Saturday, August 14, 2010

गोदान की आत्मा का सर्वोत्तम अनुवाद है पीपली [लाईव]

इस अच्छी फिल्म में होरी एक पात्र है. ईंट के भट्ठे के लिये बन्जर जमीन से मिट्टी खोदकर बेचता है. पूरी फिल्म में गड्ढा गहरा होता जाता है सिर्फ इसलिये कि अंत में होरी उसी गड्ढे में मर जाएगा. पूरी फिल्म में एक ही डायलॉग होरी के जिम्मे आया है जिसमें वो अपना नाम बताता है: होरी. एक शब्द उसे कहानी का प्रमुख पात्र बना देता है. होरी नाम का शख्स राकेश नाम के चरित्र में इतने संजीदा बदलाव लाता है कि नत्था के बदले खुद ही मारा जाता है और एक असम्वेदनशील एंकर/रिपोर्टर नन्दिता मलिक एक वाक्य में (‘राकेश फोन नहीं उठा रहा’) अपने मन-मष्तिस्क से ‘डिलीट’ कर देती है.

बिना किसी लाग लपेट के सुनिये: पीपली लाईव इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. मौलिक भी. फिल्म टीम के ‘कंसंर्स’ कितने गहरे हैं इसका अन्दाजा एक ही वाक्य के लगातार दुहराव से पता चलता है: भारत की सत्तर फीसदी जनता गरीब है. इस वाक्य के अनेक अर्थार्थ फिल्म में इतनी बार दुहराये गये हैं कि ये पंक्ति कविता की गम्भीर शक्ल ले लेती है.

भारतीय ग्राम्य जीवन की दुश्वारियों को इस फिल्म ने आत्मा की तह तक जाकर उठाया है. यह एक ऐसी ‘हिन्दी’ फिल्म है जो पिछले दिनों आये एक चुटकुले(आप जरूर उसे बड़ी खबर कहेंगे) को नोचकर नंगा कर देती है जिसे अंग्रेजी और हिंग्रेजी के अखबारों ने मशरूफियत से छापा: भारत में अमीरों की संख्या गरीबों से ज्यादा. भारत के गाँव के समानान्तर यह फिल्म एक अन्य महत्वपूर्ण विषय उठाती है और वह है: असहाय और दयनीय अवस्था को जा पहुंचा मीडिया तंत्र.

यह फिल्म इस खातिर हमेशा याद रखी जायेगी कि इसने आज के तारीख में जो हाल मीडिया का है उसे सच्ची सच्ची उकेरा. हाय री मीडिया ! कमजोर, खस्ताहाल और झूठी खबरों के सहारे जी रही मीडिया. जब तक प्रशासन, सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ नत्था के खेल में शामिल नहीं होतीं तब तक तो लगता है कि एलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास अकूत ताकत है, वो कुछ भी कर सकती है. परंतु जब मामला गम्भीर होता दिखता है तो सरकार का एक आदेश आता है: मीडिया को दूर रखो और क्या आप यकीन करेंगे इस एक मात्र वाक्य के बाद फिल्म में मीडिया का हाल पिद्दी के शोरबे के बराबर भी नहीं रहता. हद है! तब लगता है कि इतने उंचे उंचे मीडियाकर्मी इसी बात से खुश हो लेते हैं कि उनके कहने से रेलवे में उनका वेटिंग टिकट कन्फर्म हो जाता है. व्यक्तिगत उपलब्धियों जैसे सस्ते या मुफ्त का फ्लैट या घर पा जाना ही अपने जीवन की चरम उपलब्धि मानने वाले मीडियाकर्मी अपनी कमजोरी जानने तथा उसे दूर करने के लिये भी इस फिल्म को जरूर देखें. यही इनकी खुशी के लिये काफी है कि नत्था के ट्टटी का फुटेज इनके पास है. ये कद्दू में ओम को सबसे उर्जावान विषय मानते हैं. प्रेस कान्फ्रेस में उपहार मिलने की लत से जूझना भी इन्हे कठिन लगता है.

फिल्म के एक दृश्य से कितना कुछ स्पष्ट हो जायेगा: एक नेता नत्था के घर आता है – भाई ठाकुर. वो घर के बाहर सारे गूंगे कैमरों के सामने उसे धमकी देता है कि दो दिन के भीतर उसने आत्मह्त्या नहीं किया तो भाई ठाकुर नत्था के बड़े भाई बुधिया की हत्या कर देगा. वो दोनो डरे हुए हैं. कैमरामैन दूर से इस बात चीत के दृश्य को शूट करने में लगे हैं पर उस एक आदेश के बाद मीडिया वालों को इतना दूर फेंक दिया गया है कि उन तक आवाज आ ही नहीं सकती और इसी का फायदा भाई ठाकुर जैसे लोग उठाते हैं. वो मीडियाकर्मियों के पास आकर ठीक उल्टा बयान देता है कि नत्था नहीं मरेगा और वाह री मीडिया! जो इस झूठ को बिना किसी पड़ताल के ‘एक्सक्लूसिव’ बना देता है.
इतना कुछ कहते हुए भी मैं आपको वही बता रहा हूँ जो कुछ इस फिल्म में मीडिया को लेकर सकारात्मक है. आगे आप खुद होशियार हैं..

सबसे जरूरी बात सबसे आखिर में. फिल्म का नायक पात्र स्त्री है. नत्था की पत्नी: धनिया. जीजिवषा का मूर्त रूप. उसके ही उलाहनों तानों से डर कर घबराकर घर के पुरुष कर्ज वापसी के प्रयास शुरु करते हैं. पूरी फिल्म में यह औरत कुछ ना कुछ काम करते हुए दिखाई देती है. यहाँ तक कि जब अपने पति के मृत्यु के बारे में जानकर उदास होना सबसे अनिवार्य उम्मीद होती वहाँ भी वह अपने जेठ को पानी दे रही होती है, अपने बच्चे के बटन टॉक रही होती है.

फिल्म देखते हुए आप खूब हंस रहे होते हैं पर फिल्म खत्म होते ही आप अपनी हंसी को ही राकेश का हत्यारा मानने लगते हैं और अगर ठीक उसी वक्त एकांत मिल जाये तो आप रोने भी लगें.

एक बेहतरीन फिल्म के लिये अनुषा रिजवी तथा महमूद फारूकी को बधाई.

फिल्म की रीलिजिंग डेट भी क्या ही खूब है. पन्द्रह अगस्त के पास.(हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एक सरकारी विज्ञापन की माने तो भारत का गणतंत्र दिवस). इस फिल्म को जरूर देखिये.

6 comments:

Unknown said...

aapne bhi antaratma ke sath film dekhi, hum bhi dekhenge.thanx

सागर said...

आपने बिलकुल अलग तरीके से नए अंदाज़ में समीक्षा की है, शुक्रिया

सुशीला पुरी said...

कितनी सुंदरता से लिखा चन्दन आपने ! अब कल ही देखती हूँ .... ।

Rahul Singh said...

आशा है पीपली में छत्‍तीसगढ़ akaltara.blogspot.com पर देखना आपको रोचक लगेगा.

चण्डीदत्त शुक्ल said...

त्रासद किंतु सत्य. तीखी फ़िल्म उतनी ही तीखी समीक्षा.

Aparna Mishra said...

I also saw movie yesterday....Chandan!!!! you explained very nicely about the movie....Its complete Satirical movie, in which every one is covered like Media, politicians, beaurocrats, high authority people.... But I found the end of the movie quite weak....Last 10 min were not as good as the whole movie moves.....

Its a must watch for everyone, but there are definitely few flaws & the end is one....Acting is definitely appreciable of Natha's Mother & wife, there conversation binds u all tym....U can't stop laughing in the movie, but ends u with a thoughtful mind.......