Saturday, May 29, 2010

आना

अपने अतिप्रिय कवि केदारनाथ सिंह की यह कविता इधर अचानक से यों ही याद आई है, वैसे ही जैसे कोई सिनेमाई गीत कभी कभी ज़बान पर अटक जाता है और उसे हम गाहे बे-गाहे गुनगुना लेते हैं। यह कविता मुझे पूरी याद न आकर टुकड़ों में याद आ रही थी पर जब अभी, यहाँ जालन्धर में, इसे लिखने बैठा तो किसी भूली हुई याद की तरह हू-ब-हू पूरा लिख बैठा। ऐसे ही इन्हीं की एक कविता याद आ रही है-‘बनारस’।

आना
जब समय मिले
जब समय न मिले
तब भी आना

आना
जैसे हाथों में
आता है जाँगर
जैसे धमनियों में
आता है रक्त
जैसे चूल्हों में
धीरे-धीरे आती है आँच
आना

आना जैसे बारिश के बाद
बबूल में आ जाते हैं
नए-नए काँटे

दिनों को
चीरते-फाड़ते
और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
आना

आना जैसे मंगल के बाद
चला आता है बुध

आना।

Tuesday, May 25, 2010

जफर पनाही की रिहाई और रिहाई के पहले की कैद....

चारेक साल पहले की बात होगी कि एक फिल्म देखने को मिली- “क्रिमसन गोल्ड”. एक ऐसे इंसान की कहानी जो अपने जमीर को, स्वाभिमान को सबसे ऊँचा दर्जा देता है पर उसकी नौकरी ऐसी है कि हर बार उसे किसी ऐसी परस्थिति का सामना करना पड़ता है जहाँ सब कुछ के साथ अपमान का एक पुट मिला होता है. उसके नातेदार, दोस्त उसकी इस मुश्किल से वाकिफ हैं और बाज दफा उसे मुश्किल मे गिरने से बचाते हैं. विशेष तौर पर उसकी होने वाली पत्नी और होने वाली पत्नी का भाई. पर कहानी मे इतने और ऐसे त्रासद मोड़ आते हैं कि हत्या या आत्महत्या मे से कोई एक ही रास्ता बचता है.

इस फिल्म और इससे भी मशहूर तथा सार्थक फिल्म “ऑफसाईड” के ईरानी निर्देशक जफर पनाही आज अपने ही देश,ईरान, की एक जेल से रिहा हुए. वो भी दो लाख डॉलर की जमानत राशि पर. जफर का जुर्म ये था कि चुनाव के बाद हुये प्रदर्शनो में मारी गई नेदा आगा सुल्तान की कब्र पर गये थे. यह विरोध प्रदर्शन तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदिनेजाद के दुबारा चुने जाने के खिलाफ चल रहा था. जफर की गिरफ्तारी के बाद दुनिया भर के फिल्मकारों ने अनेकानेक तरीको से दबाव बनाया/बनवाया. अपने ही देश मे सताये गये पनाही की माने तो उनके परिवार को भी लगातार धमकियाँ मिल रही थीं और हैं.

इस केस मे क्या होगा ये आगे की बात है. पर जब बात ईरान की आती है तो हमारे सामने एक ऐसे देश की छवि बनती है जो आज की भयावह तारीखों में भी अपने तईं अमेरिका को मुँहतोड जबाव देता है. अहमदिनेजाद की छवि ऐसे अडिग या उसूल वाले ‘लीडर’ की है जिसके बारे मे लोग शायद यह सोचते भी ना हो कि वो चुनावों में धाँधली जैसी हरकत करेंगे. या फिर जो हिन्दुस्तानी ‘इंटेलिजेंसिया’ है वो भी अपने सार्थक और कभी कभी निरर्थक मन में ईरान के प्रति एक ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ जरुर रखता है. ऐसे में अपने भारतीय मानस मे यह कोई विषय भी नही बन पायेगा कि इतनी सम्वेदनशील फिल्में देने वाले इस निर्देशक के साथ ऐसा क्यों हुआ? आज की तारीख में देशों के आधार पर फिल्मकारों की कोई रैंकिंग हो तो उहापोह दूसरे तीसरे या चौथे स्थान के लिये मचेगी क्योंकि पहला स्थान निसन्देह ईरानी फिल्मकारों को मिलेगा

जिन्होने ‘ऑफसाईड’ देखी हो उन्हे वो दृश्य याद होगा जब लड़कियों को बस में बैठा कर ले जाया जा रहा .है पर वो अपनी मुश्किलों से बाहर और परे इस फिक्र मे मरी जा रही हैं कि ईरान और अमेरिका के बीच उस फुटबाल मैच को कौन जीत रहा है. जिन्होने इत्तेफाकन कुछ भी ना देखा हो उन्हे पनाही की ये दोनो फिल्में जरूर देखनी चाहिये ताकि वो ये जान सके कि पनाही खुद किस कदर और किस हद तक ईरान से जुड़े हुए हैं! मतलब देशविरोधी कोई भी आरोप इन पर लगाना अजब सी गलत बात लगने लगेगी.

Monday, May 24, 2010

निकानोर पार्रा की कविता

एक तात्कालिक ट्रेन की योजना
(सांतियागो और पुएर्तो मोंत के बीच)

तत्काल की उस ट्रेन में
इंजन खड़ा होगा गंतव्य (पुएर्ता मोंत) पर
और उसकी आखिरी बोगी
सफर के प्रस्थान बिंदु (सांतियागो) में होगी
इस की ट्रेन का फायदा यूं होगा
कि यात्री पुएर्तो मोंत ठीक उसी क्षण पहुंच जाएगा
जब वह चढ़ेगा सांतिआगो में
ट्रेन की आखिरी बोगी में
आगे सिर्फ इतना करना होगा
कि ट्रेन के भीतर ही टहलना होगा
साजो सामान के साथ
जब तक कि पहली बोगी न आ जाए

एकबार इस प्रक्रम के पूरा हो जाने पर
उतरा जा सकेगा ट्रेन से
जो कि हिली तक नहीं है
पूरे सफर में

नोट : इस तरह की ट्रेन
बस एक ही ओर की यात्रा के लिए चलेगी



निकानोर पार्रा

(अनुवाद श्रीकांत का है. श्रीकांत अब दिल्ली आ चुके हैं और नई जगह पर बसने की शुरुआती आपाधापी के बाद इन्होने सुन्दर अनुवादों का “थैंक्सलेस” सिलसिला फिर शुरु किया है.)

Thursday, May 13, 2010

मृत्यु का शीर्षक कहाँ होता है?

कल एक या दो अजीब बातें हुई. बहुत दिनों बाद कल मैं करनाल था और एक साहित्यिक मित्र से किये वादे को नहीं पूरा कर पाने का दुःख मुझे घेर रखा था.यह दूसरा मौक़ा था जब मैंने उनसे कहानी देने का वादा किया और अंततः अपनी व्यस्तताओं के कारण कहानी समय पर लिख पाने में अक्षम रहा. इस बार मैंने सोच रखा था कि कोई वादा खिलाफी नहीं होगी और नवम्बर से ही वो कहानी लिख रहा था, लगभग एक ड्राफ्ट पूरा हो जाने के बाद की बात है, जब मेरा लैपटॉप ही छीन लिया गया.उसके बाद मेरी हिम्मत जाती रही, प्रयास मैंने फिर भी किया पर,जैसा कि डर था, असफल रहा. इधर दूसरी मुश्किल यह आई है कि एक फिल्म प्रोड्यूसर से मैंने अडवांस ले रखा है और अब उसे पूरी स्क्रिप्ट चाहिए.मेरे पास स्क्रिप्ट के नाम पर लिखा हुआ एक पैरा तक नहीं है, कहानी दिमाग में है पर उसे पन्नो तक लाने के लिए जो समय और एकाग्रता चाहिए उसे देने से नौकरी ने समूचा इनकार कर दिया है.मेरे पास दस दिन का समय था जिसमे से दो दिन मैंने यह सोचते हुए बिता दिए हैं कि अरे बाप रे! बस दस दिन का समय है.

कल कई दिनों बाद करनाल था और अपने एकलौते मित्र से मिलाने गया, सोचा कहानी शुरू हो सकेगी. करनाल में यह मेरे एक मात्र मित्र है. नाम मैं इनका नहीं जानता हूँ ना ही वो मेरा नाम जानते हैं.उनकी उम्र नहीं भी होगी तो पचहत्तर की होगी. चाय की दूकान सुबह साढ़े सात बजे खोल बैठ जाते हैं और पंजाब केसरी जैसा अखबार, जिसमे सचमुच में पढ़ने लायक कुछ नहीं छपता है, दिन भर पढ़ते रहते हैं. उनकी आमदनी इतनी कम हो गयी है कि अगले महीने से वो यह अखबार भी बंद कराने वाले हैं. सुबह सुबह चाय पीने की आदत ने इनसे बातचीत चला दी वरना करनाल में किसी से मैं बात ही नहीं कर पाता( अगर बातचीत की परिभाषा से इस तरह की बातो को निकाल दे कि वेटर ज़रा, रोटी लाना, सलाद बिना चटनी के देना, खरबूजा क्या भाव ताऊ? तब तो मेरे दिन अबोले ही निकल जाएँ). पिछले दिसंबर से चाय वाले अंकल से बातचीत शुरू हुई. ये मेरे लिए ठेठ दूध पत्ती (चाय की अमीर किस्म जिसमे सिर्फ दूध और चायपत्ती होती है) बनाते हैं और मुझे हरयाणवी सिखाने का काम भी कर रहे हैं.

कल गया तो क्या देखत़ा हूँ कि दूकान तो बंद है! याद आया कि पिछले हफ्ते मैं दो दिन करनाल था और दोनों ही दिन दूकान बंद थी. मुझे नकारात्मक आश्चर्य हुआ. क्या कारण हो सकता है? मन में खराब ख़याल आया कि कहीं अंकल जी "बाबुल के घर" तो नहीं चले गए? आस पास कोई ऐसी दूकान नहीं जिससे कुछ पूछा जाए.फिर मैं ऑफिस चला गया. घिरी दोपहर में कमरे तक आ रहा था तो देखा, ताऊ दूकान सजा रहा है. आप मानेगे नहीं, मैंने यही सोचा कि पट्ठा मृत्यु से भीड़ कर लौट आया है. वैसे भी इस बूढ़े इंसान की बातचीत में इतना उमंग रहता है कि बनावटी किस्म के शरीफ इनसे खफा हो जाते हैं. आस पास की kमोटर मैकेनिक की दुकानों पर काम करने वाले नौजवानों से यह इंसान काफी खुला हुआ है. मैंने नमस्कार किया. उन्होंने कहा, चाय पिएगा? मैंने कहने को कह दिया बनाओ पर गरमी इतनी ज्यादा थी और गुमटी के बाहर की बरसाती इतनी ताप रही थी कि क्या बताऊँ? चाय पी और अनायास ही टूटी फूटी हरियाणवी में बोल बैठा- इतने दिन दूकान बंद देख ताऊ मैंने यह समझा कि तुम टपक लिए.

तिलमिलाती शक्ल वाली दोपहर में मैंने उस बुजुर्ग की प्रतिक्रया देखी. वो उदास नहीं हुआ और नहीं उसके चहरे पर खुशी का नंगा अतिरेक था. बेहद सामने भाव से उन्होंने मुझे देखा और कहा: अब तो उसी का इंतज़ार है छोरे! और देर तक दूकान के बाहर खाली और तपती सड़क को देखते रहे. हमलोग मृत्यु पर बात कर रहे थे और बजाय उनके, ये मैं था जो डर गया था. उन्होंने अगला सवाल हँसते हुए किया: फिर तू चाय पीने कहाँ जाया करेगा? तू शादी क्यों नहीं कर लेता? तेरी उम्र में मेरे दो दो बेटे थे?' फिर वो बुढाऊ अपनी मजाकिया औकात पर आ गया: मैं लड़की दिखाऊ?” पर मैं उसी आसन्न मृत्यु और उसके डर पर अटका हुआ था. यह कोई नई बात नहीं थी पर मुझ पर या तो लम्बी और गर्म दोपहर का असर था या या अकेलेपन का या अपनी खराब तबियत का या पता नहीं किसका कि शाम तक मैं मृत्यु के ख्याल से उबार ही नहींपाया.

शाम को अम्मा(माँ) से बात हुई. अम्मा उन बेहद ख़ास दो लोगों में से एक है जिनसे मैं लगभग रोज ही बात करता हूँ. फोन पर उसकी आवाज ही ऐसी आयी कि लगा, उसकी तबीयत नासाज है. मैंने मर्ज पूछा तो उसने हंसने की कोशिश करते हुए बताया,"बुढापा". कहने लगी, अब तो चलने चलाने की उम्र ही आ गयी कि जिसमे कुछ ना कुछ लगा रहेगा. आगे बात करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई. यह दोपहर की बातचीत का असर था वरना अब सचमुच में अम्मा की तबियत अक्सर खराब रहने लगी है. दोपहर को मैंने मृत्यु को ऐसे महसूस कर लिया था कि जीवन में पहली बार मैंने सोचा कि क्या पता अम्मा भी ना रही तो? अपनी सारी होशियारी और समझदारी के बावजूद मैं अम्मा के बिना अपने जीवन में कुछ कल्पना भी नहीं कर पाता. मेरे पास इसका नक्शा जरूर बन गया है कि मेरा अजीज दोस्त मेरे साथ नहीं होगा तो क्या होगा.पर अम्मा के बिना.यही सब मेरे सपने हैं कि अम्मा के साथ मौसी के यहाँ जाना है, अम्मा को यहाँ घुमाना है, ये करना है, वो करना है, जागती आँखों के तमाम तमाम स्वप्न.

कल बहुत दिनों बाद मुझे रोने की इच्छा हो रही थी. एक दोस्त से यह सब बताते हुए गला भर आया था. मेरे मुंह से वाक्य नहीं फूट रहे थे. फिर अपनी ज्यादतियां याद आई. कई मौके ऐसे आये जब मैं गलत छोर पर खडा रहा और अम्मा को काफी दुःख हुआ. एक मन हो रहा है कि अभी छुट्टी डाल कर घर चला जाऊं. अगले तीन दिन के लिए घर में लगभग सब जमा हो रहे हैं.पर मुझे अगस्त से पहले छुट्टी नहीं मिलनी है.

एक दूसरा मन यह भी कह रहा कि चूकि मैं स्क्रिप्ट पर काम करने से डर रहा हूँ इसलिए ही शायद दुनिया के सबसे सुरक्षित कोने की याद लगातार आ रही है. वैसे आज फिर मैं अगले चार दिनों के लिए सिरसा, फतेहाबाद और हिसार निकल आया हूँ.

Friday, May 7, 2010

निजार कब्बानी की कविता जो वर्षों पहले निरूपमा के लिए ही लिखी थी

पारिवारिक तानाशाही का शिकार बन चुकी निरूपमा ने अपनी मृत्यु के बाद एक बड़ा काम किया है. विभाजक रेखा खींची है: ढोगियो और पाखंडियों को इतनी आसानी से मंच पर कभी नहीं देखा गया जो उस परिवार के सुख चैन के लिए हो-हल्ला मचा रहे है जिसने, अगर रिश्वतखोरो और दबाव बना कर जीने वालो के लिए उपयुक्त इस समय के सारे तर्कों को मान लें, निरूपमा को कम से कम आत्महत्या करने पर मजबूर किया ही किया. अपनी कुंठित उम्र जी चुके लोग ब्लॉग की दुनिया में नैतिक शुचिता पर गंध मचाये हुए हैं. अकुंठ और युवा पीढी के लिए निहायत ही गैर जरूरी प्रवचनों का परनाला बहा रहे हैं. ऐसे जले समय में महान कवि निजार कब्बानी की यह कविता, सालो पहले लिखी जा चुकी थी पर, अपने होने का कोई मतलब पाने के लिए शायद निरुपमा का इन्तजार कर रही थी. इस कविता को ढूढने और इसके अनुवाद का संयुक्त काम पूजा सिंह का है.

क्रुद्ध पीढ़ी चाहिए

हम एक गुस्सैल पीढी चाहते हैं
हम चाहते हैं ऐसी पीढी जो क्षितिज का निर्माण करेगी
जो इतिहास को उसकी जड़ो से खोद निकाले
गहराई में दबे विचारों को बाहर निकाले
हम चाहते हैं ऐसी भावी पीढी
जो विविधताओं से भरपूर हो
जो गलतियों को क्षमा ना करे
जो झुके नहीं
पाखंड से जिसका पाला तक ना पड़ा हो
हम चाहते हैं एक ऐसी पीढी
जिसमें हों नेतृत्व करने वाले
असाधारण लोग

एक ही पर अनदेखी और अनजानी राह के साथी.

कर्तव्यनिष्ठ और जुझारू पत्रकार स्वर्गीय सुश्री निरूपमा की निर्मम ह्त्या ने लोगो को गहरे तक विचलित किया है. मेरे बॉस की पत्नी जिनका इन बातो से कोई एक ज़रा लेना देना भी नहीं है, जब उन्होंने इसके बारे में सुना तबसे कई बार पूछ चुकीं है, दोस्तों की साझा प्रतिक्रियाये इसका गवाह है. पर अब तक कोई राह नहीं दिख रही है. जो कातिल और दुर्भाग्य से ताकतवर लोग है उनके पास पैसा है, जाति की एकजुटता है, तंत्र का साथ है, संभव हुआ तो रिश्वत के आधार पर चिकित्सको से बयान बदलवाने का दम है पर जो हमलोग है इनके पास कोई राह नहीं दिख रही है. हमने पिटीशन पर दस्तखत किये पर आगे क्या है, इसका कोई अता पता नहीं है.

पर राह की तलाश में ऐसे अनेक लोग लगे है. इन्ही में से एक संदीप है..जो सम्बंधित लोगो से संपर्क में है और अपनी बात उन्होंने यहाँ तथा इस प्रकार रखी है.

Wednesday, May 5, 2010

निरूपमा की ह्त्या और महान परिवार की भारतीय परिकल्पना

जीवन में बहुत कम ऐसे मौके आये जब अपने निर्बल और नाकारे होने पर बेहद अफसोस हुआ, उन्ही गिने मौकों में से एक महान भारतीय परिवार द्वारा निरूपमा की हत्या भी है. जबकि निरूपमा से मेरा कोई परिचय नहीं रहा पर जब से यह खबर सुनी तब से किसी भी साथी से बातचीत करने में डर लग रहा है, क्योंकि सभी जेनुइन दोस्तों में इस धतकर्म की उदास चर्चा और कुछ न कर पाने का घायल दुःख है. टी.वी पर इस खबर को देखा नहीं जाता. अखबार अच्छे है जो कि स्थानीय विज्ञापनों की गंदी लालच के चलते इस खबर को एक ख़याल भर जगह भी नहीं दे रहे हैं.
सच यह है कि इस लोमहर्षक हत्याकांड का जिक्र छिड़ते ही मन में अजीब सी हूक उठ रही है. अगर तकनीकी तौर पर भी यह सच है कि निरूपमा ने आत्महत्या की तब भी आप और हम ही नहीं, सभी जानते है कि यह आत्मह्त्या नहीं है. आत्मह्त्या के लिए (अनुकूल) माहौल बनाना भी उतना ही बड़ा अपराध है. इस मुद्दे पर लिखना भी अपराधबोध से ग्रसित कर रहा है, वैसे ही जैसे किसी कसाई को अचानक अपने दायित्व से घृणा होने लगे, जैसे किसी सरकारी नौकर को रिश्वत लेने का अपराधबोध हो. पर कुछ निहायत ही गिरे हुए तर्क हैं जो तथाकथित बुद्धिमानो के कूड़ेदान( मतलब मस्तिष्क) से उठ कर इस घिनोने अपराध में शामिल क्रूर माँ-बाप, परिवार को सही और "बेचारा" ठहराने की गलीज कोशिश कर रहे हैं.

सबसे पहला सवाल कि उनकी इज्जत का सवाल था! वाह से इज्जत! इस परिवार को, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, जानने वाले हद से हद सौ लोग होंगे. परिचित मात्र. सगे संबंधियों की बात करे तो पचास की संख्या भी बहुत होगी. तो ये पचास लोग,अपने जीवन से फुर्सत पाकर, इनकी महान इज्जत पर हँसे ना, इसलिए निरूपमा की ह्त्या कर दी गई/करा दी गई/आत्महत्या की शक्ल दी गई..जो भी कह ले. अगर इन्हें इज्जत आबरू की सच्छे फ़िक्र होती तो ये पाठक महोदय परिश्रम करते और अपने ही बैंक की किसी बड़ी प्रतिष्ठा का हकदार हुआ होता.

एक बार कथाक्रम के मंच से मैंने साठ और सत्तर के दशक में पली बड़ी पीढी की कुछ बेहद संगीन गलतियों की तरफ इशारा भर किया था तो वहा मौजूद बड़े-बड़ो ने मेरा खिलाफ झौं-झौं कर युवाओं के प्रति अपने गहरे(पढ़े - गंदे) सरोकार जताए थे. मेरा पूरा यकीन है कि अपनी कुछेक अच्छाइयो के साथ इस ख़ास पीढी ने सरकारी, धार्मिक और नैतिक तंत्र को निचोड़ने के सारे गलत-सही तरीके इस्तेमाल किये. यह मैं ही नहीं कहा रहा, आप चाहे तो भ्रष्टाचार को लेकर हुए कुछ भरोसेमंद सर्वेक्षणों की आसान मदद ले सकते हैं. और यह मैं पूरे विश्व की बात कर रहा हूँ. इस हत्याकांड में लिप्त परिवार, बेहद अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है, उसी पीढी से सम्बन्ध रखता है.

निरूपमा के पिता का पत्र उसके कुतर्की होने का गवाह है और इस बात का गवाह भी कैसे युवा पीढी का बड़ा परजीवी वर्ग भी उस घटिया पत्र को 'बेचारे' पिता की 'मजबूरी' मानता है. युवा पीढी का यह ख़ास परजीवी वर्ग आसान तरीको की नौकरिया करता है या बिना मेहनत के ही जीवन काटना चाहता है और इसके लिए धोखे इत्यादि देना ही अपने परम कर्तव्य समझता है. झूठ इसका सगा है. ऐसे लोग पूछ रहे है/या धमकी दे रहे हैं- कि तुम्हारी बेटी होती तो क्या करते?

कितने गिरे हुए है ये लोग और कैसे मुझसे अब तक जुड़े रहे है,यह मेरी कायर समझ के बाहर है. काश कि निरूपमा मेरी बेटी होती, जिसने पत्रकारिता को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, और जिसमे यह साहस और विवेक था कि अपना जीवन साथी खुद चुन सके, वैसी बेटी को मैं, बतौर पिता सलाम करता, और खुद उसकी शादी के इंतजाम करता, उसकी खुशियों में शरीक होता. मिलने जुलने वालो को अपनी बेटी से सीखने को कहता- कहता कि सीखो, निरूपमा से, रिश्ते कैसे निभाये जाते है और जिन्हें हम प्यार करते हैं उनके किये लड़ना भी मेरी निरूपमा से सीखो. उन लड़कियों के सामने अपनी इस महान बेटी की नजीर रखता, जो प्रेम के लिए अमीर और शादी के लिए बहुत अमीर लडको की ताक में झपट्टा मारने को तैयार रहती हैं.

शरीर की असंतुष्ट कामनाओं के बीमार ये हमलावर इस प्रश्न को सबसे आखिर में जैविक हथियार की तरह छोड़ रहे हैं कि निरूपमा को प्रेग्नेंट नहीं होना चाहिए था. मेरी परिपक्व राय यह है कि एक बाईस-तेईस वर्षीय सुशिक्षित, कर्मनिष्ट युवती को इस बात का पूरा पूरा अधिकार होना चाहिए कि उसे क्या करना है? इस बात की तस्दीक अभी कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी की है. फिर भी अगर इन तमाम मेढ़को(कुएं के मेढ़को) की तरह इस बात को तवज्जो भी दे कि उसे प्रेग्नेंट नहीं होना चाहिए था तो मैं पलट के पूछता हूँ कि क्या प्रेग्नेंट होने की सजा मौत है? अगर उसके झूठे माँ बाप( माँ की झूठी बीमारी का हवाला देकर धोखे से उसे घर बुलाया गया था) अपनी इज्जत का इतना ही ख़याल कर रहे थे तो उन्हें उसे अपनी सम्पति से बेदखल कर देना था या कोई दूसरी सजा. पर यह भी क्यों?

मुझे डर है कि कोडरमा के पुलिस वाले भी कही माँ बाप को बेचारे ना समझ ले और जांच तोड़ मरोड़ दे जैसा कि आरुशी हत्याकांड में हुआ. बिना बात की शोर मचाती राजनितिक पार्टियों का तर्क समझ में आता है-अन्धकार युग में फंसे ब्राह्मणों वाला वोट बैंक खतरे में पड़ जाएगा. मीडिया से उम्मीद है कि जेसिका लाल हत्या काण्ड की तरह इस मामले को भी वो दबाने ना देंगे. सबसे ज्यादा उम्मीद प्रिय्भान्शु से है. इस केस में किसी एक को खडा होना ही पडेगा, जैसे हरियाणा के मनोज- बबली ह्त्या काण्ड में मनुज की माँ ने निहत्थी पर डट कर लड़ाई लड़ी. उन कातिलो को सजा दिलाना प्रियाभान्शु की नैतिक जिम्मेदारी है.

प्रियाभान्शु को एक सलाह भी कि हम जैसे कितने ही लोग हैं जो उसके लिए हर वक्त तैयार रहेंगे. इस केस में लड़ने के लिए तुम्हे अगर किसी भी आर्थिक सहयोग जैसे, वकील या रिश्वत की आवश्यकता हो तो तुम अकेले नहीं हो. मैं हूँ, मेरे साथ मेरे कई दोस्त है जो बड़ी से बड़ी रकम जुटाने में तुम्हारी मदद करेंगे. You only have to give me call on 09996027953.

मैंने एक वीडियो देखा जिसमे प्रेमी प्रेमिका छुट्टी मनाने किसी नदी किनारे गए है और वहाँ अचानक प्रेमिका को मगरमच्छ पकड़ लेता है. घड़ियाल की पकड़ से किसी को छुडाना आसान नहीं है पर उसकी कोशिश करना हमारा एकमात्र कर्तव्य होना चाहिए. पर जानते हो प्रियाभान्शु उस प्रेमी ने किया? उसने प्रेमिका को बचाने के बजाय अपना वीडियो कैमरा निकाला और उस पूरी घटना को शूट कर लिया. अपनी मरती हुई प्रेमिका को उसने बचाने के बजाय शूट करना उसने ज्यादा उचित समझा क्योंकि उसे इसके काफी पैसे मिले.

तुम ऐसा नहीं करोगे.

मैं भी उस व्यथा को दर्ज करने की कोशिश कर रहा हूँ, जब निरूपमा को पता चला होगा कि उसे झूठ के सहारे बुलाया गया है, जब उसने अपने इज्जतदार भाई के दोस्तों को अपने आस पास पहरेदारी करते देखा होगा, अपने माँ बाप को अपने खिलाफ पाया होगा, और उस आशंका भरे जीवन के हिस्से को भी दर्ज करने की कोशिश कर रहा हूँ जब उस असहाय को शक हुआ होगा कि क्या पता उसके घरवाले, नातेदार उसकी ह्त्या ना कर दें?