Wednesday, May 24, 2017

काव्यशास्त्रविनोद-८: मुख़्तार साहब का सपना

(अमरकांत की कहानी "डिप्टी कलेक्टरी" पर कुछ विचार)

अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टरी हिंदी की कथा परम्परा में लगभग एक प्रतिमान की हैसियत पा चुकी है। शायद ही कोई आलोचक हो जिसने कभी न कभी इस पर विचार न किया हो। नामवर सिंह समेत लगभग सभी आलोचकों ने एक स्वर से इस कहानी को आज़ादी के बाद बनी व्यवस्था में सामान्य भारतीयों की आकान्क्षाओं की पूर्ति न हो पाने के चलते व्यवस्था से मोहभंग की कथा माना है। इसकी वजह कहानी में शकलदीप बाबू की अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने उत्कंठा; इसके लिए लम्बी प्रतीक्षा; और अंततः निराशा है।
ये शकलदीप बाबू कचहरी में काम करने वाले वही मुख़्तार साहब हैं जो कहानी शुरू होते ही पत्नी के सामने बेटे पर आगबबूला होते हैं क्योंकि वह बेरोज़गार है। दो बार इम्तेहान में असफल हो चुका है। पत्नी के विपरीत उनका मानना है कि तीसरी बार एग्ज़ाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि "अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?" बहरहाल वे शीघ्र ही चेत जाते हैं; पैसे की व्यवस्था करके खुद पूजा अर्चना में डूब जाते हैं। जिस दिन उनके बेटे को एग्जाम देने जाना है;स्टेशन पर आकर चलती गाड़ी में उसे प्रसाद देते हैं और किसी के पूछने पर बताते हैं कि पैसे दिए हैं। परिणाम आने से पहले ही वे रोज़ भोर में बेटे के चुन लिए जाने का सपना देखते हैं; जी भरकर मन के लड्डू खाते हैं और घूम घूम कर शेखी मारते हैं। परिणाम जब उल्टा निकलता है तो सकते में आकर चिन्तित होते हैं कि बेटा इस सदमे को कैसे झेलेगा। बेटे को सोता हुआ पाकर और उसकी साँस चलती हुई देख वे राहत की साँस लेते हैं।
हमारे समाज में डिप्टी क्लेक्टरी का एकमात्रअर्थ है अचानक अपने बराबर वालों से बहुत ऊपर उठ जाना। साहब बहादुर बन जाना। ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी का चरित्र ऐसा ही था लेकिन आज़ादी के बाद भी ये रवैया बदस्तूर क़ायम है। कहानी में इसी मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है। नारायण के डिप्टी कलेक्टर होने की आशंका मात्र पर मानो पूरा शहर शकलदीप बाबू को बधाई देने उमड़ पड़ता है। कहानी की मनोरचना औपनिवेशिक है पर यह बाक़ायदा सूचना देकर आज़ादी के बाद घटती है। हमारी आज़ादी की यही विडंबना इस कहानी का मूल कथ्य है। यह किसी प्रतिक्षा या मोहभंग की कहानी नहीं है।
यह किसी पीढ़ी की कहानी भी नहीं है। ये संस्कार पूरे समाज के थे और आज भी बनेे हुए हैं। भीष्म साहनी की कहानी "चीफ की दावत" में शामनाथ बाबू युवा पीढ़ी के हैं। वे नौकरी में प्रमोशन के लिए अपनी माँ का और माँ जैसी ही लोक परम्परा का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ शकलदीप बाबू बेटे का इस्तेमाल करते हैं। नारायण नामका यह नौजवान पूरी कहानी में एक शब्द भी नहीं बोलता। न ही वह कहीं सामने आता है। उसके बारे में हर सूचना उसके माँ बाप की बातों और गतिविधियों से मिलती है। बेकारी में वो बाप की गालियाँ सुनता है;इम्तेहान की तैयारी करता है और असफल होकर सो जाता है। ज़ाहिर है की उसका चित्रण पिता की इच्छापूर्ति के साधन के रूप में हुआ है। अतीत के हाथों भविष्य के दुरूपयोग का यह चित्र जितना उदघाटक है उतना ही त्रासद।
डिप्टी कलेक्टरी का यह सपना शकलदीप बाबू ने कचहरी में मुख्तारी करते हुए पाला था। मुख्तारी के दाव पेंच का इस्तेमाल घर में करने से वे कतई नहीं चूकते। उनके सारे फैसले सफलता असफलता की संभावना से तय होते हैं। सफलता की उम्मीद में उन्होंने ज़मीं आसमान एक कर दिया था। असफल होने के बाद वे फिर कहेंगे---सभी कुक्कुर। नारायण इसे जानता है इसीलिये उसने इस बार जी जान लगा दिया था। कहानी में नारायण की मुक़म्मल ख़ामोशी और रिजल्ट के बाद पिता की बेचैनी के बरक्स शान्तिपूर्वक सोना इस बात का पर्याप्त सबूत है की यह अभियान उसका नहीं था। आलोचक इसे नोट नहीं कर सके क्योंकि उनकी संवेदना नारायण की अपेक्षा शकलदीप बाबू के निकट पड़ती थी।

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