Wednesday, January 22, 2014

मेक्सिको सिटी के कोने - अँतरे.






अगले दो दिन, यानी शनि और रविवार हमने मेक्सिको सिटी की ज्यादातर महत्वपूर्ण चीजें-जगहें देख लेने में खर्च किये. ऐसा इसलिए भी था की हम जल्द से जल्द ‘मेक्सिको सिटी’ के दायरे से बाहर निकल इकतीस प्रान्तों में बंटे असल ‘मेक्सिको’ से भी मिलना चाहते थे, जो दूर दराज तक छोटे शहरों, कस्बों व गावों के रूप में फैला पड़ा है. मैक्सिको सिटी का क्षेत्रफल लगभग दिल्ली के ही बराबर ठहरता है, और इसे भी एक राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसे ‘दिस्त्रितो फेदेराल दे मेक्सिको’ अथवा ‘सिउदाद दे मेक्सिको (मेक्सिको सिटी)’ के नाम से जानते हैं. यूं, इस शहर को घूमने के लिए हमने यात्री बस से लेकर मेट्रो, टैक्सी, साइकिल तथा ढेर सारी पदयात्रा तक का सहारा लिया. लेकिन ख़ास तौर पर साइकिल का. जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर चुका हूँ, विकसित से लेकर भारत जैसे छद्म विकसित देशों तक के बड़े शहरों में, जबकि यात्रा का पारंपरिक साधन ‘साइकिल’ लुप्तप्राय है और चार, आठ और सोलह लेन की चमचमाती सड़कों के खुमार में मशगूल सरकारें साइकिल सवारों को तीन फीट चौड़ी पट्टी तक दे पाने में आना-कानी किये जा रही हैं, मेक्सिको सिटी इस मामले में एक मिसाल की तरह है. मसलन मेरे दफ्तर के तीन सहकर्मी, जो 5 से लेकर 10 किमी तक की दूरियों के बीच कहीं रहते हैं, काम करने के लिए हर रोज साइकिल से आते हैं. जाहिर है, साइकिल की सवारी इस शहर में वर्ग-विशेष से ताल्लुक नहीं रखती. जबकि हमारे भारत में साइकिल को अपने यातायात का प्रमुख साधन मानने वालों में नगरपालिकाओं के सफाई-कर्मी, विद्युत् –विभाग, एमटीएनएल - बीएसएनएल एवं अन्य सरकारी-अर्धसरकारी संस्थानों में एक-दो साल के कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारी, घर-घर घूम कर चिट्ठियां देने की मजबूरी से त्रस्त डाकिये और कुरियर बॉयज आदि वर्ग मात्र शामिल हैं, जिनकी साइकिलें भी अक्सर इतनी पुरानी होती हैं, मानो वे जल्द ही बीती सदियों के वैज्ञानिक विकास को दर्शाने वाले किसी म्यूजियम में पहुंचकर सज जाना चाहती हों.

खैर, तो हमने भी कम दूरियों को घूम लेने के लिए साइकिलें चुनी. यूं तो यहाँ के लोग एक तयशुदा सुरक्षा राशि देकर साइकिलों की वार्षिक सदस्यता ले लेते हैं और हरेक एक दो चौराहे के अंतराल पर बने साइकिल स्टैंड्स में से किसी से भी एक साइकिल लेकर अपने गंतव्य के करीब वाले साइकिल स्टैंड पर छोड़ देते हैं. जाहिर तौर पर, साइकिलें सरकार मुहैय्या कराती है. हमारे पास वार्षिक सदस्यता के लिए जमा किये जाने वाले सुरक्षा राशि नहीं थी, इसलिए हमने किसी और विकल्प के बारे में पूछा, तो पता चला कि कुछ विशेष स्टैंड्स ऐसे भी होते हैं जो आपके किसी सरकारी पहचान पत्र को गिरवी रखकर दिन भर के लिए एक साइकिल आपको दे सकते हैं. हमने इस तरह का अपना करीबी साईकिल स्टैंड खोजा और स्टैंड इंचार्ज के पास अपने पासपोर्ट रखकर साइकिलें उठा लीं.
तकरीबन पांच किलोमीटर की साईकिल यात्रा, जिसके लिए हर सड़क के किनारे एक सुरक्षित पट्टी बनी हुई है, के बाद हम फिर से ‘सोकालो’ नामक चौक पर पहुंचे. सोकालो तक पहुँचने में हमें यातायात की भारतीय पद्धति के विपरीत, सड़क की दायीं ओर चलने की ज़रा सी आदत हुई, जो कि बहुत जरूरी थी. शायद यूरोप और अमेरिका के सभी देशों में यातायात संबंधी शिक्षा देते हुए बच्चों को यही सिखाया जाता होगा, ‘सड़क पर हमेशा दायें चलें’, जिसका भारतीय रूप ‘बाएं चलें’ होता है.

‘सोकालो’ यानी ‘शहर के मुख्य चौक’ का विस्तृत मैदान अपने चारों ओर क्रमशः कैथेड्रल (प्रमुख गिरजाघर), नेशनल पैलेस, फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट बिल्डिंग, एवं पोर्ताल दे मेर्कादेरेस नामक स्थापत्य से घिरा है, जिनसे सटी सडकें अपने विकास के साथ दूर तक अपनी दोनों तरफ दूसरी अनेक उल्लेखनीय चीज़ें लिए हुए हैं. जिनसे गुजरते हुए जिस पहली चीज से हम रूबरू हुए, वह था ‘पालासिओ दे बेय्यास आर्तेस’. यह पड़ोस के ‘आल्मेंद्रा सेन्ट्रल पार्क’ से सटा श्वेत रंग का विशालकाय स्थापत्य है. यह मेक्सिको सिटी के पुराने ‘तेआत्रो नसिओनाल’ यानी ‘नेशनल थिएटर’, जो कि सन 1901 में ध्वस्त हो गया था, के विकल्प के तौर पर इतालियन वास्तुकार आदामो बाओरी द्वारा बनाया गया, जिसका उद्घाटन ‘मेक्सिकन क्रांति’ की अनेक लहरों के कारण सन 1934 में हो सका. यह पैलेस कलात्मक प्रदर्शनियों के अलावा थिएटर, दृश्य कला, संगीत, स्थापत्य एवं साहित्य से जुड़ी गतिविधियों के लिए भी विख्यात है. यूं तमाम अन्य दर्शनीय चीज़ों के अलावा जो चीज़ यहाँ सर्वाधिक उल्लेखनीय लगी, वो थी थिएटर के प्रमुख मंच में लगा कांच का पर्दा था, जो खुलने के बाद अपनी सतह पर मेक्सिको की घाटी के साथ यहाँ के ‘पोपोकातेपेत्ल’ तथा ‘इस्तक्चिउआत्ल’ नामक दो ज्वालामुखियों के चित्र दिखाता है, तथा जिसे मोड़कर छोटा भी किया जा सकता है.
इसके बाद हम सोकालो के एक कोने से शुरू होते ‘तेम्प्लो मायोर’ (भव्य मंदिर) में प्रवेश किये, जो कि मेक्सिको के स्पानी उपनिवेश बनने से पहले की ‘आस्तेक’ सभ्यता का अवशेष है. आस्तेक काल में भी इस सभ्यता की राजधानी मेक्सिको सिटी वाली जगह पर ही थी, जिसे ‘तेनोच्तित्लान’ नाम से जानते थे. यहाँ उल्लेखनीय है कि मेक्सिको की मूल भाषा ‘नाउआत्ल’ का कोई ताल्लुक यहाँ के वर्तमान में बोली जाने वाली स्पैनिश भाषा से नहीं है. यहाँ के प्राचीन शहरों, कस्बों, प्रसिद्द नदियों, शिखरों और ज्वालामुखियों आदि के आस्तेक (नाउआत्ल) नाम से भी यह स्पष्ट होता है. सोलहवीं सदी के आरम्भ में स्पानियों के द्वारा हुई आस्तेक लोगों की पराजय के बाद तेजी से यहाँ की मौलिक जिन्दगी पर औपनिवेशिक रंग चढ़ता रहा. हालांकि, ‘आस्तेक लोगों की पराजय’, आसानी से नहीं हुई, बल्कि इसमें अनेक चरणों में हुए घनघोर संघर्ष शामिल रहे. ‘तेम्प्लो मायोर’ के अवशेष कहीं न कहीं से उस दीर्घकालिक संघर्ष की दास्ताँ भी हैं.

‘तेम्प्लो मायोर’ वैसे तो आस्तेक लोगों के धार्मिक अनुष्ठानों और बलियों की जगह हुआ करती थी. आस्तेक लोगों के प्रमुख देवताओं में युद्ध के देवता ‘उइत्सिलोपोत्च्ली’ तथा वर्षा के देवता ‘त्लालोक’ थे, जिनके लिए तेम्प्लो मायोर के पिरामिड के शीर्ष पर अलग अलग सीढ़ियों से पहुंचे जा सकने वाले दो चौरे (चबूतरे) आज भी सुरक्षित हैं. ‘तेम्प्लो मायोर’ का निर्माण पहले पहल सन १३२५ में हुआ, जिसमें बाद में छः चरणों में विकास कार्य हुए. यह विकास कार्य अगले राजा की प्रसिद्धि एवं प्रताप का सूचक होता था. इस प्रकार अंत में सन 1521 में स्पानी आक्रमणकारियों ने इसे ध्वस्त कर दिया, लेकिन अवशेष फिर भी रहे. यूं, तेम्प्लो मायोर के विकास और विनाश के सभी महत्वपूर्ण चरण अलग-अलग स्थानों पर अगंरेजी और स्पैनिश भाषा में लिखे हुए हैं.

आस्तेक मिथक के अनुसार ‘तेम्प्लो मायोर’ पृथ्वी नहीं, बल्कि समूचे ब्रह्माण्ड के केंद्र में स्थित है, जहां से ब्रह्माण्ड त्रिविमीय रूप में चार भागों में विभक्त होता है. मिथक के अनुसार ‘मेक्सिका’ अथवा ‘आस्तेक लोगों’ को इस बारे में उनके युद्ध के देवता उइत्सिलोपोत्च्ली ने बताया और साक्ष्य के रूप में नोपाल (मेक्सिको में खाए जाने वाला एक तरह का कैकटस) के ऊपर बैठी चील, जिसकी चोंच से सांप लटक रहा हो, दिखाया. तेम्प्लो मायोर के अन्दर उइत्सिलोपोत्च्ली, जोकि मानव रूप में कभी आस्तेक समुदाय में पैदा हुए थे, के जीवन की विभिन्न अवस्थाएं भी दिखती हैं. न सिर्फ ‘तेम्प्लो मायोर’, बल्कि आधुनिक मेक्सिको सिटी के अनेक हिस्सों में चील के मुंह से लटकती सांप वाली संरचनाएं आज भी दिख जाती हैं. मेक्सिकन स्वतंत्रता के बाद प्रस्तावित संसद भवन के शीर्ष पर भी इस तरह की आकृति रखी जानी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से वह निर्माण कार्य अधूरा ही रह गया, जिसका जिक्र बाद में कभी.

यूं, ‘तेम्प्लो मायोर’ के अन्दर पहुंचे जाने की अनुमति वाले हरेक कोने से भरपूर दो-चार हो लेने के बाद हम उससे सटे म्यूजियम में गए, जहां मंदिर के अनावरण के लिए की जाने वाली खुदाई के जिक्र से लेकर खुदाई के विभिन्न चरणों में मिली अस्थियों तथा पत्थरो की विभिन्न संरचनाएं देखने को मिलती हैं. म्यूजियम के अन्दर आस्तेकों द्वारा चट्टान को काटकर बनाई एक ऐसी मूर्ति भी रखी है जो मनुष्य के तरह की शरीर पर चील की मानिंद पंजे, डैने और चोंच लिए है, तथा आस्तेक मिथक के एक और देवता को दर्शाता है. आस्तेक संगतराशी के अन्य नमूनों में भी चील और साँपों के धड़ के साथ मेंढकों की अधिकता है. मेंढक वर्षा के देवता का प्रतीक था, जो की आस्तेक लोगों के मुख्य रूप से कृषि पर आश्रित होने की पुष्टि करता है.

म्यूजियम से निकल हमने कैथेड्रल यानी प्रमुख चर्च देखा, जो किसी भी दूसरे चर्च की ही तरह की संरचाओं को थोड़ा भव्यतर रूप में संजोये था. इतिहास में इस जगह आस्तेक लोगों द्वारा तेम्प्लो मायोर के अन्दर बलि का शिकार हुए नरमुंडों को सजाया जाता था. सोकालो से उत्तर दिशा की ओर जाती सड़क पर ‘सान्तो दोमिंगो’ नाम के चर्च के अलावा आस पास के एक किलोमीटर के दायरे में कम से कम पांच चर्च और मिले. मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों की तुलना में जो एक चीज़ मुझे चर्च के अन्दर तक हो आने की सहूलियत देती है, वो यह कि चर्च में जाने से पहले आपको जूते नहीं उतारने पड़ते. यह चीज़ हिन्दुस्तान से लेकर मेक्सिको तक एक जैसी लगी और हमने सारे चर्चों के स्थापत्य देख उन्हें डेढ़ से दो सौ साल पहले के काल में लगभग एक ही जैसी संरचना में बना पाया.

आगे हमने सान इल्देफोंसो कॉलेज देखा, जो कि मैक्सिकन म्यूरलिस्ट आन्दोलन का केंद्र हुआ करता था तथा सन 1978 में बंद होने के बाद वर्तमान में एक म्यूजियम और सांस्कृतिक केंद्र भर है. सोकालो के भ्रमण के दौरान हम लगातार जिस एक अन्य चीज़ से गुजरते रहे, वो था सस्ती और अनेक नायब चीज़ों का गतिमान बाजार. हर सड़क के दोनों किनारों पर कोई चटाई आदि बिछाकर सामान बेच रही अनगिन दुकानें, और कान फाड़ती स्पैनिश ध्वनियों में उनकी सस्ती दरों की बोलियाँ. गतिमान इसलिए, कि समय के छोटे अंतरालों पर शहरीय प्रशासन की गाड़ियों की ध्वनि मात्र सुनते ही उस सड़क के दुकानदार चंद सेकेंड्स में अपनी दूकान को समेटकर पीठ पर बोझ लिए जा रहे सामान्य राहगीर बन जाते, और थोड़ी ही देर में किसी अन्य सड़क पर उनकी दूकान सज जाती. चीज़ों की विविधता के आकर्षण में फंसे मेरे साथी मोल भाव और खरीदारियों में व्यस्त हो गए, और मैं उनसे विदा लेकर सोकालो की अन्य खूबियाँ देखने के लिए उनसे विदा लिया.

इस क्रम में मैंने म्यूजियम ऑफ़ नेशनल आर्ट, पालासियो पोस्ताल दे मेक्सिको (प्रमुख डाक घर), देखते हुए ‘तोर्रे लातिनो आमेरिकानो’ पहुंचा. जिस वक्त मैं तोर्रे अमेरिकानो के 182 मीटर ऊंचे टावर से मेक्सिको सिटी देखने के लिए टिकट ले रहा था, शाम बस ढल जाने वाली थी. आस पास के लोगों ने बताया की रात के पहले पहर में ही लोग यहाँ से शहर को देखना चाहते हैं. बहरहाल, लिफ्ट की मदद से टावर के शीर्ष पर पहुँचने के बाद हर ओर जो दृश्य दिख रहा था उससे मष्तिष्क में बस एक ही शब्द पैदा होता, ‘अद्भुत’. पूरे शहर पर बिखरी रौशनी मुझे कुछ ऐसा एहसास दे रही थी, मानों हम बेशुमार नक्षत्रों से भरे ब्रह्माण्ड से चंद मीटर ऊपर खड़े हों. शहर चारो ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ, और पहाड़ों की ढलानों पर भी दूर ऊपर तक टिमटिमाते घर. न जाने कितनी देर तक इस विहंगम खूबसूरती से सराबोर होने के बाद मैं साइकिल लेकर अकेले वापस अपने होटल की ओर रुख किया, जहां के करीबी साइकिल स्टैंड का इनचार्ज दूकान बंद कर घर अपने घर जा चुका था. मुझे निर्धारित समय तक साइकिल वापस न कर पाने के प्रावधान के बारे में नहीं पता था. मैं अपने पासपोर्ट के लिए चिंतित सा साइकिल के साथ होटल आया और साइकिल की सुरक्षा के आश्वासन पाकर उसे पार्किंग में रख छोड़ा. रात भर मुझे पार्किंग में खादी साइकिल अपने पासपोर्ट की जगह याद आती रही.

अगली सुबह हुई, नाश्ता पानी हुआ और हम फिर से निकल लिए. जाहिर तौर पर, सबसे पहले साइकिल स्टैंड तक. इस नए दिन के एजेंडा में जो जगहें थीं, उनके लिए मेट्रो, टैक्सी अथवा बस ही लेना पड़ता, इसलिए साइकिल जमा ही कर देनी थी. मेरा पासपोर्ट स्टैंड इनचार्ज के बैग में सुरक्षित था, लेकिन दिन रहते साईकिल वापस न कर पाने के लिए मुझे दो सौ पेसो का अर्थदंड देना पड़ा. दो सौ पेसो का लगभग अनुवाद भारतीय मुद्रा में नौ सौ रुपयों के आस पास ठहरता है. हमारे अगले लक्ष्य ‘मोन्यूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ यानी ‘मोन्यूमेंट ऑफ़ रेवोलुशन’ की ओर बढ़ते हुए काफी देर तक मेरे मुह में नीम के पत्ते का स्वाद भरा रहा.

जैसा की नाम से ही जाहिर है, मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन मेक्सिकन क्रान्ति के स्मृति चिह्न स्वरुप बना स्मारक है. स्मारक के रूप में जो चीज़ दूर से ही दिखाई देती है, वो एक उत्तल भूखंड के बीच खड़ी एक द्वार जैसी संरचना है, जो कि उस ‘पालासियो नासिओनाल फेदेराल’ (नेशनल फ़ेडरल पैलेस) अथवा प्रस्तावित मेक्सिकन संसद का एक हिस्सा भर है, जो पूरा बन नहीं पाया. मोन्यूमेंट के पास तक जाने का रास्ता बीसियों अस्थाई टेंट्स के बीच से होकर जाता था. ये टेंट्स मेक्सिको के विभिन्न प्रान्तों से अलग अलग मसलों को लेकर आये लोगों के अस्थायी निवास थे, जो हर ओर विश्वविख्यात क्रांतिकारियों के यादगार नारों से सजे पोस्टर लगे हुए थे. चे गेवेरा, सल्वादोर दाली, कार्ल मार्क्स, फिदेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला आदि की तस्वीरों और नारों के बीच महात्मा गांधी भी जहाँ तहाँ दीखते रहे. गांधी के चित्र के साथ उनके एक नारे, जो मुझे लगता है की सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय बुलंद किया होगा, का पोस्टर लगा हुआ था, जिसका हिन्दी अर्थ यह था: ‘यदि क़ानून गलत हो, तो उसकी अवज्ञा ही सही है.’


यूँ इन आस्थाई डेरों में रात गुजारने के बाद सारे प्रदर्शनकारी शहर के विभिन्न हिस्सों में अपनी मांग के साथ निकल जाते हैं. मेक्सिको के एक प्रांत ‘सोनोरा’ से आये एक समूह से बात करने पर पता चला कि प्रदर्शनकारी समूहों में से ज्यादातर सेवा, शिक्षा एवं रोजगार से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों का सरकार द्वारा किये जाने वाले निजीकरण के खिलाफ वहां जमा होते हैं. काफी समय तक, यूं विभिन्न क्षेत्रों से आये लोगों से बात कर बहुत कुछ जानते-बताते रहने के बाद हम स्मारक के अन्दर प्रवेश किये, जहां जाकर यह पता चला कि मेक्सिको का इतिहास अनवरत क्रांतियों का इतिहास है, जिसकी संस्कृति को पिछले चार-पांच दसकों में बनीं अमेरिका-परस्त सरकारें अब लगभग समाप्त कर देने की कगार पर हैं. सन 1810 में शुरू हुए स्वतन्त्रता संग्राम के बाद मिली मेक्सिकन आजादी के बाद जारी सरकारों के विरुद्ध व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने वाली कम से कम पांच महत्वपूर्ण क्रांतियाँ यहाँ हो चुकी हैं. ‘मोंयूमेंतो दे ला रेवोलुसिओन’ उनमें से सन 1910 में हुई क्रान्ति के नायकों, उनकी मांग और योजनाओं, तथा योजनाओं के अंशतः क्रियान्वयन की ज़िंदा दास्ताँ है. नई नीतियों वाली नई संसद की योजना इसी क्रांति की देन थी, जिसके अवशेष रूपी स्मारक के नीचे बने म्यूजियम में इस क्रान्ति के नायकों की प्रतिमाओं के साथ उनके छोटे-बड़े संघर्षों की चित्रात्मक प्रस्तुति मौजूद है. म्यूजियम से ही सटे एक हिस्से में प्रस्तावित संसद की पड़ चुकी नींव के हिस्से भी जस के तस सुरक्षित हैं और संकरे गलियारों से गुजरते हुए उसकी नींव भर में खर्च की गयी कारीगरी एवं कोशिशों को देख सहज ही आश्चर्य महसूस किया जा सकता है.

Sunday, January 12, 2014

मेक्सिकन भोजन और 'सोना रोसा'

( यात्रा / संस्मरण के इस हिस्से में सोना रोसा का वह इलाका जो रोबेर्तो बोलान्यो के नाते नॉस्टेल्जिक करता है )

ऑफिस के काम में दिन भर व्यस्त रहने के बाद लगभग हर शाम आस-पास घूमकर हम खाने के ऐसे विकल्प खोजा किये जो भारतीय व्यंजनों की आदी हमारी स्वादेंद्रिय को सहने लायक लगें, और उनमें सबसे कठिन शर्त उस व्यंजन का शाकाहारी होना साबित होती थी. भोजन की इस तलाश में जो दो चीज़ें हमारे लिए मददगार होतीं उनमें से पहली बात मैक्सिको के लोगों का खाने के मामले में प्रयोगधर्मी होना था, जिसके कारण हमें व्यंजनों की विविधता मिल जाती, तथा दूसरी यह, कि हमारे होटल के आस-पास हर गली में ढेर सारे क्लब्स और रेस्तराँ थे. हम हर रोज कई रेस्तराओं की जांच कर किसी नए में बैठ कोई व्यंजन आजमाते और उसे पिछले दिनों के व्यंजनों की तुलना में बेहतर या बदतर जैसी किसी श्रेणी में रखते हुए अपने आगामी दिनों के आहार के विकल्प के तौर पर दिमाग में नोट कर लेते. यूं शुक्रवार तक आते आते हमें यह मान लेना पड़ा कि इस तरह के प्रयोग के सहारे तीन महीने काट पाना संभव नहीं होगा, और कुछ भी करके चूल्हे-चौके का बंदोबस्त करना ही पड़ेगा.

अब तक हमने जिन व्यंजनों को अपने स्वाद-बोध के लिए दोस्ताना पाया उनमें से पहली चीज़ का नाम ‘ताकोस’ था. ताकोस, मक्के के आटे से बनी रोटी नुमा संरचना जिसे तोर्तियास के नाम से जानते हैं, के बीच हरी सब्जियों का अधपका मिश्रण भर देने से बन जाता था. कुल मिलाकर भारत के महानगरों में फ़ास्ट-फ़ूड वाली रेहड़ियों पर मिलने वाले वेज रोल जैसी कोई चीज़. तोर्तियास, जिसे कि हम अपनी रोटियों के विकल्प के तौर पर क़ुबूल कर चुके थे, ग्रोसरी की लगभग हरेक दूकान में बनी बनायी मिलती है. थोड़ी छानबीन करने पर पता चला कि तोर्तियास पुराने समय से ही मैक्सिको की खाद्य परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्हें पहले ठीक उसी प्रक्रिया से बनाया जाता था जैसे भारत में रोटियां बनती हैं. मतलब भारतीय समाज यदि रसोई के दृष्टिकोण से भी आधुनिक (अथवा सभ्य) होता रहा तो आने वाले पंद्रह बीस वर्षों में शायद भारत में भी बनी बनाई रोटियां ही मिलें, जिन्हें हम आवश्यकतानुसार गर्म करके खा लें. 


यह जाहिर हुआ की मैक्सिको में खाए जाने वाले अन्न कुछेक अपवादों को छोड़कर भारत के प्रमुख खाद्यान्न ही हैं. इसका कारण ग्लोब पर दोनों देशों की सामान भौगोलिक अवस्थिति है. मसलन मैक्सिको का अक्षांशीय विस्तार १४ अंश से उत्तर से तैतीस अंश उत्तर के बीच ठहरता है, जो कि भारत के ६ अंश उत्तर से ३५ अंश उत्तरी अक्षांश के सीमा के अंतर्गत आ जाता है. मतलब यहाँ की जलवायु भारत के कर्नाटक से लेकर पंजाब के बीच के राज्यों की जलवायु जैसी है, जो कि गेहूं, चावल और मक्के के साथ तकरीबन उन सभी फसलों की पैदावार के लिए उपयुक्त है जो भारत में होती हैं. फर्क है तो सिर्फ किन्हीं ख़ास फसलों को प्रमुख खाद्य के रूप में दी जाने वाली वरीयता तथा उनके प्रयोग के तरीकों का. भारत में मक्का मोटे अनाज की श्रेणी में आता है तथा गेहूं की तुलना में उपेक्षित पाया जाता है, जबकि मैक्सिको में ठीक इसका उल्टा है. यहाँ के भोजन का आधार मक्का है, जिसके बारे में यहाँ एक मुहावरा प्रचलित है, ‘नो पाइस सिन माइस’ अर्थात ‘मक्का नहीं तो देश नहीं’. वहीं अगर मैक्सिकन चावल की बात करें, तो यहाँ के चावल सुगंधहीन तथा अपेक्षाकृत मोटे होते हैं. मसालों में सबसे प्रधान तत्व लाल मिर्च होती है, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च आदि उसके बाद आते हैं.

पांच दिनो के दफ्तरी काम और खाने पीने के बीच जिस एक दूसरी चीज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर घसीट लिया, वह था ‘सोना रोसा’ नाम का इलाका. पहली दफा कानों में पड़ने के साथ ही यह नाम मुझे कुछ जाना-सुना सा लगा. कहना न होगा कि मैक्सिको में कदम रखने की अगली सुबह से ही जिस एक लेखक को मैं हर मोड़ और चौराहे पर याद करता रहा, वो थे रोबेर्तो बोलान्यो. ‘द सैवेज डिटेक्टिव’, ‘एम्यूलेट’, ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’, ‘दी रोमांटिक डॉग्स’ जैसी किताबों की तफसील से गुजरते हुए शरीर पर लगातार सरकती जा रही रेशमी चादर सा जो एक मखमली एहसास होता था, मैक्सिको सिटी में चलते-भटकते मैं हर वक्त मानो उसी एहसास को दोहरा रहा था. थोडा जोर देने पर याद आया कि ‘द सीवेज डिटेक्टिव्स’ का एक किरदार, जो संभवतः रोबेर्तो बोलान्यो के खुद का था, इसी ‘सोना रोसा’ की एक आर्ट गैलरी में काम किया करता था. इसके अलावा बोलान्यो की लिखी मेरी पसंदीदा कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ में भी ‘सोना रोसा’ में एक दन्त चिकित्सक के क्लीनिक का ज़िक्र है. कुल मिलाकर, इतना जान लेने के बाद, कि यह रोबेर्तो बोलान्यो और उनके साथियों, जिनके खून से सिंचे ‘परायथार्थवादी आन्दोलन’ को ओक्टावियो पास सरीखे विश्व विख्यात (नोबेल विजेता भी) कवि के तूफ़ान ने सिर तक न उठाने दिया, के संघर्षों का केंद्र यही जगह है, मैं हर शाम उस ओर निकल जाता. हालाँकि बोलान्यो द्वारा सत्तर के दसक में व्याख्यायित ‘सोना रोसा’ और आज के ‘सोना रोसा’ के बीच  अब बहुत कुछ बदल चुका है. यह जगह अब किसी भी मायने से बुद्धिजीवियों या लेखकों की नहीं रह गयी है. इस बात की पुष्टि मेरे ऑफिस में काम करने वाली ‘तोनी’ ने सत्तर के दसक के ‘सोना रोसा’ की तमाम उन बातों का जिक्र करते हुए किया, जो कि उन्होंने खुद की आँखों से देखा था, तथा जो बोलान्यो की रचनाओं के विवरण से हू-ब-हू मेल खाती थीं. तोनी, जबकि, रोबेर्तो बोलान्यो को जानती तक नहीं थीं. तोनी ने बताया कि सोना रोसा के रेस्तराओं में बैठे लेखकों और बुद्धजीवियों ने इस जगह को उस समय के मैक्सिको के समाज की तुलना में काफी आधुनिक बना दिया, लेकिन धीरे-धीरे यहाँ से लेखक और बुद्धिजीवी जाते रहे, बच गयी तो कोरी आधुनिकता.

वैसे तो अपने आरामदायक मौसम के अलावा लोगों के जीवन व्यापार नजरिये से भी मेक्सिको सिटी मुझे एक गज़ब का रूमानी शहर लगा, लेकिन प्रेम के उन्मुक्त उत्सव की जगह ‘सोना रोसा’ ही लगी. इसका विस्तार रेफोर्मा की मुख्य सड़क से ‘इन्सुर्खेंतेस’ नाम के मेट्रो स्टेशन को जोड़ने वाले मार्ग के दोनों ओर है, जिसमें कदम कदम पर क्लब्स, बार और रेस्तराँ अंटे पड़े हैं.

तकरीबन आधे किलोमीटर में फैली इस सड़क पर गाड़ियों का चलना मना है और हर बीस पच्चीस मीटर की दूरी पर बैठने के लिए बेंच आदि लगे हुए हैं. यूं तो दिन के वक्त भी यहाँ प्रेमी जोड़ों की आवाजाही लगी रहती है, लेकिन शाम होने के साथ ही उनके लिए रौनकें बिछ जाती हैं. पूरा इलाका गलाबाहों में हौले हौले टहल रहे या फिर आलिंगनबद्ध जोड़ों से भरा होता है. एक ऐसे देश, जहाँ की राजधानी तक में एक अदद महिला दोस्त के बराबर में टहलते हुए भी आपको भद्दी और अश्लील फब्तियाँ सुनने को हर वक्त तैयार रहना पड़ता हो, से आने वाले हम लोग चुम्बन और आलिंगन में संलग्न जोड़ों को देख मन ही मन दोनों देशों की तुलना करने को मजबूर हो जाते. शुरुआती दिनों में यह देख वाकई हैरत होती कि आस-पास हो रही सैकड़ों लोगों की आवाजाही के बीच ये जोड़े इतनी सहजता से आलिंगन और चुम्बन कैसे कर पाते हैं? लेकिन चंद रोज में, पार्क से लेकर सड़क और मेट्रो तक में ऐसे प्रेमरत जोड़ों, तथा उनकी गतिविधियों से लोगों का कतई प्रभावित न होना देख यह समझ आ गया कि प्रेम के लिए ऐसा सहज वातावरण देने में यहाँ के लोगों, यहाँ के समाज का भी बड़ा योगदान है. सभ्यता के पायदानों पर चढ़ते ये कम से कम वहाँ तक तो पहुँच ही चुके हैं जहाँ यह स्वीकार किया जा सके कि प्रेम इंसान की स्वाभाविकता है तथा इसकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए दो प्रेमियों को राष्ट्र के संविधान अथवा जनता से कोई अतिरिक्त अनुमति लेना अनिवार्य नहीं. यूं प्रेम के इस खुले माहौल, जो कि कम से कम मैक्सिको सिटी नामक बड़े शहर में हर ओर एक जैसा सहज है, के बीच जो चीज़ वर्तमान ‘सोना रोसा’ को सबसे अलग बनाती है, वह है समलैंगिक जोड़ों का प्रेम. विपरीतलिंगी जोड़ों की तादाद से कुछ ही कम संख्या में समलैंगिक प्रेमी भी यहाँ प्रेमरत दिखाई देते हैं. शहर के बाकी किसी हिस्से की तुलना में सिर्फ इसी जगह समलैंगिकों की जमघट देखकर यह साफ़ होता है कि ऐसे संबंधों को मैक्सिको के व्यापक सामाज द्वारा स्वीकृति मिलनी अभी बाकी है.

इस तरह, सोना रोसा से ठीक ठाक तरीके से वाकिफ हो जाने के बाद मैं इस बात पर भी आश्वस्त हो गया कि बोलान्यो की लिखी मेरी प्रिय कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंत, जो कि एक क्लब में शुरू होने वाली लड़ाई के साथ होता है, भी कहीं न कहीं इसी इलाके के किसी क्लब में घटित किसी घटना से प्रेरित, या उस पर आधारित होगा. आमिर के अलावा हमारे एक दूसरे सहकर्मी अंकुर ने भी जब मैक्सिको की ‘क्लब लाइफ’ देखने की इच्छा जाहिर की, तो उस कथा में व्याख्यायित माहौल को करीब से देखने-समझने की मेरी इच्छा और भी मजबूत हो गई.

शुक्रवार की शाम को ही पक्का कर लिया गया और हम एक रेस्तराँ में ताकोस खाने के बाद धीरे धीरे एक के बाद दुसरे क्लब में ताक झाँक शुरू कर दिए. बता दूँ, कि क्लब क्या चीज़ होती है, असल मायनों में हममें से तीनों को ही नहीं पता था. दो चार क्लब्स में झाँक लेने के बाद हमें पता चला कि कोई भी क्लब बेहद महंगी कीमतों की शराब और सिगरेट्स के बीच नाचने-गाने की जगह है. हम जिस भी क्लब की दहलीज़ लांघने जाते, हमसे क्लब में प्रवेश करने के लिए फीस मांगी जाती. हम एक नज़र में क्लब के अन्दर के माहौल का जायजा लेते, और फिर प्रवेश शुल्क की तुलना में उसे असंगत पाते हुए अगले क्लब तक पहुँच जाते. सबसे ज्यादा आपत्ति मुझे ही रही, जो शराब तो बर्दाश्त कर सकता था, लेकिन सिगरेट की हर्बल गंध में मेरा दम घुटने लगता. मतलब मैं तसल्ली से बैठकर इस नए तजुर्बे को जीना चाहता था, भले ही प्रवेश की फीस औरों की तुलना में अधिक लग जाय. इस तरह चंद घंटे की माथापच्ची के बाद, हम एक काफी बड़े से दीखते क्लब ‘एलीट’ की ओर बढ़े और सहमे क़दमों से सीढियाँ चढ़ने लगे. सीढ़ियों से चढ़-उतर रहे लोगों के महंगे और सलीकेदार पहनावे देख हमें इस बात का शंशय होता रहा कि कहीं हमारी जेबें यहाँ का प्रवेश शुल्क देने भर में ही खाली न हो जाएँ. लेकिन ऊपर जाने, और एक अर्धनग्न वेट्रेस द्वारा हमें बुलाकर एक टेबल दिए जाने तक हमसे किसी भी तरह की राशि नहीं माँगी गई. हमारे ठीक सामने एक मंच था, जिस पर ओर्केस्ट्रा जैसे बंदोबस्त के बीच खूब सारी रौशनियाँ बरस रही थीं.
क्लब के आधे से अधिक टेबल्स पर लोग विराजमान थे, लेकिन जिस चीज़ ने हमें सबसे ज्यादा हतप्रभ किया वो थीं आस पास घूम रहीं लडकियाँ, उनकी भंगिमाएं और शरीर पर बमुश्किल दिख रही कपडे जैसी कोई चीज़. एक लडकी ने हमारी टेबल पर लाकर मेन्यू कार्ड रखा और बारी बारी से हम तीनों की आँखों में कुछ इस तरह झाँक ली, की हममे से कोई भी उसमें अपनी बिछड़ गयी पहली प्रेमिका को खोज ले. ऐसा कतई नहीं था कि हम किसी बेहद खूबसूरत लड़की से मिलने वाले ऐसे अप्रत्याशित बर्ताव के प्रति पहले से सतर्क थे अथवा कोई धारणा बनाये हुए थे, लेकिन वह लडकी बारी बारी से हम तीनों को आजमाकर, हमें अपनी पेशकश के सामने असहज पाते हुए, दूसरे टेबल की ओर बढ़ गयी. वहां बैठे युवक ने उसकी भंगिमाओं का सम्मान कर उसे हलके से सहलाया और वो उनकी गोद में विराजमान हो गयी. इस बीच हमने मेन्यू कार्ड से देखकर दो सॉफ्ट ड्रिंक और एक साइडर का आर्डर दे दिया था. हमारे ड्रिंक्स के आने के साथ ही मंच के बैकग्राउंड से स्पैनिश में घोषणा हुई और क्लब के अन्तःद्वार से निकल हमारे पास से गुजरती दो युवतियां मंच पर आ गयीं. संगीत चालू हुआ और वो नाचने लगीं. कुछेक मिनट के नृत्य के बाद ही उनमे से एक लडकी थोड़ी दूर से इशारा कर रहे एक जनाब की ओर चल पड़ी और उसी संगीत की धुन पर उनके शरीर पर लिपटने लगी. मंच पर नाच रही दूसरी युवती ने संगीत की तीव्रता बढ़ने के साथ एक एक कर शरीर से अपने कपडे कम करने लगी. हम तीनों ने आँखों ही आँखों में यह तय कर लिया कि हमारे सहज और गंभीर बने रहने की सीमा अब यहाँ समाप्त होती है. ग्लास की तली में अभी थोड़ी ड्रिंक बची ही थी, की हमने बिल मंगाकर भुगतान कर दिया. मेज से हमारे उठने तक मंच पर नाच रही लडकी पूरी तरह से नग्न हो चुकी थी. एक बार नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की ओर रुख करने के बाद हममे से किसी ने भी पलटकर पीछे नहीं देखा.
हमें प्रेम की सहजता और अश्लीलता के बीच भेद समझ में आ गया था. यकीनन, मुझे फिर से बोलान्यो की कहानी ‘लास्ट एवेनिंग्स ऑन द अर्थ’ का अंतिम दृश्य याद आता रहा.