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Wednesday, May 25, 2011

सूरज की कविता - कविता से बाहर पाँव रखते हुए



कविता से बाहर पाँव रखते हुए


सुथरे निथरे दराज से चूहे निकलते हैं, डरे हुए दिमाग से दु:स्वप्न
फाईलें कागज से अटी पड़ी हैं,यादाश्त शब्दों से
दफ्तर के जँगले जिनके बाहर वो हरा है जो कविता नहीं,
भारी पत्थर है
समय की नस पर पड़ गया है.

दफ्तर नमक की तरह घुलता जा रहा है रक्त में
शुक्रग़ुजारी और एहसानफरोशी ने चोट की है रीढ़ पर
काम, जैसा भी है, अपना लगता है और जरूरी भी.

फुर्सत उस जमाने की कविता है
जहाँ पेड़ पर फल लगते थे
जिनसे रौशनी निकलती थी
प्रेम, शिक्षक की तरह, लाया कविता तक
विदा के वक्त प्रेम ने
कविता से लगे रहने का ध्यान धराया

आसान नहीं था कविता के बाहर पाँव रखना
जैसे उस मित्र का परित्याग था
जिसके साथ कदम दर कदम मिला पाने में असमर्थ हों.

वो शब्द सारे
जिनसे कविता की छत
और दीवाल गढ़ा करता था कवि
पड़े रहेंगे,
इनसे भयभीत है कवि या शर्मिन्दा
इसका ठीक ठीक अन्दाजा है मुश्किल,
जाग रहे समय का नहीं पता
पर शब्द हैं साथी
यह कवि भलीभाँति जानता है नीन्द में
जहाँ हर क्षण पलक वो कर रहा होता है
अपनी नई कविता का
आखिरी ड्राफ़्ट.

...............................................................सूरज की कविता

Monday, December 20, 2010

सूरज की कविता

जिन्हे पानी चाहिये....
दो नौ-उम्र लड़कियाँ खड़ी
घाट की सीढ़ियों पर
एक दूसरे से बिनबोले बतियाये
खींच रहीं हैं एक ही सिगरेट के
लगातार दिलकश कश..

दोनों स्थिरचित्त हैं
जीवन में उनकी असीम आस्था
उनकी आंखो के पानी से झिलमिला रही है.
नदी निहार रही है उन्हे एकटुक
हज़ारों वर्ष पुरानी काशी भी
नाव भी
घाट, घाट की चौकी,
छतरियाँ, गोलगप्पे, कदम्ब का पेड़,
आते जाते हिन्दी के राहगीर..सब के सब

वे दोनों किसी को नहीं देख रहीं हैं.

उनदोनों नौ-उम्रों के सावलें होठों पर
खिलती है मुस्कुराहट गोया नाव से
पूछा हो: एक कश चलेगा?
नाव ने लजाते हुए इंकार किया.

चाँद और उन दोनों के चेहरे का रंग उदास हुआ है
उनके चेहरे का पानी जरा छलका
जब यह सवाल नदी की ओर उछाला.
नदी ने अपने फेफड़े में पैठे के दर्द की जामिन
बताया,
रोक दिया गया है मेरा रक्त प्रवाह
उपर कहीं हिमालयी इलाके में

लड़कियों ने भरे आखिरी कश
धुआँ उनकी आंखों में उतर आया

सिगरेट का आखिरी टुकड़ा उछाला
नदी के सीने पर जैसे रोपना हो
सिगरेट के बीज..

उठी
और चल पड़ी किसी सोच में डूबी
जैसे जाना हो इन्हे टिहरी
करना हो इन्हे नदी के फेफड़े का इलाज.

........................................................

Friday, December 10, 2010

सूरज की कविता

(काशी इन दिनों दु:खद कारणों से चर्चा में है जहाँ चीजों को कई कई नजर से देखने की जरूरत है. इसी बीच सूरज की यह कविता याद आई.)

अभिलाषा

सिगरेट के कश खींचती हुई

दो नौ-उम्र खफीफ सुन्दरियाँ कर रहीं

घाट की सीढ़ियों का सुन्दरतम उपयोग;

उनकी मुदित

आंखों के बाहर यह संसार

यों ही पड़ा है..

यों ही पड़ा हुआ है..


वो पथ नहीं रहा

ना ही वे पथिक

ना ही पुष्प की तरह बिछ जाने की

वह अलौकिक काव्य अभिलाषा;

वर्तमान की प्रस्तुत दीवाल के पार

स्पष्ट नहीं दीखता

उन राहों से कौन गुज़रा था,


सुलगती सिगरेट बन जाने की अभिलाषा

लिये देखता हूँ इन दोनों वसुन्धराओं की ओर

यह आत्महंता अभिलाषा

इनके होठों के स्निग्ध स्पर्श के लिये नहीं ;

वैसे उपलब्धि यह भी कम नहीं होगी कि

पा सकूँ उन रेशमी होठों के स्पर्श जहाँ से

फूटे हुए शब्द ग्रंथ बनेंगे

जहाँ चुम्बन के बाद आई तरलता

नदी का आविष्कार करेगी और

चुम्बन का आवेग तय करेगा

नदी की रफ्तार

इन्ही होठों से उठी किसी पुकार पर

प्रार्थनाओं की सुरीली धुनें तैयार होगी


फिर भी ...फिर भी...फिर भी

सिगरेट बनने की आकांक्षा इसलिये

कि जला दिया जाना चाहता हूँ

प्रकृति की सर्वोत्तम कृति के निर्दोष हाथों...

.......

Friday, December 3, 2010

सूरज की कविता

(यों तो कवि सूरज की यह कविता “भाषासेतु” पर प्रकाशित हो चुकी है, फिर भी इच्छा हुई कि इसे नई बात के साथियों से साझा किया जाये... और यह भी “भाषासेतु” के को-मॉडरेटर श्रीकांत से पूछ कर ही)

.................

मेरे खरीददार

(किसी ढाबे से रात का खाना पैक करा रही सुन्दरतम युवती के लिये, जो उस दरमियान तन्दूर के पास खड़ी अपने कोमल हाथ सेंक रही है और शर्तिया मुझे याद कर रही है, जबकि मैं हूँ कि वहीं हूँ – उसी तन्दूर में..)

तुमने मेरी कीमत नींद लगाई थी
जो हमने स्वप्न देखे वो सूद थे
जब स्वप्न चूरे में बिखर गया
तुमने मुझे समुद्र के हाथों बेच दिया

मेरी स्त्री!
बिकना मेरे भाग्य का अंतिम किनारा रहा
पर तुम ऐसा करोगी इसका भान नहीं था,
लगा तुम गुम हो गई हो
किसी बिन-आबादी वाले इलाके में

मैने समुद्र से लड़ाई मोल ली
उसे पराजित किया
तुम्हारे लिये तोड़ लाया समुद्र से चार लहरें
जैसे मैं जानता था तुम्हारे सलोने
वक्षों को होगा इन लहरों का इन्तजार

तब,
मेरी स्मृतियों को औने पौने में खरीद
तुमने मुझे बर्फ को बेच दिया
जो तुम्हारी लम्बी उंगलियों के
पोरों की तरह ठंढी थी

बर्फ के लिये मैं बेसम्भाल था
उसने मुझे पर्वत को बेच दिया
पर्वत ने शाम को
शाम ने देवदार को
देवदार ने पत्थरों को
और पत्थरों ने मुझे नदी को बेच दिया

स्मृतिहीन जीवन के लिये धिक्कारते हुए
नदी ने मुझे पाला अपने गर्भ की मछलियों,
एकांत,
और शीतल आसमान के सामियाने के सहारे

नदी को आगे बहुत दूर जाना था
उसने मुझे कला को बेच दिया
मात्र एक वादे की कीमत पर

कला के पास रोटी के अलावा देने के लिये सबकुछ था
कला ने साँस लेने की तरकीब सिखाई
फाँकों में सम पर बने रहने का सलीका
और तुम्हे याद कर सकूँ इसलिये कविता सिखाई

अनुपलब्ध रोटी के लिये कला उदास रहती थी
उसने विचार से सौदा किया
और जो मौसम उनदिनों था
उस मौसम ने विचार के कान भरे
विचार ने मुझे अच्छाईयों का गुलाम बनाना चाहा
मैने यह शर्त अपने पूरेपन नामंजूर की

मेरे इंकार पर विचार ने मुझे गुलाम
बताकर बाज़ार को बेच दिया

बाजार ने मुझे रौँदा
शत्रु की तरह नही
मिट्टी की तरह और ऐसा करते हुए
वो आत्मीय कुम्हार की धोती बान्धे था
जिसमें चार पैबन्द थे

चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली
जिसकी सजा में बाजार ने
मेरा सौदा आग से कर लिया

बाजार को कीमत मिली और
मुझे अपने नाकारा नहीं होने का
इकलौता सबूत

तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई

आज शाम जब आग मुझे
तन्दूर में सजा रही थी
मैं तुम्हे याद कर रहा था

उपलों के बीच तुम्हारी याद सीझती रही
सीझती रही
सीझती रही...

जिसकी आंच में सिंक रहे थे
तुम्हारे कोमल हाथ
और सिंक रही थीं
तुम्हारे लिये रोटियाँ

......................................





Thursday, July 8, 2010

‘शापित एकांत’ सीरिज

यह सूरज की कविता है. उसने “शापित एकांत” नाम से कविताओं की यह सीरिज शुरु की है. हालांकि एकांत-वेकांत मुझे भी अच्छे नही लगते पर जो नाम उसने चुना है, वो ही कभी इसे परिभाषित भी करेगा.


अलविदा के लिये


अलविदा के लिये उठते हैं हाथ
थामने हवा में बाकी बची देह-गन्ध
नमक के कर्जदार बनाते पसीने और
याद से भींगे होठों के चूम
(या उनकी भी याद ही)

अलविदा के लिये
तुमसे भी जरूरी हों कई काम
(?)
झूठ है सफेद जो बोले जाने हैं
यादें चींटियों की कतार से लम्बी
भूलना जिन्हे जीवन लक्ष्य
होगा एकसूत्रीय

वापसी की रूखी धुन शामिल होती
हो अलविदा में तो आता है रंग
आती है गूँजती पुकार

सोमवार को धकेल
आने को आतुर रहता है
मेरे जीवन का हर मंगलवार
सारे बुध करते रहते हैं मंगल के
बीतने का बोझिल इंतज़ार

अलविदा, अलविदा

डोलते हाथों और काँपती उंगलियों से पहले
अलविदा के वक्त चाहिये एक मनुष्य
जीवन में शामिल
जिसकी आंखों में बचे रहे मेरे हाथ
बचे रहे कुछ सिलसिले जो उसी से
सम्भव हुए
बचा रहूँ मैं
इंसान की तरह


कवि से सम्पर्क: soorajkaghar@gmail.com

Monday, July 5, 2010

सूरज की नई कविता : पहला सफेद बाल

आज अचानक दिखा
पहला सफेद बाल
जैसे दिखी थी तुम
जीवन के अन्धेरे दिनों में

कुन्देरा नही पंकज आये
याद तुम्हारी मेरी आत्मा में
छूटी हुई, धरी हुई हंसी
पंकज से न मिल पाना
आया याद कितना कुछ

सुगन्धियों से शेष इस जीवन में
मैं खुद को दिखा उन तमन्नाओं की
चौखट फेरते,जो रह गई थीं,
इच्छायें
छूटी हुई, सांस की तरह बजती हुई

कामनाओं की अकूत दौलत लिये देखता हूँ
आईने में खुद को सालों पार
सारे ही सफेद बाल
जीवन जितने कम
यादों जितनी बिखरे
बाल जिन्हे तुमने अपनी उंगलियों मे लिया था
जब मैं पहली बार रोया था तुम्हारे सामने
तुम्हारे बाद
मेरा जीवन मेरी परछाईयों ने जिया
सुख गायब हुए अजीज काले रंग की तरह


पहला सफेद बाल देख चुका हूं
आज ही अनगिन बार
मौजूद थे सारे कारण होने के उदास
पर सफेद बाल ने जिम्मेदारी का सुन्दर
बोझ डाल दिया
पहला यह सफेद बाल ही लाया ख्याल
तुम जहाँ भी रहो सुखी रहो
दुनिया सुन्दर हो जाये
कम हो जाये मेरा गुस्सा
(तुम्हारा भी)

मैं आज धीरे धीरे हंसा
धीरे धीरे ही लिये निवाले
चुस्कियों में बिताई चाय
तुम्हे कई बार सोचा
घर तीन दफे फोन किया
(तुम्हे चार दफे पर नम्बर...)

इस धवल केश ने अकेले ही दम जलाये
आत्मा के उन कमरे के कम रौशन दिये
जहाँ अधूरी ख्वाहिशे लेटी
थी उदास (.....वो भी बाईं करवट)
उनके लिये रोया जरूर
जरा भी नही झल्लाया पर
तुम्हे नही मना सका
उन्हे मनाया पर

अब अधूरी हसरतें ही साथिन
अब अधूरा ही
होउंगा मैं
पूरा.

............

कवि से सम्पर्क: soorajkaghar @gmail.com

कविता की शुरुआती पंक्तियों में क्रमश: मिलान कुन्देरा(गद्य रचनाकार) और पंकज चतुर्वेदी(युवा कवि) का जिक्र है. श्री पंकज जी ने भी इस विषय पर एक सुन्दर कविता रची है.

Tuesday, June 8, 2010

तस्वीर और तस्वीर

(किसी भी फोटोग्राफर/कैमरा मैन के लिये)

मैं समझता हूँ
पालतू कैमरे को बन्दूक
रंगो को स्याही
अक्षर हैं चेहरे
तस्वीरों के किताबी जीवन में
जीता रहा ज्ज्ज्ज्जूँssssssजीक्क की आवाज में

मैने उतारी है
चुम्बनों में शामिल आवाज की तस्वीर
पानी और हवा में हस्ताक्षर की तस्वीर
मैगी और दोस्ती के स्वाद की तस्वीर
शाम के धूसर एकांत की तस्वीर
भागते पेड़ और रूके समय की तस्वीर

अच्छे वक्तों में प्रेमिका बुरे वक्तों में माँ की तरह
अटूट साथ दिया इस
बगटूट कैमरे ने

मेरी, रिक्शे और रिक्शे वाले की
परछाईयों को आपस में गुंथा देख
कैमरा हो गया खुद-ब-खुद ओन
ज्ज्ज्ज्जजूँsssss के बाद जीक्क्क की
आवाज थी बची हुई जब रिक्शेवाले ने कहा साथी रिक्शेवाले से
“हो मीता पैरवा पीड़ावत हवे”
हे ईश्वर! तू भी नही मांनेगा? पर मेरा कैमरा और मैं
दोनो ही रह गये थे अवाक!
उस दिन तक यह सपाट सच से
थे हम अंजान कि होता है दर्द
रिक्शेवालो को, होते हैं उनके पैर भी
और यह कि रिक्शे और पैर में
कोई सम्बन्ध भी

हारा मैं उतारनी चाही दर्द की तस्वीर
रह गये हम पैरो और पतलून में
उलझ कर मैं और अच्छे दिनों
की प्रेमिका

जबकि भी झुका भी नहीं हूँ मै
संशयात्मा बन कैमरे का लेंस
रहता है घूरता अब
सोचता दिन-ब-दिन
क्या कभी उतार पाउंगा
दर्द की कठिन तस्वीर?


------- सूरज
कवि से सम्पर्क: soorajkaghar@gmail.com

Sunday, June 6, 2010

वर्षा ऋतु से..

वह मद्धिम करार भी टूट चुका

वर्षा रानी ये जिद छोड़ो
बादलों की धार फोड़ो

तुम्हारी जल पंखुड़ियाँ धरती को सरोबार जब चूमेंगी
सहसा, तुम्हारी बूँदे निगाह बन उसे ढ़ूँढ़ेंगी
जो अब नही होगी वहाँ
आंगन के पार द्वार
पर तैयार

वर्षों वर्षों तक हमने हथेलियों में थामें हाथ
किया स्वागत तुम्हारा तुमने सहलाया खुश
हो बौछारों से हमें पीटा हम थे कि जी उठे
और अब मैं, उन मीनारों में अकेला
जिससे फूटते रास्ते शाखाओं की तरह पर एक भी
अभागी राह उस ओर की नही

बारिश तुम आना
उसे न पाकर लौट ना जाना
बिन बुलाये मेहमान की तरह ही हो
पर वहाँ जाओ जहाँ जरूरत तुम्हारी हो

तुम्हारी राह देखता मै ही नही इमली के कितने पेड़ जिनके
फलने की राह देखती कितनी माएँ
जो तुम्हारे स्वागत के लिये नई और
सुदृढ़ पीढ़ी जनेंगी

वह मेंढक तुम्हारे रंग में रंगा
गीले मन सहित इस कविता में
छलाँग लगायेगा, बतायेगा मुझे
इस वर्ष जब वो ही नही रही
तब तुम्हारे जल का स्वाद

तुम्हारी बाट खोजती हजारहा फसले जो निवाला बन जाने की
आतुरता लिये मुझसे अनगिन बातें कर रही हैं

नाराज ना हो सौन्दर्य ऋतु
मैं तुम्हे बताउंगा प्रेम के नये
रंगरूटों का पता जो करेंगे
स्वागत तुम्हारा
हमसे भी सुन्दर
हमसे भी बेजोड़

वो भी भूली मुझे
तुम्हे नहीं
तुम्हारे स्वागत में उसने बनाई होगी रंगोली
अँजुरी बनाये थामे होंगे दो मजबूत हाथ

तुम आओ
मेरी स्मृतियों तक आओ
बरसते बरसते थक जाओगी तब
हम भाप के जालों के बीच पीयेंगे
कुल्हड की चाय और तुम मेरी स्मृतियों
की सांकल खोल मिल आना उससे

बारिश, अब तुम आओ.

(सूरज की यह कविता समय(!) पर आई है.)

Sunday, February 21, 2010

भेड़िया, मैं

(यह कविता सूरज की है)

मिशालों की जरूरत,
किस्सों की खुराक
और अपने
अपराधों को श्लील दर्ज करने के
लिये सभ्यता ने तुक्के पर ही
भेड़िये को बतौर खलपात्र चुना

इंसान की रुहानी भूख के लिये
घृणित किस्सों का किरदार बना
भेड़िया, जान ना पाया अपना
अपराध, जबकि यह बताने में
नही है किसी क्षमा की दरकार
कि शिकार कौन नही करता

बेदोष, मूक भेड़िये की लाचारी का
बहाना बनाते रहें अपनी आत्माओं
के सौदागर यह जान लें कि शेर
और नेवले शिकारी हों या इंसान,
तरीका भेड़िये से अलग नही होता

वे हम थे जिनने शेर और भालू
की उंची बिरादरी के आगे टेके
घुटने माथा झुकाया और उनकी
प्रतिष्ठा में फूंकने के लिये प्राण
भेड़िये का बेजाइस्तेमाल किया
उसे गुनहगार बनाया, जंगली
जलसों से उसे इतनी दूर रखा
जिससे बनी रहे उसके मन में
दूरी का बेबस एहसास, लगातार

भेड़िये की गिनती फिक्र का विषय
नहीं रही कभी, उसकी मृत्यु पर ढोल
और ताशे हमने ही बजाये

उसकी उदासी पर फिकरे कसे गये
(चुप रहने वालों को कहा गया घातकी)
अपने अपराधों के लिये मुहावरेदार साथी
बनाया भेड़िये को सभ्य मानव ने

इंसानों से छला गया यह जीव सदमें में
रहा होगा सदियों तक, सर्वाधिक बुद्धिमान
प्रजाति द्वारा दिये गये धोखे की नहीं थी
जरूरत, उसे अलग थलग करने के लिये
आविष्कृत हुए किस्म किस्म की हंसी,
खौफ और शब्दों के हथियार

हार नही मानी भेड़िये ने जिसके पास
जीते चले जाने के सिवा नही था कोई
दूसरा या तीसरा रास्ता

इतिहास के सबसे निर्मम और मार्मिक
एकांत में जीवित इस जीव ने साधा
सदियों लम्बी अपनी उदासी को, हम
रोने की उसकी सदिच्क्षा को जान भी
नही पाये

इतिहास के निर्माण में शामिल और
उसी इतिहास से बहिष्कृत भेड़िया
कभी नहीं रोता अपने निचाट
अकेलेपन पर

एक पल के लिये भी नहीं।

Wednesday, January 20, 2010

सरदर्द

मस्तिष्क के किसी कोने में रखी तुम्हारी
आहटें चींथती हैं, मुर्झायी कोई कील चुभती
है, जैसे छेनी हथौड़ी से सर की हड्डियों
पर कशीदाकारी की जा रही हो कोई
ठक ठक ठक
लगातार
ठक ठक ठक

मृत्यु इच्छा की तरह प्यारी लगती है
अपने अनकिये अपराध खूब याद आते
है समय ठहर जाता है जब सुबह सुबह
आने वाले इस संकट का आभास मुझे
होता है मैं तैयार होने लगता हूँ अपने
आप से लड़ना कठिन है दर्द का ईश्वर
उस पार से मुझे देख मुस्कुराता है मेरी
लुढ़की गर्दन, जिसके हिलने भर से हजार
हजार बिच्छुओं का डंक लगता है, जानती
है दर्द के उस पापी ईश्वर से अलग मेरे
लिये कोई नही, अब कोई भी नहीं

फौरन से पेश्तर मैं जीने की अपनी
असीम आकांक्षा किसी को भी बताना
चाहता हूँ,
ताकि सनद रहे।

........सूरज

Tuesday, January 5, 2010

रूपक अलंकार का बहुत उदास उदाहरण

मैं सरो-सामान से लैस सफर पर निकला
हर भले आदमी के रेल की तरह मेरी रेल
भी आई, मैने रोटी खाई ठंढा पानी पिया
खुशी की चादर बिछाई, अटूट नींद सोया
इस उम्मीद से कि अगली सुबह मंजिल
पर हूँगा, मेरा खास सफर पूरा हो जायेगा

सुबह हुई और लोग
मेरे हाल पर हंसे
रेल पूरी रात वहीं
उसी स्टेशन पर
खड़ी रह गई थी

वजहें मौजूद थीं
जो ढूंढ ली गईं


तुम्हारे बगैर मैं
वही रेल हूँ
मंजिल से दूर वही
अभागा हूँ
मैं कहीं नहीं पहुँच पाउंगा
मैं तो जी भी नहीं पाउंगा
तुम्हारे बगैर।


..........................सूरज
कवि से सम्पर्क-soorajkaghar@gmail.com

Wednesday, December 23, 2009

होठों के फूल

नहीं,
नहीं है कुछ भी ऐसा मेरे पास
जो तुम्हे चाहिये

मुझे चाहिये
तुम्हारी निकुंठ हँसी से झरते बैंजनी दाने
तुम्हारे होठों के नीले फूल
अपने चेहरे पर तुम्हारी फिरोजी परछाईं
मुझे निहाल कर देगी

अपने भीतर कहीं छुपा लो मुझे
मेरा यकीन करो
जैसे रौशनी
और बरसात का करती हो
किसी पीले फूल
किसी जिद
किसी याद से भी कम जगह में बसर कर लूंगा मैं

अब जब तुम्हे ही मेरा ईश्वर करार दिया गया है
तो सुनो
मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिये
अथवा मृत्यु।

............................................सूरज
कवि से सम्पर्क – soorajkaghar@gmail.com

Saturday, December 19, 2009

नाम तुम्हारा


बुजुर्गों की एक ही मुश्किल रही
तुमसे अपरिचय उनका ले गया उन्हे
दूसरे कमतर नामों वाले देवताओं के पास
सीने को दहला देने वाली खांसी
खुद को झकझोरती छींक
के बाद लेते हैं वो उन ईश्वरों के नाम
मैं लेता हूँ नाम तुम्हारा

मैं तलाशता हूँ, ईश्वर को नहीं, ऐसे शुभाशुभ मौके
जब ले सकूँ मैं नाम तुम्हारा, पुकारूँ तुम्हे

“जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं सी स्पेलिंग हो
छोटी-सी, प्यारी-सी तिरछी स्पेलिंग”
हाँ, देखो कि तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
पहिचानते थे,
ये तुम हो और शमशेर थे जिनने मेरी बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास रंगीनियाँ भाँप ली थी,
शमशेर थे जो मुझे इसी शरीर से अमर कर देना चाहा-
वो भी तुम्हारी बरकत।

तुम्हारे नाम के रास्ते वे मेरे दु:ख तक आ पहुंचे
खुद रोये और मुझे दिलासा दिया
तुम कौन से इतिहास की पक्षी हुई ठहरी कि
तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
उनकी बेचैन करवटें
मेरे लिये थी, आज भी ‘प्वाईजन’ की लेबल लगी
हंसती दवाओं और मेरे बीच शमशेर हैं,
तुम्हारे नाम से गुजर वो मुझ तक
इस हद तक आ पहुंचे।

तुम मेरे जीवन से कहीं दूर जाना चाहती हो,
इसे जान शमशेर मेरे लिये रोये होंगे,
ये उनकी ही नहीं समूचे जमाने की मुश्किल है,
ये संसार मुझे तुमसे अलग देखना नही चाहता और तुम यह नही


शमशेर ने मेरा तुम्हारा जला हुआ किस्सा फैज को सुनाया होगा
(तुम्हारा नाम [और तुम] है ही इतना अच्छा)
फैज तुम तक आयेंगे और जब कहेंगे कि अब जो उस लड़के के
जीवन में आई हो तो ठहरो के: कोई रंग, कोई रुत, कोई शै
एक जगह पर ठहरे।


मेरे हबीब, फैज़ की बात ऊँची रखना।

.....सूरज
(तस्वीर सूरज की है।)

Wednesday, December 9, 2009

महापुरुष का कथन और पराजित प्रेम

मैं किसी ईश्वर की तलाश में हूँ

जिस किसी ने कहा ईमानदार स्वप्न देखने वालों की मदद चाँद तारे आदमी आकाश सूरज बयार सब करते हैं गलत कहा/ प्रेम करते हुए मुझे अपनी प्रेमिका से भी यह आशा थी आशा ही रही औरों की तो बात क्या/ तुम्हे खोने के डर से थरथराता रहा और तुम थी कि मुट्ठी की रेत थी/ डर था मेरे स्वप्न को बेईमान कह दिया जायेगा और तुम वो पहली थी।

तुम कब थी ही यह बताना कठिन है पर जब थी मैने ठान रखा था तुम्हारे होठों के संतरें वाले रँग मैं कौमी रंग बनाउंगा उन संतरों के बाग मशहूर हो जायेंगे और मेरी प्यास अमिट/ मेरी अमिट प्यास की खातिर मेरे स्वप्न के भव्य चेहरे पर लम्बी नीली नदी का दिखता हुआ मखमली टुकड़ा है।
(बाकी बची नस सरस्वती की तरह ओझल)
(ठान अब भी वही है और तुम ‘अब भी’ हो)

हम ऐसे जुड़े कि निकलना बिना खरोंच के सम्भव ना था/ अपनी खरोंच से पहले यह मानना नामुमकिन था कि आत्मा से खून रिसता है/ तुम्हे मेरी आवाज से डरने की कोई वजह नहीं जैसे मेरे लिये तुम्हारी खुशी से विलग कोई मकसद नहीं/

डर है तुम्हे बजती हुई मेरी नवासी चुप्पियाँ ना सुनाई पड़े

एक कम नब्बे की संख्या, एक जिप्सी, एक बस और एक ही रात/ क्या खुद प्रेम को पराजित होने के लिये इन सबका ही इंतजार था/ पसन्द नापसन्द के बीच कोई झूला नहीं होता/ कोई कविता नहीं आई मुझे बचाने/सूरज देर से निकला/ मैने नींद से टूट जाने की प्रार्थना भी की/

प्रेम मकसद है पूरा का पूरा/ पर खरोंच भी एक गझिन काम है/ दुख देता हुआ/ समुद्र सी फेनिल यादें/ दरका हुआ आत्मविश्वास/ मांगता है
कुछ अजनबी ईंट,
अपना ही रक्त,
और उम्र से लम्बी उम्र।

-सूरज

Friday, December 4, 2009

शत्रु

मित्रता
जीने के आसान
से आसान हथियारों में से एक है।

जीवन भी कैसा/ कनेर की जामुनी टहनी/भारहीन गदा
भांजते रहो
आदर्श मित्रता कितनी सुखद रही होगी, कल्पनाओं में
कैसा घुटा जीवन बिताया होगा मित्रता की मिसालों ने
छोड़ देना प्रेमिका अपने मित्र के लिये, त्यागना प्रेम
(अपनी असफलता को ऐसा नाम देना)
माफ है
कि मरे हुए को कितनी बार मारोगे
मित्र के साथ
मित्र के लिए
विचार से जाना अपराध
है, चालू जीवन का शिल्प भी

मेरा शानदार दुश्मन खींचता है मुझे
विचारों के दोराहे तक, पैमाना है मेरा
मेरा शत्रु इतना ताकतवर जो पहुंचा आता
मुझे निर्णय के साफ मुहाने तक

जिनसे जूझता मैं आगे ही आगे
हर शत्रु मेरा सगा
हर निर्णय मेरा अपना।

सूरज.
Soorajkaghar@gmail.com

(सूरज की एक और कविता)

Tuesday, November 24, 2009

सूरज कवितायें लिखता है

इत्तफाक से मेरे मित्रों मे ऐसों की भरमार है जो छपने से घबराते है। कुछ दिनों पहले मैने लीशू की कवितायें आप तक पहुंचाई, इस बार सूरज की कवितायें।

मैं और सूरज बचपन से एक दूसरे को जानते हैं। वो चुप्पा लेकिन शानदार इंसान है और मुझे उसकी कवितायें बेहद पसन्द है।इस बात पर कहता है कि दोस्त होने के नाते मैं ऐसा कहता हूँ। उसने आजतक कोई कविता कहीं नहीं छपाई। कहीं किसी पत्रिका को अपनी कवितायें भेजता तक नहीं है जबकि शर्माने की उमर से बहुत आगे निकल आया है। ये कवितायें मैने उसे सूचित कर उसकी डायरी से ली हैं। देर तक नखरे करते रहने के बाद राजी हुआ(या क्या पता सच में शर्माया हो) और मुझे भी लगा, ये कवितायें पाठकों तक पहुंचनी चाहिये। आप बताइये, मैं ‘बस’ सही हूँ या बिल्कुल सही हूँ?

हवा से करार

दूरियों से मुझे हल्का गुस्सा है।
तुम ना हो तो दूरी का क्या,
होना। और न होना


मैं गाता हूँ प्रेम का सिनेमाई, पर जान लेवा गीत
और ये दूरी है जो तुम्हे मेरी चुप्पी बता आती है

ऐसा करो मेरी जान, तुम हवाओं पर दौड़ती हुई
चली आओ
मुझसे मिल जाओ
नहीं, ऐसा नहीं, दूरियों से मैं घबराया नहीं
(परेशान जरूर हूँ)
बेताबी है, पर ऐसी जैसे सुलग रहा हो कोई
चेहरा
चूल्हा
कान की लवें। बुझने की बात ही क्या?

तुम जिस गति से आओगी
तुम जिस गति से ‘मुझसे’ मिलने आओगी
मुझे मालूम है
पृथ्वी को भी मालूम है

पृथ्वी तुम्हे भरपूर मदद करेगी / तुम जहाँ पैर रखोगी जमीन ढीली हो जायेगी / तुरंत के पूरे किये प्रेम के बाद के जोड़े की तरह / फिर भी दूरी तो दूरी है / चोट आयेगी / तुम्हारे पैरों से निकला एक बूँद रक्त पृथ्वी की सारी खामोशी मिटा देगा / पृथ्वी उदास हो जायेगी / उसके झरने, फूल, बारिश, तुमसे कम उंचे पहाड़, तुमसे कम गहरे समुद्र उदास हो जायेंगे

मैने हवाओं के ड्राईवर से बात चला रखी है
वो तुम्हे ख्यालों के खूबसूरत सूटकेस की तरह ले आयेंगे

यदि कर सका मैं अग्रिम भुगतान
हवा भेजती रहेगी मुझे पल प्रतिपल तुम्हारी
बेजोड़ परछाईंयों के रंगीन लिफाफे।