा जिसे मोड़कर छोटा भी किया जा सकता है.
इसके बाद हम सोकालो के एक कोने से शुरू होते ‘तेम्प्लो मायोर’ (भव्य मंदिर) में प्रवेश किये, जो कि मेक्सिको के स्पानी उपनिवेश बनने से पहले की ‘आस्तेक’ सभ्यता का अवशेष है. आस्तेक काल में भी इस सभ्यता की राजधानी मेक्सिको सिटी वाली जगह पर ही थी, जिसे ‘तेनोच्तित्लान’ नाम से जानते थे. यहाँ उल्लेखनीय है कि मेक्सिको की मूल भाषा ‘नाउआत्ल’ का कोई ताल्लुक यहाँ के वर्तमान में बोली जाने वाली स्पैनिश भाषा से नहीं है. यहाँ के प्राचीन शहरों, कस्बों, प्रसिद्द नदियों, शिखरों और ज्वालामुखियों आदि के आस्तेक (नाउआत्ल) नाम से भी यह स्पष्ट होता है. सोलहवीं सदी के आरम्भ में स्पानियों के द्वारा हुई आस्तेक लोगों की पराजय के बाद तेजी से यहाँ की मौलिक जिन्दगी पर औपनिवेशिक रंग चढ़ता रहा. हालांकि, ‘आस्तेक लोगों की पराजय’, आसानी से नहीं हुई, बल्कि इसमें अनेक चरणों में हुए घनघोर संघर्ष शामिल रहे. ‘तेम्प्लो मायोर’ के अवशेष कहीं न कहीं से उस दीर्घकालिक संघर्ष की दास्ताँ भी हैं.

‘तेम्प्लो मायोर’ वैसे तो आस्तेक लोगों के धार्मिक अनुष्ठानों और बलियों की जगह हुआ करती थी. आस्तेक लोगों के प्रमुख देवताओं में युद्ध के देवता ‘उइत्सिलोपोत्च्ली’ तथा वर्षा के देवता ‘त्लालोक’ थे, जिनके लिए तेम्प्लो मायोर के पिरामिड के शीर्ष पर अलग अलग सीढ़ियों से पहुंचे जा सकने वाले दो चौरे (चबूतरे) आज भी सुरक्षित हैं. ‘तेम्प्लो मायोर’ का निर्माण पहले पहल सन १३२५ में हुआ, जिसमें बाद में छः चरणों में विकास कार्य हुए. यह विकास कार्य अगले राजा की प्रसिद्धि एवं प्रताप का सूचक होता था. इस प्रकार अंत में सन 1521 में स्पानी आक्रमणकारियों ने इसे ध्वस्त कर दिया, लेकिन अवशेष फिर भी रहे. यूं, तेम्प्लो मायोर के विकास और विनाश के सभी महत्वपूर्ण चरण अलग-अलग स्थानों पर अगंरेजी और स्पैनिश भाषा में लिखे हुए हैं.

आस्तेक मिथक के अनुसार ‘तेम्प्लो मायोर’ पृथ्वी नहीं, बल्कि समूचे ब्रह्माण्ड के केंद्र में स्थित है, जहां से ब्रह्माण्ड त्रिविमीय रूप में चार भागों में विभक्त होता है. मिथक के अनुसार ‘मेक्सिका’ अथवा ‘आस्तेक लोगों’ को इस बारे में उनके युद्ध के देवता उइत्सिलोपोत्च्ली ने बताया और साक्ष्य के रूप में नोपाल (मेक्सिको में खाए जाने वाला एक तरह का कैकटस) के ऊपर बैठी चील, जिसकी चोंच से सांप लटक रहा हो, दिखाया. तेम्प्लो मायोर के अन्दर उइत्सिलोपोत्च्ली, जोकि मानव रूप में कभी आस्तेक समुदाय में पैदा हुए थे, के जीवन की विभिन्न अवस्थाएं भी दिखती हैं. न सिर्फ ‘तेम्प्लो मायोर’, बल्कि आधुनिक मेक्सिको सिटी के अनेक हिस्सों में चील के मुंह से लटकती सांप वाली संरचनाएं आज भी दिख जाती हैं. मेक्सिकन स्वतंत्रता के बाद प्रस्तावित संसद भवन के शीर्ष पर भी इस तरह की आकृति रखी जानी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से वह निर्माण कार्य अधूरा ही रह गया, जिसका जिक्र बाद में कभी.

यूं, ‘तेम्प्लो मायोर’ के अन्दर पहुंचे जाने की अनुमति वाले हरेक कोने से भरपूर दो-चार हो लेने के बाद हम उससे सटे म्यूजियम में गए, जहां मंदिर के अनावरण के लिए की जाने वाली खुदाई के जिक्र से लेकर खुदाई के विभिन्न चरणों में मिली अस्थियों तथा पत्थरो की विभिन्न संरचनाएं देखने को मिलती हैं. म्यूजियम के अन्दर आस्तेकों द्वारा चट्टान को काटकर बनाई एक ऐसी मूर्ति भी रखी है जो मनुष्य के तरह की शरीर पर चील की मानिंद पंजे, डैने और चोंच लिए है, तथा आस्तेक मिथक के एक और देवता को दर्शाता है. आस्तेक संगतराशी के अन्य नमूनों में भी चील और साँपों के धड़ के साथ मेंढकों की अधिकता है. मेंढक वर्षा के देवता का प्रतीक था, जो की आस्तेक लोगों के मुख्य रूप से कृषि पर आश्रित होने की पुष्टि करता है.

म्यूजियम से निकल हमने कैथेड्रल यानी प्रमुख चर्च देखा, जो किसी भी दूसरे चर्च की ही तरह की संरचाओं को थोड़ा भव्यतर रूप में संजोये था. इतिहास में इस जगह आस्तेक लोगों द्वारा तेम्प्लो मायोर के अन्दर बलि का शिकार हुए नरमुंडों को सजाया जाता था. सोकालो से उत्तर दिशा की ओर जाती सड़क पर ‘सान्तो दोमिंगो’ नाम के चर्च के अलावा आस पास के एक किलोमीटर के दायरे में कम से कम पांच चर्च और मिले. मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों की तुलना में जो एक चीज़ मुझे चर्च के अन्दर तक हो आने की सहूलियत देती है, वो यह कि चर्च में जाने से पहले आपको जूते नहीं उतारने पड़ते. यह चीज़ हिन्दुस्तान से लेकर मेक्सिको तक एक जैसी लगी और हमने सारे चर्चों के स्थापत्य देख उन्हें डेढ़ से दो सौ साल पहले के काल में लगभग एक ही जैसी संरचना में बना पाया.

आगे हमने सान इल्देफोंसो कॉलेज देखा, जो कि मैक्सिकन म्यूरलिस्ट आन्दोलन का केंद्र हुआ करता था तथा सन 1978 में बंद होने के बाद वर्तमान में एक म्यूजियम और सांस्कृतिक केंद्र भर है. सोकालो के भ्रमण के दौरान हम लगातार जिस एक अन्य चीज़ से गुजरते रहे, वो था सस्ती और अनेक नायब चीज़ों का गतिमान बाजार. हर सड़क के दोनों किनारों पर कोई चटाई आदि बिछाकर सामान बेच रही अनगिन दुकानें, और कान फाड़ती स्पैनिश ध्वनियों में उनकी सस्ती दरों की बोलियाँ. गतिमान इसलिए, कि समय के छोटे अंतरालों पर शहरीय प्रशासन की गाड़ियों की ध्वनि मात्र सुनते ही उस सड़क के दुकानदार चंद सेकेंड्स में अपनी दूकान को समेटकर पीठ पर बोझ लिए जा रहे सामान्य राहगीर बन जाते, और थोड़ी ही देर में किसी अन्य सड़क पर उनकी दूकान सज जाती. चीज़ों की विविधता के आकर्षण में फंसे मेरे साथी मोल भाव और खरीदारियों में व्यस्त हो गए, और मैं उनसे विदा लेकर सोकालो की अन्य खूबियाँ देखने के लिए उनसे विदा लिया.

इस क्रम में मैंने म्यूजियम ऑफ़ नेशनल आर्ट, पालासियो पोस्ताल दे मेक्सिको (प्रमुख डाक घर), देखते हुए ‘तोर्रे लातिनो आमेरिकानो’ पहुंचा. जिस वक्त मैं तोर्रे अमेरिकानो के 182 मीटर ऊंचे टावर से मेक्सिको सिटी देखने के लिए टिकट ले रहा था, शाम बस ढल जाने वाली थी. आस पास के लोगों ने बताया की रात के पहले पहर में ही लोग यहाँ से शहर को देखना चाहते हैं. बहरहाल, लिफ्ट की मदद से टावर के शीर्ष पर पहुँचने के बाद हर ओर जो दृश्य दिख रहा था उससे मष्तिष्क में बस एक ही शब्द पैदा होता, ‘अद्भुत’. पूरे शहर पर बिखरी रौशनी मुझे कुछ ऐसा एहसास दे रही थी, मानों हम बेशुमार नक्षत्रों से भरे ब्रह्माण्ड से चंद मीटर ऊपर खड़े हों. शहर चारो ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ, और पहाड़ों की ढलानों पर भी दूर ऊपर तक टिमटिमाते घर. न जाने कितनी देर तक इस विहंगम खूबसूरती से सराबोर होने के बाद मैं साइकिल लेकर अकेले वापस अपने होटल की ओर रुख किया, जहां के करीबी साइकिल स्टैंड का इनचार्ज दूकान बंद कर घर अपने घर जा चुका था. मुझे निर्धारित समय तक साइकिल वापस न कर पाने के प्रावधान के बारे में नहीं पता था. मैं अपने पासपोर्ट के लिए चिंतित सा साइकिल के साथ होटल आया और साइकिल की सुरक्षा के आश्वासन पाकर उसे पार्किंग में रख छोड़ा. रात भर मुझे पार्किंग में खादी साइकिल अपने पासपोर्ट की जगह याद आती रही.

अगली सुबह हुई, नाश्ता पानी हुआ और हम फिर से निकल लिए. जाहिर तौर पर, सबसे पहले साइकिल स्टैंड तक. इस नए दिन के एजेंडा में जो जगहें थीं, उनके लिए मेट्रो, टैक्सी अथवा बस ही लेना पड़ता, इसलिए साइकिल जमा ही कर देनी थी. मेरा पासपोर्ट स्टैंड इनचार्ज के बैग में सुरक्षित था, लेकिन दिन रहते साईकिल वापस न कर पाने के लिए मुझे दो सौ पेसो का अर्थदंड देना पड़ा. दो सौ पेसो का लगभग अनुवाद भारतीय मुद्रा में नौ सौ रुपयों के आस पास ठहरता है. हमारे अगले लक्ष्य ‘मोन्यूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ यानी ‘मोन्यूमेंट ऑफ़ रेवोलुशन’ की ओर बढ़ते हुए काफी देर तक मेरे मुह में नीम के पत्ते का स्वाद भरा रहा.

जैसा की नाम से ही जाहिर है, मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन मेक्सिकन क्रान्ति के स्मृति चिह्न स्वरुप बना स्मारक है. स्मारक के रूप में जो चीज़ दूर से ही दिखाई देती है, वो एक उत्तल भूखंड के बीच खड़ी एक द्वार जैसी संरचना है, जो कि उस ‘पालासियो नासिओनाल फेदेराल’ (नेशनल फ़ेडरल पैलेस) अथवा प्रस्तावित मेक्सिकन संसद का एक हिस्सा भर है, जो पूरा बन नहीं पाया. मोन्यूमेंट के पास तक जाने का रास्ता बीसियों अस्थाई टेंट्स के बीच से होकर जाता था. ये टेंट्स मेक्सिको के विभिन्न प्रान्तों से अलग अलग मसलों को लेकर आये लोगों के अस्थायी निवास थे, जो हर ओर विश्वविख्यात क्रांतिकारियों के यादगार नारों से सजे पोस्टर लगे हुए थे. चे गेवेरा, सल्वादोर दाली, कार्ल मार्क्स, फिदेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला आदि की तस्वीरों और नारों के बीच महात्मा गांधी भी जहाँ तहाँ दीखते रहे. गांधी के चित्र के साथ उनके एक नारे, जो मुझे लगता है की सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय बुलंद किया होगा, का पोस्टर लगा हुआ था, जिसका हिन्दी अर्थ यह था: ‘यदि क़ानून गलत हो, तो उसकी अवज्ञा ही सही है.’


यूँ इन आस्थाई डेरों में रात गुजारने के बाद सारे प्रदर्शनकारी शहर के विभिन्न हिस्सों में अपनी मांग के साथ निकल जाते हैं. मेक्सिको के एक प्रांत ‘सोनोरा’ से आये एक समूह से बात करने पर पता चला कि प्रदर्शनकारी समूहों में से ज्यादातर सेवा, शिक्षा एवं रोजगार से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों का सरकार द्वारा किये जाने वाले निजीकरण के खिलाफ वहां जमा होते हैं. काफी समय तक, यूं विभिन्न क्षेत्रों से आये लोगों से बात कर बहुत कुछ जानते-बताते रहने के बाद हम स्मारक के अन्दर प्रवेश किये, जहां जाकर यह पता चला कि मेक्सिको का इतिहास अनवरत क्रांतियों का इतिहास है, जिसकी संस्कृति को पिछले चार-पांच दसकों में बनीं अमेरिका-परस्त सरकारें अब लगभग समाप्त कर देने की कगार पर हैं. सन 1810 में शुरू हुए स्वतन्त्रता संग्राम के बाद मिली मेक्सिकन आजादी के बाद जारी सरकारों के विरुद्ध व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने वाली कम से कम पांच महत्वपूर्ण क्रांतियाँ यहाँ हो चुकी हैं. ‘मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ उनमें से सन 1910 में हुई क्रान्ति के नायकों, उनकी मांग और योजनाओं, तथा योजनाओं के अंशतः क्रियान्वयन की ज़िंदा दास्ताँ है. नई नीतियों वाली नई संसद की योजना इसी क्रांति की देन थी, जिसके अवशेष रूपी स्मारक के नीचे बने म्यूजियम में इस क्रान्ति के नायकों की प्रतिमाओं के साथ उनके छोटे-बड़े संघर्षों की चित्रात्मक प्रस्तुति मौजूद है. म्यूजियम से ही सटे एक हिस्से में प्रस्तावित संसद की पड़ चुकी नींव के हिस्से भी जस के तस सुरक्षित हैं और संकरे गलियारों से गुजरते हुए उसकी नींव भर में खर्च की गयी कारीगरी एवं कोशिशों को देख सहज ही आश्चर्य महसूस किया जा सकता है.

Sunday, January 12, 2014

मेक्सिकन भोजन और 'सोना रोसा'

( यात्रा / संस्मरण के इस हिस्से में सोना रोसा का वह इलाका जो रोबेर्तो बोलान्यो के नाते नॉस्टेल्जिक करता है )

ऑफिस के काम में दिन भर व्यस्त रहने के बाद लगभग हर शाम आस-पास घूमकर हम खाने के ऐसे विकल्प खोजा किये जो भारतीय व्यंजनों की आदी हमारी स्वादेंद्रिय को सहने लायक लगें, और उनमें सबसे कठिन शर्त उस व्यंजन का शाकाहारी होना साबित होती थी. भोजन की इस तलाश में जो दो चीज़ें हमारे लिए मददगार होतीं उनमें से पहली बात मैक्सिको के लोगों का खाने के मामले में प्रयोगधर्मी होना था, जिसके कारण हमें व्यंजनों की विविधता मिल जाती, तथा दूसरी यह, कि हमारे होटल के आस-पास हर गली में ढेर सारे क्लब्स और रेस्तराँ थे. हम हर रोज कई रेस्तराओं की जांच कर किसी नए में बैठ कोई व्यंजन आजमाते और उसे पिछले दिनों के व्यंजनों की तुलना में बेहतर या बदतर जैसी किसी श्रेणी में रखते हुए अपने आगामी दिनों के आहार के विकल्प के तौर पर दिमाग में नोट कर लेते. यूं शुक्रवार तक आते आते हमें यह मान लेना पड़ा कि इस तरह के प्रयोग के सहारे तीन महीने काट पाना संभव नहीं होगा, और कुछ भी करके चूल्हे-चौके का बंदोबस्त करना ही पड़ेगा.

अब तक हमने जिन व्यंजनों को अपने स्वाद-बोध के लिए दोस्ताना पाया उनमें से पहली चीज़ का नाम ‘ताकोस’ था. ताकोस, मक्के के आटे से बनी रोटी नुमा संरचना जिसे तोर्तियास के नाम से जानते हैं, के बीच हरी सब्जियों का अधपका मिश्रण भर देने से बन जाता था. कुल मिलाकर भारत के महानगरों में फ़ास्ट-फ़ूड वाली रेहड़ियों पर मिलने वाले वेज रोल जैसी कोई चीज़. तोर्तियास, जिसे कि हम अपनी रोटियों के विकल्प के तौर पर क़ुबूल कर चुके थे, ग्रोसरी की लगभग हरेक दूकान में बनी बनायी मिलती है. थोड़ी छानबीन करने पर पता चला कि तोर्तियास पुराने समय से ही मैक्सिको की खाद्य परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्हें पहले ठीक उसी प्रक्रिया से बनाया जाता था जैसे भारत में रोटियां बनती हैं. मतलब भारतीय समाज यदि रसोई के दृष्टिकोण से भी आधुनिक (अथवा सभ्य) होता रहा तो आने वाले पंद्रह बीस वर्षों में शायद भारत में भी बनी बनाई रोटियां ही मिलें, जिन्हें हम आवश्यकतानुसार गर्म करके खा लें. 


यह जाहिर हुआ की मैक्सिको में खाए जाने वाले अन्न कुछेक अपवादों को छोड़कर भारत के प्रमुख खाद्यान्न ही हैं. इसका कारण ग्लोब पर दोनों देशों की सामान भौगोलिक अवस्थिति है. मसलन मैक्सिको का अक्षांशीय विस्तार १४ अंश से उत्तर से तैतीस अंश उत्तर के बीच ठहरता है, जो कि भारत के ६ अंश उत्तर से ३५ अंश उत्तरी अक्षांश के सीमा के अंतर्गत आ जाता है. मतलब यहाँ की जलवायु भारत के कर्नाटक से लेकर पंजाब के बीच के राज्यों की जलवायु जैसी है, जो कि गेहूं, चावल और मक्के के साथ तकरीबन उन सभी फसलों की पैदावार के लिए उपयुक्त है जो भारत में होती हैं. फर्क है तो सिर्फ किन्हीं ख़ास फसलों को प्रमुख खाद्य के रूप में दी जाने वाली वरीयता तथा उनके प्रयोग के तरीकों का. भारत में मक्का मोटे अनाज की श्रेणी में आता है तथा गेहूं की तुलना में उपेक्षित पाया जाता है, जबकि मैक्सिको में ठीक इसका उल्टा है. यहाँ के भोजन का आधार मक्का है, जिसके बारे में यहाँ एक मुहावरा प्रचलित है, ‘नो पाइस सिन माइस’ अर्थात ‘मक्का नहीं तो देश नहीं’. वहीं अगर मैक्सिकन चावल की बात करें, तो यहाँ के चावल सुगंधहीन तथा अपेक्षाकृत मोटे होते हैं. मसालों में सबसे प्रधान तत्व लाल मिर्च होती है, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च आदि उसके बाद आते हैं.

पांच दिनो के दफ्तरी काम और खाने पीने के बीच जिस एक दूसरी चीज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर घसीट लिया, वह था ‘सोना रोसा’ नाम का इलाका. पहली दफा कानों में पड़ने के साथ ही यह नाम मुझे कुछ जाना-सुना सा लगा. कहना न होगा कि मैक्सिको में कदम रखने की अगली सुबह से ही जिस एक लेखक को मैं हर मोड़ और चौराहे पर याद करता रहा, वो थे रोबेर्तो बोलान्यो. ‘द सैवेज डिटेक्टिव’, ‘एम्यूलेट’, ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’, ‘दी रोमांटिक डॉग्स’ जैसी किताबों की तफसील से गुजरते हुए शरीर पर लगातार सरकती जा रही रेशमी चादर सा जो एक मखमली एहसास होता था, मैक्सिको सिटी में चलते-भटकते मैं हर वक्त मानो उसी एहसास को दोहरा रहा था. थोडा जोर देने पर याद आया कि ‘द सीवेज डिटेक्टिव्स’ का एक किरदार, जो संभवतः रोबेर्तो बोलान्यो के खुद का था, इसी ‘सोना रोसा’ की एक आर्ट गैलरी में काम किया करता था. इसके अलावा बोलान्यो की लिखी मेरी पसंदीदा कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ में भी ‘सोना रोसा’ में एक दन्त चिकित्सक के क्लीनिक का ज़िक्र है. कुल मिलाकर, इतना जान लेने के बाद, कि यह रोबेर्तो बोलान्यो और उनके साथियों, जिनके खून से सिंचे ‘परायथार्थवादी आन्दोलन’ को ओक्टावियो पास सरीखे विश्व विख्यात (नोबेल विजेता भी) कवि के तूफ़ान ने सिर तक न उठाने दिया, के संघर्षों का केंद्र यही जगह है, मैं हर शाम उस ओर निकल जाता. हालाँकि बोलान्यो द्वारा सत्तर के दसक में व्याख्यायित ‘सोना रोसा’ और आज के ‘सोना रोसा’ के बीच  अब बहुत कुछ बदल चुका है. यह जगह अब किसी भी मायने से बुद्धिजीवियों या लेखकों की नहीं रह गयी है. इस बात की पुष्टि मेरे ऑफिस में काम करने वाली ‘तोनी’ ने सत्तर के दसक के ‘सोना रोसा’ की तमाम उन बातों का जिक्र करते हुए किया, जो कि उन्होंने खुद की आँखों से देखा था, तथा जो बोलान्यो की रचनाओं के विवरण से हू-ब-हू मेल खाती थीं. तोनी, जबकि, रोबेर्तो बोलान्यो को जानती तक नहीं थीं. तोनी ने बताया कि सोना रोसा के रेस्तराओं में बैठे लेखकों और बुद्धजीवियों ने इस जगह को उस समय के मैक्सिको के समाज की तुलना में काफी आधुनिक बना दिया, लेकिन धीरे-धीरे यहाँ से लेखक और बुद्धिजीवी जाते रहे, बच गयी तो कोरी आधुनिकता.

वैसे तो अपने आरामदायक मौसम के अलावा लोगों के जीवन व्यापार नजरिये से भी मेक्सिको सिटी मुझे एक गज़ब का रूमानी शहर लगा, लेकिन प्रेम के उन्मुक्त उत्सव की जगह ‘सोना रोसा’ ही लगी. इसका विस्तार रेफोर्मा की मुख्य सड़क से ‘इन्सुर्खेंतेस’ नाम के मेट्रो स्टेशन को जोड़ने वाले मार्ग के दोनों ओर है, जिसमें कदम कदम पर क्लब्स, बार और रेस्तराँ अंटे पड़े हैं.

तकरीबन आधे किलोमीटर में फैली इस सड़क पर गाड़ियों का चलना मना है और हर बीस पच्चीस मीटर की दूरी पर बैठने के लिए बेंच आदि लगे हुए हैं. यूं तो दिन के वक्त भी यहाँ प्रेमी जोड़ों की आवाजाही लगी रहती है, लेकिन शाम होने के साथ ही उनके लिए रौनकें बिछ जाती हैं. पूरा इलाका गलाबाहों में हौले हौले टहल रहे या फिर आलिंगनबद्ध जोड़ों से भरा होता है. एक ऐसे देश, जहाँ की राजधानी तक में एक अदद महिला दोस्त के बराबर में टहलते हुए भी आपको भद्दी और अश्लील फब्तियाँ सुनने को हर वक्त तैयार रहना पड़ता हो, से आने वाले हम लोग चुम्बन और आलिंगन में संलग्न जोड़ों को देख मन ही मन दोनों देशों की तुलना करने को मजबूर हो जाते. शुरुआती दिनों में यह देख वाकई हैरत होती कि आस-पास हो रही सैकड़ों लोगों की आवाजाही के बीच ये जोड़े इतनी सहजता से आलिंगन और चुम्बन कैसे कर पाते हैं? लेकिन चंद रोज में, पार्क से लेकर सड़क और मेट्रो तक में ऐसे प्रेमरत जोड़ों, तथा उनकी गतिविधियों से लोगों का कतई प्रभावित न होना देख यह समझ आ गया कि प्रेम के लिए ऐसा सहज वातावरण देने में यहाँ के लोगों, यहाँ के समाज का भी बड़ा योगदान है. सभ्यता के पायदानों पर चढ़ते ये कम से कम वहाँ तक तो पहुँच ही चुके हैं जहाँ यह स्वीकार किया जा सके कि प्रेम इंसान की स्वाभाविकता है तथा इसकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए दो प्रेमियों को राष्ट्र के संविधान अथवा जनता से कोई अतिरिक्त अनुमति लेना अनिवार्य नहीं. यूं प्रेम के इस खुले माहौल, जो कि कम से कम मैक्सिको सिटी नामक बड़े शहर में हर ओर एक जैसा सहज है, के बीच जो चीज़ वर्तमान ‘सोना रोसा’ को सबसे अलग बनाती है, वह है समलैंगिक जोड़ों का प्रेम. विपरीतलिंगी जोड़ों की तादाद से कुछ ही कम संख्या में समलैंगिक प्रेमी भी यहाँ प्रेमरत दिखाई देते हैं. शहर के बाकी किसी हिस्से की तुलना में सिर्फ इसी जगह समलैंगिकों की जमघट देखकर यह साफ़ होता है कि ऐसे संबंधों को मैक्सिको के व्यापक सामाज द्वारा स्वीकृति मिलनी अभी बाकी है.

इस तरह, सोना रोसा से ठीक ठाक तरीके से वाकिफ हो जाने के बाद मैं इस बात पर भी आश्वस्त हो गया कि बोलान्यो की लिखी मेरी प्रिय कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंत, जो कि एक क्लब में शुरू होने वाली लड़ाई के साथ होता है, भी कहीं न कहीं इसी इलाके के किसी क्लब में घटित किसी घटना से प्रेरित, या उस पर आधारित होगा. आमिर के अलावा हमारे एक दूसरे सहकर्मी अंकुर ने भी जब मैक्सिको की ‘क्लब लाइफ’ देखने की इच्छा जाहिर की, तो उस कथा में व्याख्यायित माहौल को करीब से देखने-समझने की मेरी इच्छा और भी मजबूत हो गई.

शुक्रवार की शाम को ही पक्का कर लिया गया और हम एक रेस्तराँ में ताकोस खाने के बाद धीरे धीरे एक के बाद दुसरे क्लब में ताक झाँक शुरू कर दिए. बता दूँ, कि क्लब क्या चीज़ होती है, असल मायनों में हममें से तीनों को ही नहीं पता था. दो चार क्लब्स में झाँक लेने के बाद हमें पता चला कि कोई भी क्लब बेहद महंगी कीमतों की शराब और सिगरेट्स के बीच नाचने-गाने की जगह है. हम जिस भी क्लब की दहलीज़ लांघने जाते, हमसे क्लब में प्रवेश करने के लिए फीस मांगी जाती. हम एक नज़र में क्लब के अन्दर के माहौल का जायजा लेते, और फिर प्रवेश शुल्क की तुलना में उसे असंगत पाते हुए अगले क्लब तक पहुँच जाते. सबसे ज्यादा आपत्ति मुझे ही रही, जो शराब तो बर्दाश्त कर सकता था, लेकिन सिगरेट की हर्बल गंध में मेरा दम घुटने लगता. मतलब मैं तसल्ली से बैठकर इस नए तजुर्बे को जीना चाहता था, भले ही प्रवेश की फीस औरों की तुलना में अधिक लग जाय. इस तरह चंद घंटे की माथापच्ची के बाद, हम एक काफी बड़े से दीखते क्लब ‘एलीट’ की ओर बढ़े और सहमे क़दमों से सीढियाँ चढ़ने लगे. सीढ़ियों से चढ़-उतर रहे लोगों के महंगे और सलीकेदार पहनावे देख हमें इस बात का शंशय होता रहा कि कहीं हमारी जेबें यहाँ का प्रवेश शुल्क देने भर में ही खाली न हो जाएँ. लेकिन ऊपर जाने, और एक अर्धनग्न वेट्रेस द्वारा हमें बुलाकर एक टेबल दिए जाने तक हमसे किसी भी तरह की राशि नहीं माँगी गई. हमारे ठीक सामने एक मंच था, जिस पर ओर्केस्ट्रा जैसे बंदोबस्त के बीच खूब सारी रौशनियाँ बरस रही थीं.
क्लब के आधे से अधिक टेबल्स पर लोग विराजमान थे, लेकिन जिस चीज़ ने हमें सबसे ज्यादा हतप्रभ किया वो थीं आस पास घूम रहीं लडकियाँ, उनकी भंगिमाएं और शरीर पर बमुश्किल दिख रही कपडे जैसी कोई चीज़. एक लडकी ने हमारी टेबल पर लाकर मेन्यू कार्ड रखा और बारी बारी से हम तीनों की आँखों में कुछ इस तरह झाँक ली, की हममे से कोई भी उसमें अपनी बिछड़ गयी पहली प्रेमिका को खोज ले. ऐसा कतई नहीं था कि हम किसी बेहद खूबसूरत लड़की से मिलने वाले ऐसे अप्रत्याशित बर्ताव के प्रति पहले से सतर्क थे अथवा कोई धारणा बनाये हुए थे, लेकिन वह लडकी बारी बारी से हम तीनों को आजमाकर, हमें अपनी पेशकश के सामने असहज पाते हुए, दूसरे टेबल की ओर बढ़ गयी. वहां बैठे युवक ने उसकी भंगिमाओं का सम्मान कर उसे हलके से सहलाया और वो उनकी गोद में विराजमान हो गयी. इस बीच हमने मेन्यू कार्ड से देखकर दो सॉफ्ट ड्रिंक और एक साइडर का आर्डर दे दिया था. हमारे ड्रिंक्स के आने के साथ ही मंच के बैकग्राउंड से स्पैनिश में घोषणा हुई और क्लब के अन्तःद्वार से निकल हमारे पास से गुजरती दो युवतियां मंच पर आ गयीं. संगीत चालू हुआ और वो नाचने लगीं. कुछेक मिनट के नृत्य के बाद ही उनमे से एक लडकी थोड़ी दूर से इशारा कर रहे एक जनाब की ओर चल पड़ी और उसी संगीत की धुन पर उनके शरीर पर लिपटने लगी. मंच पर नाच रही दूसरी युवती ने संगीत की तीव्रता बढ़ने के साथ एक एक कर शरीर से अपने कपडे कम करने लगी. हम तीनों ने आँखों ही आँखों में यह तय कर लिया कि हमारे सहज और गंभीर बने रहने की सीमा अब यहाँ समाप्त होती है. ग्लास की तली में अभी थोड़ी ड्रिंक बची ही थी, की हमने बिल मंगाकर भुगतान कर दिया. मेज से हमारे उठने तक मंच पर नाच रही लडकी पूरी तरह से नग्न हो चुकी थी. एक बार नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की ओर रुख करने के बाद हममे से किसी ने भी पलटकर पीछे नहीं देखा.
हमें प्रेम की सहजता और अश्लीलता के बीच भेद समझ में आ गया था. यकीनन, मुझे फिर से बोलान्यो की कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंतिम दृश्य याद आता रहा.