Thursday, November 22, 2012
मृत्युदंड पर : कुछ गौर से कातिल का हुनर देख रहे हैं.
Monday, November 21, 2011
एक थी इशरत जहां
Friday, January 7, 2011
सात सौ सत्तर लोगों की कैद के बारे में
अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. मसलन आदिवासियों को जीने के लिये जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिये के लिये जरूरी है माओवादी हो जाना. कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना. सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिये जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना. शहर के स्थगन और निस्पन्दन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल फिर रहे हों.
इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंप पोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गाँवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ. नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिये अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं. जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनीखेज यात्रायें करता कांग्रेस का युवा नेता हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है. तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है.
इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय, उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो. पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र ७४ साल और पेशा कुछ नहीं. बगैर पेशे का माओवादी. शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है. उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिये हर बार ५० से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है. तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में २ माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं. देश के जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें २ या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है. बीते २५ दिसम्बर को चन्द्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी. प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं.
लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केन्द्रीय बिन्दु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका है. नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है. कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कालर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर. क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?
यह खारिजनामा ६ लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा. जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं.
........................
लेखक से संपर्क : 09890987458 ; chandrika.media@gmail.com
Thursday, December 30, 2010
डॉ. बिनायक सेन मामले में स्थानीय मीडिया की सन्दिग्ध भूमिका
Saturday, December 25, 2010
बिनायक सेन को सजा के फैसले का तथ्यपरक विश्लेषण .. ..और पाश की एक कविता..
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो हॉस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
...मुझे क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
Monday, December 13, 2010
जूलियन पॉल असांज के लिये एलिस वॉकर एक कविता समर्पित करती हैं..
असांज पर कुछ भी कहते हुए अमेरिका, स्वीडन या अन्य विकसित देशों का जिक्र इतनी दफा आयेगा और इतने बुरे किरदार की तरह आयेगा कि आप सोचेंगे: क्या यही लोग हैं जो चीनी नागरिक, राजनीतिक कैदी और शांति के लिये नोबेल पुरस्कार विजेता ल्यू जिआबाओ के लिये इतनी लम्बी लम्बी हाँक रहे हैं? टाईम पत्रिका का कवर फोटो यहाँ देने का सिर्फ एक ही मकसद है कि अमेरिका किस तरह असांज से खौफजदा है इसे बार बार बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इतना काफी है देखना कि असांज का मुँह किस देश के झंडे ने बान्ध रखा है.
विकीलिक्स के ‘एडीटर-इन-चीफ’ जूलियन पॉल असांज के पास ऐसा क्या है जिससे कल का यह नायक( इकॉमोनिस्ट फ्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन अवार्ड, एम्नेस्टी इंटरनेशनल मीडिया अवार्ड आदि से सम्मानित) अब खलनायक बन चुका है? तथ्य यह है कि विकीलिक्स के पास जितनी सूचनायें अमेरिका सम्बन्धित हैं उनमें मात्र छ: फीसद सामग्री ही गोपनीय है.
बलात्कार के जिन आरोपों के तहत असांज को गिरफ्तार किया गया है वे दरअसल छद्म हैं यह किसी से छुपा नहीं. यह तक कि पीड़िता ने भी पहली दफा जब मुकदमा वापस लिया था तो उसके दलील यही थे: यह रजामन्दी से बने सम्बन्ध के दरमियान एक दुर्घटना थी. अब जब सरकारों की मुश्किलें बढ़ने लगी थी तो उस मुकदमें को पुन: शुरु किया गया.
असांज द्वारा किये गये कार्यों को जानना बेहद जरूरी है. वो चाहे कीनिया में राजीनितिक प्रतिद्वदिता में हुई सरकारी हत्याओं का खुलासा हो या अमेरिकी केब्लस का प्रसारण हो, ये सारे कार्य पत्रकारिता के मानक स्तर को और ऊँचा कर देते हैं. असांज ने पत्रकारिता और सूचना प्रसारण सम्बन्धित क्या ही मानीखेज बात कही है: “ भौतिकी का कोई शोध पत्र लिखने का कार्य हम बगैर पर्याप्त प्रयोग और डाटा के नहीं कर सकते और ठीक यही मानक पत्रकारिता में भी लागू होने चाहियें”.
इन्ही जरूरतों के दस्तावेज असांज जमा कर रहें हैं. सत्ता चूकि वे दस्तावेज किसी कीमत पर उपलब्ध नहीं करा सकती इसलिये असांज को हैकिंग इत्यादि जैसे जरा कम नैतिक तरीके अपनाने पड़े और ऐसा कहते हुए भी हमें यह नहीं भूलना होगा कि असांज के उद्देश्य क्या हैं. ‘वार लॉग्स’ पर टिप्पणी करते हुए वह कहतें हैं: “ हमें एक ही जीवन मिलता है. इसलिये समय का सदुपयोग और सार्थक इस्तेमाल ही हमारा कर्तव्य होना चाहिये....मैं कमजोरो की ओर से बोलने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखता हूँ..और हाँ हरामजादों(bastards) को कुचलने में भी”. जाहिर है, इस गाली का प्रयोग असांजे अभिधा में नहीं कर रहे हैं.
हालिया खबर यह है कि अमेरिका, असांजे पर जासूसी के आरोप लगाकर उनपर मुकदमा चलाने की पूरी तैयारी कर चुका है. अब चूकि एक बार वे गिरफ्त में आ चुके हैं तो कितना आसान होगा अमेरिका के लिये असांज का कुचलना, यह हम देखा करेंगे परंतु किसी नाउम्मीदी से नहीं, इस उम्मीद से कि असांज सही सलामत इस जाल से निकल आयें. यहाँ यह कहना मुनासिब होगा कि असांज आधुनिक युग के नायक हैं हर उस इंसान के, जो सपने देखता है.
पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एलिस वॉकर ( चर्चित उपन्यास ‘द कलर पर्पल’ की लेखिका ) ने अपनी वेबसाईट पर अपनी यह कविता असांज को समर्पित की है, जिसका हिन्दी अनुवाद मनोज पटेल का है:-
मत बनो किसी के दुलारे : एलिस वाकर
(जूलियन असांज के लिए)
मत बनो किसी के दुलारे
रहो बिरादरी से बाहर
अपनी ज़िंदगी के विरोधाभासों को
लपेट लो एक दुशाले की तरह,
पत्थरों से बचने के लिए
और रखने की खातिर खुद को गर्म.
देखो लोगो को
खुशी खुशी पागलपन की गर्त में समाते हुए
करतल ध्वनि के बीच ;
उन्हें तिरछी नजरों से देखने दो खुद को
तुम भी देखो उन्हें तिरछी नजरों से ही जवाब में.
रहो बिरादरी से बाहर ;
खुशी-खुशी एकला चलो
(बेचैन)
या भीड़ भरे नदी के पाटों में
कतारबद्ध हो जाओ
दूसरे पोगा पंडितों के साथ.
किनारे पर एक खुशदिल महफ़िल बनो
जहां हज़ारों बर्बाद हो गए
नुकसान पहुंचाती
अपनी निडर बातों के लिए.
किसी के दुलारे मत बनो मगर;
भले बने रहो
बिरादरी से बाहर
मुर्दों के बीच में
ज़िंदा रहने के काबिल बनो.
अनुवादक से सम्पर्क: (+91) 98385-99333.. manojneelgiri@gmail.com