Showing posts with label जो गलत है. Show all posts
Showing posts with label जो गलत है. Show all posts

Thursday, November 22, 2012

मृत्युदंड पर : कुछ गौर से कातिल का हुनर देख रहे हैं.


दाग का एक पयाम है : 

" कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना 
   कुछ गौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं." 

आतंकी मीडिया का भय, लोकतंत्र के शवासन वाली राजनीति या कूटनीति या  जनता का अन्धराष्ट्रवाद - इन तीनों में से कोई ऐसी वजह इतनी मजबूत नहीं दिखती जिसे किसी के जान पर बनने दिया जाए. कसाब का अपराध निदनीय और दण्डनीय, दोनों, था. उसकी कार्र्वाई, आज की चालू परिभाषा में,  देश की सम्प्रभुता पर हमला थी, जैसे सत्यजीत राय की फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि वो देश को बदनाम कर नाम कमाते थे. मेरा मधुर तर्क यह है कि जिस देश की आबरू एक फिल्म मात्र से मिट्टी में मिल जा रही हो, उसे मिट्टी में मिलने देना चाहिए. बावजूद इसके, पता नहीं क्यों, ऐसा महसूस हो रहा है कि कांग्रेस ने मृत्युदंड वाली सजा का फायदा उठा लिया. कहा यों जाए, अपने नफे के लिए, हत्या की सत्ताकेद्रित परिभाषा को जरा हिला डुला कर देखें तो, अपराधी के नाम से मशहूर किए गए एक इंसान की हत्या कर दी.

कोई पूछेगा - क्यों ?

अपनी बुलन्द राय यह है कि सजाए-मौत पर तत्काल रोक लगनी चाहिए. बिना किसी लाग लपेट के. आप कैद / उम्र कैद की सजा को कठिन कर दें, बेशक. परंतु अगर फाँसी वाले सजा को ध्यान में रख कर बात करें तो पायेंगे कि देश की सम्प्रभुता पर हमला जितना ही निन्दनीय अपराध राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आदि की हत्या है. इसी देश की अदालत ने स्वर्गीय श्री राजीव गान्धी की हत्या के लिए तीन तमिल युवकों को आरोपी ठहराया, उन्हें सजाए-मौत मिली, उनकी अपील दर अपील खारिज होती गई, राष्ट्रपति ने भी क्षमा नहीं दी और अंतत: अक्टूबर 2011 के किसी तारीख को उनके फाँसी की तारीख तय हुई. भला हो तमिल जन मानस का जिसने अपने प्रचंड विरोधी स्वभाव के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ने ही नहीं दिया. सरकार बहादुर को मुँह की खानी पड़ी. हू-ब-हू यही किस्सा पंजाब में बेअंत सिंह के हत्यारोपी बलवंत सिंह रजवाना पर भी दुहराया गया. उसके मौत का, गालिबन, वह दिन 30 मार्च 2012 तय हुआ था पर लोगों ने उसे फाँसी नहीं चढ़ने दिया तो फिर नहीं ही चढ़ने दिया. सरकार बहादुर, एकदम मुहाविरे की मानिद, धूल चाट गई. क्यों ऐसा हो सका, क्या इसका अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस सरकार के लिए उसके पूर्व प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का कोई मोल नहीं. सामंती शब्दों में, अपने अग्रणी नेताओं का बलिदान व्यर्थ जाने दिया ?

आज दु:ख इस बात का है कि फाँसी की सजा का फायदा कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति के लिए उठा लिया. गुजरात का चुनाव नजदीक है. शीतकालीन सत्र में विरोधियों को चुप करना है. वोटबैंक की राजनीति अगर सकारात्मक कारणों के लिए है तो एक बार विचार किया भी जा सकता है पर फाँसी देकर, हत्या कर, यह राजनीति करना कहाँ तक उचित है ?

यह सारी बातें इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि भारत में फाँसी की सजा सामान्यत: गरीब या कमजोर तबके के अपराधियों को होती है. अगला निशाना अफजल गुरु होगा. उस पर सारे आरोप साबित भी नहीं हो पाए हैं. वह अपराधी है या नहीं, यह एक विवेचनीय मुद्दा है पर जिन कानूनों का सहारा लेकर आज तक कोई रसूख वाला सजायाफ्ता न हुआ, उन्हीं कानूनी जाल में अफजाल पर सारे आरोप साबित नहीं हो पाए हैं, फिर भी, संसद जैसी जगह पर हमले के आरोप में उसे, आनन-फानन शब्दयुग्म को अर्थ देने मात्र के लिए, फाँसी की सजा सुना दी गई है. यह तय है कि ये सरकारें वैसे किसी भी बहुसंख्यक को कभी भी फाँसी की सजा नहीं सुना पाएगी जिसके साथ गलत या सही कोई राजनीतिक पार्टी जुड़ जाए. धनंजय, जो ईश्वर को मानते हैं उनके ईश्वर धन्नजय की आत्मा को शांति दें, के साथ अगर कोई दल आ गया होता तो उसका जघन्य अपराध भी शायद ये सरकार माफ कर देती.  

फाँसी की सजा बन्द हो,इस विशाल उम्मीद के साथ एक छोटी पर वस्तुपरक उम्मीद यह कि,  इन बदमाश सरकारों का अगला निशाना कहीं अफजल न हो. अपराधियों से कोई सहानुभूति हो न हो, घृणा तो बिल्कुल नहीं. सजा हो, अपराध स्वीकार हो और सर्वाधिक वीभत्स सजा -  अकेले कोठरी में जीवन काटने की सजा, अगर दे ही दी जाए किसी को, तो वो किसी मृत्यु से कम नहीं होगी. 

कसाब की इस लगभग जीत पर ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ी एक कथा याद आ रही है : एक आदमी को सजाए मौत हुई. कयामत के दिन उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई. उसने बताया, अपनी पत्नी से मिलना चाहता हूँ. तत्पर लोग पत्नी लिवा लाए. पत्नी अपूर्व सुन्दरी थी. उसके गले मिलते ही, जब तक लोग कुछ समझ पाते,  पति ने पत्नी की हत्या कर दी. अधिकारी ने वजह जाननी चाही. सजायाफ्ता ने बताया, मैं नहीं चाहता था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी पत्नी किसी और के साथ रहे, अब मैं सुकुन से मर सकूँगा. अधिकारी ने गौर से सजायाफ्ता के जवाब सुने, फिर, क्योंकि वह समझदार अधिकारी था, उसने सजायाफ्ता की सजा बदल दी, उसके कान काट लिए और उसे देश निकाला दे दिया गया. चूँकि अब वो मरना चाहता था पर उसे मारने वाला कोई नहीं था. 

......

Monday, November 21, 2011

एक थी इशरत जहां

जब कोई उन्नीस वर्ष का होता है तब  कभी मरने के बारे में नहीं सोचता. समय के मामले में मुझे दुनिया बहुत लम्बी लगती थी. मुझे समय इतना अधिक अधिक लगता था कि सारे काम कल पर छोड़ देता. कबीर के दोहे से अलग मुझे कभी 'आज' ने निराश नहीं किया. अगले दिन पर काम छोड़ना दरअसल एक भोली विलासिता है जो उस उम्र में आ ही जाती है जिस उम्र में इशरत थी जब उसकी  इक्कीस पुलिस वालों ( बड़े अधिकारियों जैसे डी.आई.जी  रैंक के अधिकारी) ने मिलकर हत्या कर दी थी. क्रूर और निर्मम हत्या. 

चालाक लोग कहेंगे कि यहाँ इस घटना के साथ गुजरात सरकार का  नाम लेना गलत है. यह तो सभी राज्यों में होता है. यह चालाकी भरी बात है. सभी राज्यों में जो होता है वह तो इस देश का दुर्भाग्य है पर इशरत जहाँ की हत्या, जिसे कुछ नापाक किस्म के लोग मुठभेड़ या बहुत हुआ तो फर्जी मुठ भेड़ कहेंगे, इस देश पर भविष्य में बरसने वाले दु:स्वप्न की पूर्व सूचना है.    

साम्प्रदायिक तानाशाही और पतित भारतीय नौकरशाही पर हम बाद में आयेंगे पहले 'विकास पुरुष' की इस हत्या से सम्बन्ध को देख लें. इस हत्या के पीछे जो अफवाह रची गई, जिसे 'गौरवशाली' भारतीय मीडिया ने खबर की तरह प्रसारित किया कि यह नौऊम्र लड़की तथा इसके साथी माननीय मुख्यमंत्री 'विकास पुरुष' और 'कॉर्पोरेट टेक्स माफ करने में उस्ताद ' की हत्या करने वाले थे. 
 
यही बात इस घटना को अन्य फर्जी मुठभेड़ों, जो भारतीय पुलिस के दामन में तारों की तरह भरे हुए हैं, से अलग बनाती है. साम्प्रदायिक और तानाशाही शक्तियाँ के काम करने का तरीका यह है. जब उन्हें लगता है कि वे किसी मुद्दे पर फँसने वाले हैं, जैसे चुनाव का समय या कोई अलग मामला, तो वे अपने खिलाफ हत्या की हो रही साजिश का भंडाफोड़ करा देते हैं. जाहिर है, वे होने-वाले-हत्यारे बहुसंख्यक नहीं होते. यह इतिहासविदित है. आप चाहें तो दुनिया के सर्वाधिक सफल तानाशाह स्टालिन तक की जीवनी उठा के देख लें, बाकियों की बिसात क्या. 

इसका दूसरा पहलू है तानाशाह या साम्प्रदायिकता पर अटूट निष्ठा रखने वाले नेताओं का डर. इस खामख्याली डर का सर्वाधिक फायदा 'पतित नौकरशाही' उठाती है. वो अपने नेता के आस पास इस भय की व्यूह रचना करती है और कुछ हत्याओं के बदले में मान सम्मान धन अदि पाती है और लूटपाट भ्रष्टाचार आदि मचाती है. नौकरशाही परजीवी है. नौकरशाही सम्मान की भाषा नहीं जानती. वो अपार शक्तियों से लैस होती है और उसे प्रेम की भाषा दरअसल गुलामों की प्रार्थना लगती है. उन पर नकेल या तो नौकरशाही को ही खत्म कर पहनाया जा सकता है या कड़क, ईमानदार नेतृत्व से, जो स्वप्न सरीखी बात है. 

इशरत के मामले में क्या हुआ यह राज शायद कभी खुल न सके. कुख्यात वंजारा ने क्या किया . जे.सी.पी. (क्राईम ब्रांच) पी.पी.पंडे ने क्या किया, यह हमारी न्यायपालिका शायद ही कभी जान पाए . जहाँ इतने रसूखदार और विज्ञापन बाँटने में सक्षम लोग शामिल हो, वहाँ भारतीय मीडिया से कोई उम्मीद बेमानी ही नहीं आपका अपराध तक है. पर एक बात है. अपराधियों ने  हत्या को मुठभेड़ में बदलने की सारी कोशिशे की होंगी. चाक चौबन्द. अगर ऐसे में हमें इतना ही भर अगर मालूम हो पा रहा है कि इशरत की हत्या, मुठभेड़ नहीं, क्रूर हत्या ही थी तो क्या आप कल्पना नहीं कर सकते कि ऐसा क्यों हुआ होगा ? इसलिए सूचना के बतौर पहले न्यायाधीश तमांग और अब एस.आई.टी ने जो कुछ सामने रखा है, उसका धन्यवाद. 

शासन से डरिये और कल्पनाओं को अपने मन तक रखिए. विज्ञान ने जिस तरह सत्ताओं की मदद की है, कहा नहीं जा सकता कि कल को कोई ऐसा मशीन न आ जाए जो हमारी सोच पर भी नियंत्रण करे. उस समय आप लाचार होंगे पर अभी आप सोच सकते हैं. आप जैसे ही इस मुद्दे पर सोचना शुरु करेंगे, आप पायेंगे कि साम्प्रदायिक तानाशाही का एक समर्थक कम हो गया है. 

कोई इशरत को वापस नहीं ला सकता. इसलिए कम से कम,  अपनी इस सोच को, जिसमें साम्प्रयदायिक तानाशाही का एक समर्थक कम करने में आप सफल हो जा रहे हैं, इशरत को समर्पित कीजिए.      

Friday, January 7, 2011

सात सौ सत्तर लोगों की कैद के बारे में

( कविता के सम्पूर्ण वितान को छूने वाला यह आलेख चन्द्रिका का है. इस आलेख का प्रभाव और इसमें शामिल सूचनायें क्रमश: इस कदर घातक और अनिवार्य हैं कि इसकी ‘चन्द लाईनी’ भूमिका लिखने के मेरे सारे प्रयास असफल रहे..)  

पेशा कुछ नहीं है...

बिनायक सेन के बारे में उतना कहा जा चुका है जितना वे निर्दोष हैं और उतना बाकी है जितना सरकार दोषी है. ९२ पेज के फैसले में तीन जिंदगियों को आजीवन कारावास दिया जा चुका है. अन्य दो नाम पियुष गुहा और नारायण सान्याल, जिनका जिक्र इसलिये सुना जा सका कि बिनायक सेन के साथ ही इन्हे भी सजा मुकर्रर हुई, वरना अनसुना रह जाता. पर जिन नामों और संख्याओं का जिक्र नहीं आया वे ७७० हैं, जो बीते बरस के साथ छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दी गयी, इनमें हत्याओं और यातनाओं को शामिल नहीं किया गया है. जिनमे अधिकांश आदिवासी हैं पर सब के सब माओवादी. छत्तीसगढ़ का आदिवासी होना थोड़े-बहुत उलट फेर के साथ माओवादी होना है और माओवादी होना अखबारी कतरनों से बनी हमारी आँखों में आतंकवादी होना. यह समीकरण बदलते समय के साथ अब पूरे देश पर लागू हो रहा है.
सच्चाई बारिश की धूप हो चुकी है और हमारा ज़ेहन सरकारी लोकतंत्र का स्टोर रूम. दशकों पहले जिन जंगलों में रोटी, दवा और शिक्षा पहुंचनी थी, वहाँ सरकार ने बारूद और बंदूक पहुंचा दी. बारूद और बंदूक के बारे में बात करते हुए शायद यह कहना राजीव गाँधी की नकल करने जैसा होगा कि जब बारूद जलेगी तो थोड़ी गर्मी पैदा ही होगी. दुनिया की महाशक्ति के रूप में गिने जाने वाले देश की सत्ता से लड़ना शायद और यकीनन आदिवासियों की इच्छा नहीं रही होगी, पर यह जरूरत बन गयी, कि जीने के लिये रोटी और बंदूक साथ लेके चलना और जंगलों की नई पीढ़ियों ने लड़ाईयों के बीच जीने की आदत डाल ली.  

अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. मसलन आदिवासियों को जीने के लिये जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिये के लिये जरूरी है माओवादी हो जाना. कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना. सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिये जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना. शहर के स्थगन और निस्पन्दन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल फिर रहे हों.

इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंप पोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गाँवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ. नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिये अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं. जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनीखेज यात्रायें करता कांग्रेस का युवा नेता हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है. तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है.

इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय, उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो. पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र ७४ साल और पेशा कुछ नहीं. बगैर पेशे का माओवादी. शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है. उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिये हर बार ५० से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है. तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में २ माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं. देश के जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें २ या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है. बीते २५ दिसम्बर को चन्द्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी. प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं.

लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केन्द्रीय बिन्दु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका है. नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है. कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कालर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर. क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?

यह खारिजनामा ६ लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा. जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं.

........................
लेखक से संपर्क : 09890987458 ; chandrika.media@gmail.com 
  

Thursday, December 30, 2010

डॉ. बिनायक सेन मामले में स्थानीय मीडिया की सन्दिग्ध भूमिका



 [ इस आलेख को पढ़ते हुए आप बारम्बार यह सोचने पर बाध्य होंगे कि पिछले चार वर्षों से चल रहे इस मामले में मीडिया ने निष्पक्ष भूमिका निभाई होती तो...? मीडिया से उम्मीद तो कुछ स्कारात्मक की रहती है पर निष्पक्षता तो अनिवार्य शर्त होनी चाहिये. छत्तीसगढ़ी मीडिया ने पत्रकार,पुलिस और जज तीनों की शामिल भूमिका निभाते हुए  बिनायक सेन को चार साल पहले ही अपराधी घोषित कर दिया था. प्रस्तुत आलेख उसी गन्दे खेल की एक बानगी है.

आलेख मिथिलेश प्रियदर्शी का है. मिथिलेश चर्चित युवा कथाकार हैं. इनके परिचय का एक मजबूत कोना यह भी  कि एम.फिल. में इनका शोध विषय यह रहा है : छत्तीसगढ़ के अखबारों में मीडिया ट्रायल ( डॉ. बिनायक सेन के विशेष सन्दर्भ में ). इन्हीं सन्दर्भों को उकेरती हुई मिथिलेश की एक कहानी 'बलवा हुजुम' है जो शीघ्र ही ब्लॉग पर दिखेगी.]

                                                       डा.बिनायक सेन का मीडिया ट्रायल


रीब, आदिवासी, मजलूमों के मोबाईल डाक्टर, डा.बिनायक सेन को ताजिंदगी जेल में रखे जाने की सज़ा मुकर्रर की गयी है. फैसले के बाद सब गंभीरतम चर्चाओं में मशगूल हैं. दोषी और उनकी भूमिकाओं की पडताल जारी है. लोकतांत्रिक ढांचे के तीनों खंभे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका इसकी जद में हैं. पर चौथा, जो सबसे शातिर है और इस साजिश में बराबर का हिस्सेदार भी, अब तक इन चर्चाओं से बाहर है. इसने बडी चतुराई से उन अज्ञात षड्यंत्रकारियों की भूमिका अख्तियार कर लिया है जो उजाले में स्यापा के दौरान सबसे जोरदार रूदन पसारते हैं. यह स्थानीय मीडिया है, यानी छत्तीसगढ की मीडिया.

आज की तारीख में भले ही देश के कमोबेश हर हिस्से का मीडिया डा.बिनायक सेन के आजीवन कारावास की सज़ा पर अवाक नजर आ रहा हो, पर राज्य मशीनरी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले छत्तीसगढ की मीडिया ने डा.बिनायक सेन को लेकर प्रारंभिक दौर में ही प्रोपगैंडा का एक जबर्दस्त अभियान छेड रखा था. उस दौरान लगभग खबरें पूर्वाग्रह और प्रोपगैंडा से प्रेरित थीं. क्या पत्रकार, क्या संपादक सब के सब डा.सेन के मीडिया ट्रायल में मुब्तिला थे. पत्रकार तिहरी भूमिकाएं निभा रहे थे. वे पत्रकार भी थे, पुलिस भी और जज भी. खबरों के लिये पुलिसिया स्रोत ही पहली और आखिरी स्रोत था. थाने से निकला वक्तव्य सारे सत्यों से ऊपर था. आरोपी को अपराधी लिखने-साबित करने की होड सी मची थी. मामला ठीक से अदालत भी नहीं पहुंच पाया था कि मीडिया ने अपना एकतरफा फैसला सुना दिया था और डा.बिनायक सेन रातों-रात चिकित्सक से खूंख्वार हो गये थे.

१४ मई २००७ को डा.सेन के गिरफ्तारी के बाद से ही स्थानीय मीडिया प्रोपगैंडा के सुनियोजित काम में लग गया था. १५ मई २००७ को स्थानीय अखबारों ने मोटे-मोटे शिर्षक के साथ खबर लगायी, ‘ पुलिस के हत्थे चढा नक्सली डाकिया’. इसी दिन स्थानीय अखबार हरिभूमि ने लिखा, ‘जिस नक्सली डकिये की तलाश में रायपुर पुलिस दिन-रात जुटी थी, उसे मुखबिर की सूचना पर तारबाहर पुलिस को पकडने में सफलता हासिल हुयी है. बिनायक सेन नामक इस व्यक्ति की तलाश रायपुर पुलिस को ६ मई से थी. माना जा रहा है कि वह जेल में बंद और शहर में गोपनीय रूप से रह रहे नक्सलियों का पत्र वाहक था. उनकी सूचनाओं को बस्तर और दूसरी जगहों में तैनात खूंखार नक्सलियों तक पहुंचाने के लिये इसने अपना अलग तंत्र तैयार कर रखा था. घेराबंदी कर नक्सलियों के इस प्रमुख डाकिए को पुलिस ने धर दबोचा. शुरु से ही यह आशंका थी कि नक्सलियों का ये प्रमुख डाकिया बिलासपुर जिले में कहीं छिपा हुआ है.’ 

इस खबर के बीच में ही उपशीर्षक देकर एक और खबर थी, ‘ नक्सली देखने थाने में लगी भीड’- ‘तारबाहर पुलिस के हत्थे चढने के बाद बिनायक सेन की नक्सलियों के प्रमुख डाकिये के रूप में पहचान हुई. यह खबर पूरे शहर में फैल गई. तारबाहर थाना में नक्सली डाकिये को देखने के लिये लोगों की भीड एकत्र हो गई. लोग उसकी एक झलक पाने के लिये काफी समय तक खडे रहे.’

ऐसी तमाम खबरों में डा.बिनायक सेन के लिये हर जगह ‘नक्सली डाकिया’, ‘नक्सली मैसेंजर’, ‘नक्सली हरकारा’ जैसे विशेषण ही इस्तेमाल किये गये. खबर की भाषा और लहजे को ऐसे बरता गया, मानों गिरफ्तार किये गये शख्स की सार्वजनिक पहचान से सारे अखबार अनजान हों. कई शीर्षकों में बस ‘बिनायक सेन’ भर लिखा गया, ‘बिनायक सेन की पुलिस को तलाश’ या ‘बिनायक सेन गिरफ्तार’. उनके नाम के आगे न ‘डाक्टर’ था, न ‘मानवाधिकार कार्यकर्ता’. एक अपरिचित पाठक के लिये बिनायक सेन का मतलब चोर, बलात्कारी, चाकूबाज कुछ भी हो सकता है. पूरे दो हफ्ते तक डा. बिनायक सेन की चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता की पहचान सुनियोजित तरीके से छिपाई गई.

ह कितनी भारी विडंबना है कि १५ मई २००७ से पहले तक डा.बिनायक सेन को उनकी समाजसेवा और मानवाधिकारों के लिये निर्भिकतापूर्वक संघर्ष के लिये स्थानीय मीडिया में कोई जगह नहीं मिली, और जब उन्हें दुर्भावनावश गिरफ्तार कर लिया गया तो स्थानीय मीडिया इस मामले को लेकर अचानक इस तरह से सामने आया जैसे उसने डा.सेन के नक्सली होने की पूरी पडताल पहले से ही कर रखी हो. यह वाकई अप्रत्याशित था कि विगत तीन दशकों की उनकी सार्वजनिक पहचान का उल्लेख किये बगैर उनपर खबरें लिखी जा रही थीं. खबरों के शीर्षक को अस्पष्ट रखा जा रहा था. और यह सब सचेतन किया जा रहा था.

कई अखबार इनकी गिरफ्तारी के पहले से ही पीयूष गुहा (१ मई २००७ को पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यवसायी) के लिये ‘नक्सली मैसेंजर’ लिख रहे थे. बाद में यही विशेषण डा.सेन के लिये भी प्रयोग किया जाने लगा. ‘छत्तीसगढ’ अखबार १० मई २००७ को लिखा कि बिनायक सेन के खिलाफ पुलिस को राजधानी में नक्सली गतिविधियां संचालित करने की बहुत ठोस जानकारी मिली है. इसी तरह अगले दिन ‘हरिभूमि’ भी पुलिसिया रिपोर्ट के आधार पर यह घोषणा करने में जुटा था कि पीयूसीएल के नेता नक्सली मैसेंजर से मिले हुए हैं. ये अखबार छत्तीसगढ पुलिस के नक्शेकदम पर चल रहे थे. क्योंकि जेल में दस्तावेजों में डा. बिनायक सेन को हार्डकोर नक्सली दर्ज किया गया था. हालांकि तब कई संगठनों ने इसका विरोध किया था कि न्याययिक फैसलों के पूर्व इस तरह के दुष्प्रचार सर्वथा अनुचित हैं.

स्थानीय अखबारों में प्रोपगैंडायुक्त खबरों का सिलसिला चल पडा था. संबंधित हर खबर का ‘फालोअप’ लिखा जाता था. यह अदालती ट्रायल के पहले का ट्रायल था, जिसकी बुनियाद पूर्वाग्रह, भ्रम, दुष्प्रचार और तथ्यहीनता पर केंद्रित थी. प्रोपगैंडा का अभियान चलाने वाले अखबारों में बडे समझे जाने वाले नाम भी शामिल थे. १७ मई २००७ को ‘नई दुनिया’ लिखता है- ‘नक्सली सूची में कई बडे लोग.’ यह खबर किसी कोण से तथ्यात्मक नहीं थी बल्कि एक मुहिम का हिस्सा थी. आगे ३ जून को इसी अखबार ने लिखा, ‘एनजीओ की दो युवतियां लापता.’ यह डा.सेन की छवि को ध्वस्त करने की एक और कोशिश थी. पुलिस ने इसे जबर्दस्ती एक गंभीर मामला बताया था और कहा था कि इस आधार पर इलिना सेन के खिलाफ भी जुर्म साबित किया जा सकता है. गौरतलब है कि जिस एनजीओ (रूपांतर) में काम करने के लिये दोनों लडकियां दिल्ली गयी थीं, उसे इलिना सेन चलाती थी. और तथ्य यह है कि दोनों लडकियों को जिन्हें लापता बताया जा रहा था, वे बालिग थीं. और यदि वे रूपांतर छोडकर कहीं अन्य जगह चली गयीं थीं तो यह सर्वथा उनका फैसला था. पर इस खबर को जिस तरीके से बिनायक सेन और उनके परिवार के खिलाफ गढा गया, वह शर्तिया दुराग्रहपूर्ण और प्रोपगैंडा का हिस्सा था.

१७ मई को ही ‘हरिभूमि’ की खबर थी-‘नक्सली समर्थकों की खैर नहीं’. इसमें खबर जैसा कुछ भी नहीं था. बस बातें बनाकर माहौल को गर्म बनाए रखने की एक कवायद भर थी. खबर के भीतर एक कहानी थी, जिसमें सलवा जुडूम के शुरुआत को उस दिन से माना गया था, जब २००५ में बस्तर में भगवान गणेश की मूर्ति को नक्सलियों ने तोडा-फोडा था और गणेश बिठाने का विरोध कर हिंदू धर्म पर हमला बोला था और अपने खिलाफ स्वंय ही माहौल तैयार कर लिया था.’ सलवा जुडूम की स्थापना की यह एक हास्यास्पद कथा थी. खबर में आगे सफेदपोश नक्सलियों पर ‘राजसुका’ के तहत कार्रवाई की बात कही गयी थी. यानी अखबार भी साफ तौर पर अपना यह मत जाहिर कर रहा था कि डा.सेन पर ‘राजसुका’ के तहत राजद्रोह लगे. इससे स्थानीय अखबारों की मंशा समझी जा सकती है और इनके द्वारा निष्पक्षता बरते जाने की संभावना की प्रतिशतता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.

इसी तरह ९ जुलाई २००७ को ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘धर्मांतरण के आरोप में युवकों की पिटाई’. यह खबर भी सीधे तौर पर प्रोपगैंडा के तहत ‘प्लांट’ किया गया था. इस खबर में लिखा गया था कि डा.बिनायक सेन अपने प्रभाव वाले गांवों में धर्मांतरण करवा रहे थे. इसके लिये उन्होंने कई युवकों को पैसे दिये थे. साथ ही बगरूमनाला में क्लीनिक चलाने के पीछे भी धर्मांतरण ही इनका मुख्य मकसद था. इस कार्य में संलग्न लोग उनसे जुडे हुए हैं. लगातार विभिन्न ग्रामों में इलाज, तालाब, खुदाई एवं पैसे का लालच ग्रामिणों को दिया जाता है. इस बेबुनियाद खबर की कोई सीमा नहीं थी. जाहिर है, इस खबर को डा.बिनायक सेन के चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता वाली छवि को खंडित करने के लिये प्रकाशित किया गया था.

प्रोपगैंडा की इसी कडी में ‘नवभारत’ ने ३ अगस्त २००७ को खबर बनायी-‘बस्तर में बिजली टावरों को उडाने का षड्यंत्र सान्याल ने जेल में रचा’. इस खबर के बीच में एक पासपोर्ट साईज तस्वीर डा.बिनायक सेन की लगी थी. इस खबर में उपरोक्त शीर्षक से संबंधित केवल एक पंक्ति लिखी गयी, शेष लगभग चार कालमों वाले इस खबर में पूरी बात डा.सेन पर केंद्रित थी जिसमें लिखा गया था कि डा.सेन और श्रीमती सेन नक्सलियों से मिले हुए हैं. उनके बीच इनका सक्रिय घुसपैठ है. खबर में डा.सेन के चिकित्सक होने को भी झूठलाया गया था. खबर के बीच में उनकी तस्वीर कुछ इस प्रकार चस्पां की गयी थी जैसे टावर डा.सेन ने ही उडाया हो. यानी कि शीर्षक कुछ, खबर कुछ और तस्वीर कुछ.

स्थानीय अखबार शुरू में डा.सेन को फरार और भगोडा तक घोषित कर चुके थे. जबकि वे कोलकाता के पास कल्याण में अपनी मां से मिलने, बच्चों के साथ गये हुए थे. उन्हें मित्रों से यह जानकारी मिली कि पुलिस के साथ-साथ मीडिया भी उन्हें फरार बता रही है. इसपर उन्होंने फौरन अखबारों से सम्पर्क कर अपनी स्थिति स्पष्ट की थी. अपना मोबाईल नं. भी प्रकाशित करवाया था कि जिन्हें कोई शंका हो, वो बात कर लें.

इस किस्म की खबरों से स्थानीय अखबारों की मंशा साफ जाहिर होती है कि किस तरह डा.बिनायक सेन के खिलाफ शुरूआती दौर से ही माहौल बनाया जा रहा था. ‘हरिभूमि’ अपनी खबरों में एक कदम आगे बढकर यह माहौल तैयार कर रहा था कि इलिना सेन को भी गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए क्योंकि ये सारे जनवादी खतरनाक हैं.

स्थानीय मीडिया की भूमिका पर डा.बिनायक सेन ने भी सवाल उठाया था. स्थानीय मीडिया खासकर अखबार वाले राज्य सरकार से वफादारी निभाने के लिये किसी ऐसे ही मौके की तलाश में थे. और उनका यह रवैया केवल इस मामले में ही नहीं बल्कि इस किस्म के सभी मामलों में स्थायी रूप धर चुका है. जनआंदोलनों, मानवाधिकारों के लिये संघर्ष के प्रति स्थानीय अखबार न केवल उदासीन रहते हैं, बल्कि कई दफा इनके विरुद्ध जाकर बेहद आक्रामक रूख भी अपना लेते हैं. लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता की सेहत के लिये यह कतई चिंतनीय है.

पुलिस और सरकार के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी घोषित करना बेहद आसान होता है. इस प्रक्रिया में यदि मीडिया की पर्याप्त मिलीभगत हो तो मनमाफिक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं. डा.बिनायक सेन के केस में पुलिस और सरकार ने मीडिया की सहायता से यही काम किया. प्रोपगैंडा के लिये ऐसी आधारहीन खबरें ‘प्लांट’ की गयीं, जिससे डा.बिनायक सेन के व्यक्तित्व, छवि और सार्वजनिक कार्यों को न केवल जबर्दस्त क्षति पहुंचे, बल्कि उन्हें सीधे तौर पर नक्सली साबित कर न्यायालय पर भी पर्याप्त दवाब बनाया जा सके. और आज साढे तीन साल बाद जब डा.सेन को आजीवन कारावास की सजा अदालत ने सुनायी है तो इसे राज्य सरकार, पुलिस और वहां की ब्यूरोक्रेसी के षड्यंत्र के साथ-साथ स्थानीय मीडिया के ट्रायल, प्रोपगैंडा और उसके पूर्वाग्रह के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए. और जहां तक न्यायालय की भूमिका का सवाल है, अदालतें राजनीतिक समीकरणों और मीडियाई प्रभाव से निरपेक्ष नहीं होती हैं.
........................................................................ 

लेखक से सम्पर्क:  09096966510 ; askmpriya@gmail.com
मंडेला, सू की और बिनायक की तस्वीर गीत चतुर्वेदी के ब्लॉग 'वैतागवाड़ी' से.

Saturday, December 25, 2010

बिनायक सेन को सजा के फैसले का तथ्यपरक विश्लेषण .. ..और पाश की एक कविता..


  (  सत्ता की हर काली करतूत पर एक पोस्ट लिख देना भी अब गलत लगने लगा है. यह एहसास लगातार बना रहता है कि आखिर किससे अपनी बात कही जाय? जैसे कुछ भी करना असम्भव हो गया हो. ठीक इसी तरह का मामला बिनायक सेन और उनके आजीवन कारावास की सजा का है. इस पूरे मामले पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि कुछ और ही वजह है जो बिनायक को यह सजा सुनाई गई है. छत्तीसगढ़ के नये मालिकों और राजाओं के सीने पर कहीं ना कहीं बिनायक सेन और उन जैसे लोग चुभ रहे हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के तरीके ईजाद किये जा रहें हैं.. फिर भी यह पोस्ट इसलिये ताकि कुछ तथ्य आपके जेहन में लगातार बसे रहे और जब भी आप गुलाम मीडिया के जरिये कार्पोरेट्स के आग उगलते शुभचिंतको को सुने तो आप उनकी ‘नेकनीयती’ भाँप सकें.... आलेख अनिल का है और उम्मीद की किरण जैसी यह कविता पाश की है..)   

सिद्धांतहीन फ़ैसला
 
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और जाने माने बाल चिकित्सक डॉक्टर बिनायक सेन को देशद्रोह और साज़िश के आरोप में उम्रक़ैद का फ़ैसला सुनाया गया है. उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के अनुसार, ’यह फ़ैसला भारत की निचली अदालतों में लोगों के भरोसे को कमतर करेगा.’ एमनेस्टी इंटरनेशनल ने वक्तव्य ज़ारी करते हुए कहा है कि डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान स्वच्छ न्याय के अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन नहीं किया गया है और इससे तनावग्रस्त इलाक़ों में स्थितियों के और बदतर होने के आसार हैं.
निर्णय की तारीख़ के कुछेक दिनों पहले अभियोजन पक्ष के वकील अदालत में कार्ल मार्क्स के ग्रंथ पूंजी (दास कैपिटल) की प्रति लेकर आए. उस वकील ने अपनी मूर्खता की हद यह बता कर की कि यह दुनिया की सबसे खतरनाक किताब है और माओवादी इससे भी ज्यादा खतरनाक होते हैं. इस आधार पर वे माओवादी ख़तरे को इंगित करते हुए डॉ. बिनायक पर राजद्रोह और साज़िश रचने का दोषी ठहरा रहे थे. हद तो तब हुई जब डॉ. बिनायक की पत्नी प्रो. इलीना सेन द्वारा दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट को लिखे एक पत्र को अभियोजन पक्ष ने पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के साथ जोड़ दिया. और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क का हिस्सा बताने में जुटा रहा. ये सच्चाईयां भारतीय लोकतंत्र के संकट को और गहरा करती हैं. जहां एक ओर तो घोटालेबाज़ राजनेताओं, आर्थिक अपराधियों, बिचौलियों और व्यवस्थाजन्य नरसंहार के आयोजकों को खुलेआम खेलने की अनंत छूट मिल जाती हैं तो दूसरी ओर मूलभूत ज़रूरतों से वंचित विशाल तबक़े के लिए अपने जीवन और करियर का सर्वश्रेष्ठ लगा देने वाले वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा मुकर्रर कर दी जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह निर्णय सरकार की जन-विरोधी नीतियों की आलोचना का मुंह बंद करने और अन्य लोगों को कड़ा सबक़ सिखाने की राजनीतिक मंशा से प्रेरित है.
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोगों में काफ़ी रोष देखने को मिल रहा है. नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अगर यह झटका देने वाला फ़ैसला है तो न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती भी है कि शोषण और भ्रष्टाचार के कूड़े-ढेर तले दबे भारत के असंख्य लोगों के बीच यह भरोसा कैसे क़ायम रखा जाए कि न्याय के इन ’मंदिरों’ में न्याय सुलभ हो पाएगा? जब शिक्षित, शहरी और नौकरीपेशे वर्ग के लिए समुचित न्याय पाना दिनों दिन एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है तो उन लाखों करोड़ों ग़रीब, ग्रामीणों की कैसी स्थिति होगी जिन्हें छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश के गांवों से किसी तरह के क़ायदे क़ानून के पालन के बग़ैर ही गिरफ़्तार किया जाता है? डॉ. बिनायक सेन का मुक़दमा समूची न्याय प्रक्रिया की एक बानगी मात्र है. मई, २००७ में गिरफ़्तार करने के बाद उन्हें निराधार जेल में बंद रखा गया. लोग जानते हैं कि यह क़दम छत्तीसगढ़ सरकार की इस बदनीयती से संचालित था कि वह पुलिस और अपराधियों के गिरोह सल्वा जुडुम के आलोचकों की ज़बान ख़ामोश करना चाहती थी जिसके लिए डॉ. बिनायक को क़ैद करना अहम हो गया था. डॉ. सेन उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से दो साल बाद ज़मानत पर रिहा हुए थे.
रायपुर में शुक्रवार के दिन जिस वक़्त डॉ. बिनायक सेन पर सज़ा सुनाई जा रही थी वहीं उसी वक़्त  एक प्रकाशक असित सेनगुप्ता को भी राजद्रोह और साज़िश के आरोप में ११ साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई है. इस सज़ा के क्या मानक हैं इसकी चर्चा जनमाध्यमों में कम हुई है. अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है जो क़ानून ही अवैध हों, जो क़ानून संवैधानिक मान्यताओं के सरासर उल्लंघन की बुनियाद पर टिके हों, उन्हें आधार बनाकर दिए गए फ़ैसले कितने न्यायसंगत होंगे! दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर का यह आक्रोश ग़ौरतलब है कि ’यह धोखाधड़ी है.’ डॉ. बिनायक सेन को न्याय के किसी सिद्धांत के आधार पर राजद्रोह और साज़िश का दोषी नहीं ठहराया गया है. बल्कि अपराध को एक ढीली ढाली, दलदलीय  परिभाषा में ढाल दिया गया और फिर न्याय को पदच्युत करके ऐसा किया गया है. ऐसे कठोर निर्णय के औचित्य पर न्यायाधीश ने जैसा संबंध जोड़ने की कोशिश की है वह हैरत में डालने वाला है. क्योंकि डॉ. बिनायक सेन पर लगे आरोपों के लिए यह वक्तव्य किसी प्रमाणिक साक्ष्य का काम नहीं कर सकता.
न्यायाधीश बी.पी. वर्मा ने एक टिप्पणी में कहा है कि “आतंकवादी और माओवादी जिस तरह से राज्य और केंद्रीय अर्ध-सैनिक बलों और निर्दोष आदिवासियों को मार रहे हैं तथा देश और समुदाय में जिस तरह डर, आतंक और अव्यवस्था फैला रहे हैं उससे अदालत अभियुक्तों के प्रति सहृदय नही हो सकती और क़ानून के अंतर्गत न्यूनतम सज़ा नहीं दे सकती.” ग़ौरतलब है कि न्यायाधीश महोदय की इस टिप्पणी का डॉ. बिनायक सेन के मुक़दमे से कोई लेना देना नहीं है. न्याय का सिद्धांत और शासन इसकी इजाज़त नहीं देता कि घटना कहीं घटे तो उसका अभियुक्त किसी और को कहीं भी बना दिया जाए.
प्रशांत भूषण कहते हैं, “उच्चतम न्यायालय ने साफ़ किया है कि राजद्रोह का दोष तभी लगाया जा सकता है जब अभियोजन पक्ष यह साबित करे कि अभियुक्त हिंसा भड़काने या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश में था. यह स्पष्ट है कि यह मामला इस मानक पर खरा नहीं उतरता.” इतना ही नहीं, अदालत में पुलिस द्वारा पेश किए गए गवाहों में से कई पहले ही अपने बयान से मुकर गए हैं और बचाव पक्ष ने जब उनके विवरणों की जांच पड़ताल की तो उसकी भी असलियत सामने आ ही गई. जैसे पुलिस का कहना था कि उसने डॉ. बिनायक सेन के काम की तारीफ़ वाली भाकपा (माओवादी) की एक चिट्ठी बरामद की थी. लेकिन बचाव पक्ष ने स्पष्ट किया कि डॉ. सेन को झूठे फंसाने के लिए ख़ुद पुलिस ने यह चिट्ठी बाद में जोड़ी है क्योंकि ज़ब्त किए गए हर सामान की तरह इस चिट्ठी की बरामदगी में न तो डॉ. सेन के हस्ताक्षर हैं और न ही प्रत्यक्षदर्शियों के.
डॉ. बिनायक सेन पर भाकपा (माओवादी) की मदद करने का आरोप पुलिस ने कथित नक्सली नेता अस्सी बर्षीय नारायण सान्याल से जेल में ३० से भी ज़्यादा बार मिलने के आधार पर लगाया है. बचाव पक्ष ने इस आरोप को यह कहते हुए चुनौती दी कि जेल रजिस्टर में इन मुलाक़ातों का स्पष्ट उल्लेख है. डॉ. बिनायक सेन ने पीयूसीएल के उपाध्यक्ष रहते हुए जेल मे बंद आरोपी के स्वास्थ्य कारणों से भेंट की थी जो कि जेल अधीक्षक की उपस्थिति में होती थी और सारी बातचीत हिंदी में होती थी ताकि वहां बैठे दो अन्य निरीक्षक यह समझ सकें कि क्या बात हो रही है.
उपरोक्त तथ्यों को नज़र अंदाज़ कर दी गई उम्रक़ैद की यह सज़ा न्याय की भावना को हीनतम बनाती है. इसके समर्थन में दी गई जिन कमज़ोर और बौनी दलीलों के आधार पर अदालत ने यह फ़ैसला सुनाया है वे न्याय-व्यवस्था से उम्मीद लगाए लोगों को निराशा की खाई में धकेलती हैं.

 .............................................................................................................

पाश की कविता 
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो हॉस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
...
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है

..................................

Monday, December 13, 2010

जूलियन पॉल असांज के लिये एलिस वॉकर एक कविता समर्पित करती हैं..


असांज पर कुछ भी कहते हुए अमेरिका, स्वीडन या अन्य विकसित देशों का जिक्र इतनी दफा आयेगा और इतने बुरे किरदार की तरह आयेगा कि आप सोचेंगे: क्या यही लोग हैं जो चीनी नागरिक, राजनीतिक कैदी और शांति के लिये नोबेल पुरस्कार विजेता ल्यू जिआबाओ के लिये इतनी लम्बी लम्बी हाँक रहे हैं? टाईम पत्रिका का कवर फोटो यहाँ देने का सिर्फ एक ही मकसद है कि अमेरिका किस तरह असांज से खौफजदा है इसे बार बार बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इतना काफी है देखना कि असांज का मुँह किस देश के झंडे ने बान्ध रखा है.

विकीलिक्स के एडीटर-इन-चीफ जूलियन पॉल असांज के पास ऐसा क्या है जिससे कल का यह नायक( इकॉमोनिस्ट फ्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन अवार्ड, एम्नेस्टी इंटरनेशनल मीडिया अवार्ड आदि से सम्मानित) अब खलनायक बन चुका है? तथ्य यह है कि विकीलिक्स के पास जितनी सूचनायें अमेरिका सम्बन्धित हैं उनमें मात्र छ: फीसद सामग्री ही गोपनीय है.

बलात्कार के जिन आरोपों के तहत असांज को गिरफ्तार किया गया है वे दरअसल छद्म हैं यह किसी से छुपा नहीं. यह तक कि पीड़िता ने भी पहली दफा जब मुकदमा वापस लिया था तो उसके दलील यही थे: यह रजामन्दी से बने सम्बन्ध के दरमियान एक दुर्घटना थी. अब जब सरकारों की मुश्किलें बढ़ने लगी थी तो उस मुकदमें को पुन: शुरु किया गया.

असांज द्वारा किये गये कार्यों को जानना बेहद जरूरी है. वो चाहे कीनिया में राजीनितिक प्रतिद्वदिता में हुई सरकारी हत्याओं का खुलासा हो या अमेरिकी केब्लस का प्रसारण हो, ये सारे कार्य पत्रकारिता के मानक स्तर को और ऊँचा कर देते हैं. असांज ने पत्रकारिता और सूचना प्रसारण सम्बन्धित क्या ही मानीखेज बात कही है: भौतिकी का कोई शोध पत्र लिखने का कार्य हम बगैर पर्याप्त प्रयोग और डाटा के नहीं कर सकते और ठीक यही मानक पत्रकारिता में भी लागू होने चाहियें.

इन्ही जरूरतों के दस्तावेज असांज जमा कर रहें हैं. सत्ता चूकि वे दस्तावेज किसी कीमत पर उपलब्ध नहीं करा सकती इसलिये असांज को हैकिंग इत्यादि जैसे जरा कम नैतिक तरीके अपनाने पड़े और ऐसा कहते हुए भी हमें यह नहीं भूलना होगा कि असांज के उद्देश्य क्या हैं. वार लॉग्स पर टिप्पणी करते हुए वह कहतें हैं: हमें एक ही जीवन मिलता है. इसलिये समय का सदुपयोग और सार्थक इस्तेमाल ही हमारा कर्तव्य होना चाहिये....मैं कमजोरो की ओर से बोलने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखता हूँ..और हाँ हरामजादों(bastards) को कुचलने में भी. जाहिर है, इस गाली का प्रयोग असांजे अभिधा में नहीं कर रहे हैं.

हालिया खबर यह है कि अमेरिका, असांजे पर जासूसी के आरोप लगाकर उनपर मुकदमा चलाने की पूरी तैयारी कर चुका है. अब चूकि एक बार वे गिरफ्त में आ चुके हैं तो कितना आसान होगा अमेरिका के लिये असांज का कुचलना, यह हम देखा करेंगे परंतु किसी नाउम्मीदी से नहीं, इस उम्मीद से कि असांज सही सलामत इस जाल से निकल आयें. यहाँ यह कहना मुनासिब होगा कि असांज आधुनिक युग के नायक हैं हर उस इंसान के, जो सपने देखता है.

पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एलिस वॉकर ( चर्चित उपन्यास ‘द कलर पर्पल’ की लेखिका ) ने अपनी वेबसाईट पर अपनी यह कविता असांज को समर्पित की है, जिसका हिन्दी अनुवाद मनोज पटेल का है:-

मत बनो किसी के दुलारे : एलिस वाकर

(जूलियन असांज के लिए)


मत बनो किसी के दुलारे

रहो बिरादरी से बाहर

अपनी ज़िंदगी के विरोधाभासों को

लपेट लो एक दुशाले की तरह,

पत्थरों से बचने के लिए

और रखने की खातिर खुद को गर्म.

देखो लोगो को

खुशी खुशी पागलपन की गर्त में समाते हुए

करतल ध्वनि के बीच ;

उन्हें तिरछी नजरों से देखने दो खुद को

तुम भी देखो उन्हें तिरछी नजरों से ही जवाब में.

रहो बिरादरी से बाहर ;

खुशी-खुशी एकला चलो

(बेचैन)

या भीड़ भरे नदी के पाटों में

कतारबद्ध हो जाओ

दूसरे पोगा पंडितों के साथ.


किनारे पर एक खुशदिल महफ़िल बनो

जहां हज़ारों बर्बाद हो गए

नुकसान पहुंचाती

अपनी निडर बातों के लिए.

किसी के दुलारे मत बनो मगर;

भले बने रहो

बिरादरी से बाहर

मुर्दों के बीच में

ज़िंदा रहने के काबिल बनो.


अनुवादक से सम्पर्क: (+91) 98385-99333.. manojneelgiri@gmail.com