Wednesday, November 24, 2010

मनोज कुमार झा की नई कवितायें

एक ऐसे समय में जब नाखुदाओं ने यह मान लिया हो कि बेरोजगारी जैसी घातक मुश्किलों पर जितना लिखा जा चुका उसका जिक्र भर काफी है या कि उन तकलीफों को दर्ज करने के नये सारे बिम्ब खो चुके हैं वैसे में मनोज की यह कविता.. बिना पैसे के दिन.... मनोज की तीन कवितायें यहाँ सहर्ष प्रस्तुत हैं..

बिन पैसे के दिन

ऐसे ही घूमते रहना काम माँगते धाम बदलते
पॉलीथीन के झोले के तरह नालियों में बहता
कभी किसी पत्थर से टकराता कभी मेढ़क से
इस कोलतार के ड्रम से निकल उस कोलतार के ड्रम में फँसता

कभी नवजात शिशु की मूत्र-ध्वनि सी बोलता
कि आवाज से सामने बाले की मूँछ के बाल न हिले
कभी तीन दिन से भूखे कौए की तरह हाक लगाता
कि कोई पेड़ दो चार पके बेर फेंक दे

पुजारी को तो यहाँ तक कहा कि आप थाल
में मच्छर भगाने की चकरी रखेंगे तो
उसे भी आरती मानूँगा और मनवाने की कोशिश करूँगा
बस एक बार मौका दे दें इस मर्कट को
कसाईवाड़ा गया कि मैं जानवरों की खाल गिन दूँगा
आप जैसे गिनवायेंगे वैसे गिनूँगा आठ के बाद सीधे दस
हुजूर! आप कहेंगे तो मैं अपने पाँच बच्चों को दो गिनूँगा

रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और
सब्जी मुझसे मेरी कीमत पूछती है
मैं क्या कर रहा हूँ !
काम माँग रहा हूँ या भीख
या उस देश में प्रवेश कर गया हूँ
जहाँ दूर देश से आयी भीख का हिस्सा चुराकर कोई मुकुट पहन सकता है
और जिसके घर का छप्पर उड़ गया
वो अगर कुछ माँगे तो उसकी चप्पल छीन ली जाती है।

इतने लोगों से काम माँग चुका हूँ इतने तरीकों से
कि अब माँगने जाता हूँ तो ये लोग ताड़ के पेड़ पर बैठे
गिद्ध की तरह लगते हैं।
जैसे वेश्याओं को एक दिन सारे मर्द
ऊँट की टाँग की तरह दिखने लगते है.
.................................

त्राहि माम

शीशे आकर्षक दीवारें भी
आवजें आकर्षक सारी
चिपका हुआ स्टीकर कि मूल्य भी आकर्षक
पीने का पानी तक आकर्षक
मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप
मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं

कई सहश्र पीढ़ियों से झूल रहा हूँ ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षणों के मध्य
सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती की ही
जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डेग तो कभी लगती ठेस
नाचता शहद और नमक के पीछे

आचार्य ! कौन रच रहा है यह ब्यूह
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाजार
जहाँ से अखंड पनही लिए लौट सकूँ.
..................

अकारण

क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बुलेंस
कि जान लूँ बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध हैं तो कितने दाँत साबूत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पाँव

केाई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा
बस यूँ ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का
रहबैयाऔर एक ही रस्ते से गुजर रहे हम दोनों.

6 comments:

दिपाली "आब" said...

acchi kavitayein hain, pehli wali kafi shandaar lagi. badhai

सागर said...

khuda khuda ...

HINDI AALOCHANA said...

sundr kavitayen......
badhai....

सोनू said...

मैंने पढ़ा है कि आप सीधे कंप्यूटर पर ही लिखते हैं। मेरी दिलचस्पी सिर्फ़ यह जानने में हैं क्या आप इनस्क्रिप्ट बरतते हैं?

इस पोस्ट में वर्तनी की बहुत ग़लतियाँ हैं। ऐसा इनस्क्रिप्ट को छोड़कर दूसरे जुगाड़ों के ज़रिए टाइप करने का कारण भी हो सकता है।

मेढ़क(मेंढक), बाले (वाले), हिले (हिलें), टाँग (शायद टांग), माँगे (शायद मांगे), स्टीकर (छोटी इ), सहश्र (सहस्र), केाई।

मुझे पनही और रहबैयाऔर (या रहबैया) का मतलब समझ नहीं आया।

Brajesh Kumar Pandey said...

मनोज जी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि है .उनकी कविताएँ हमें न सिर्फ दुनियावी सच्चाई दिखाती है बल्कि समय का चेहरा भी सामने लाती हैं.

रोली पाठक said...

रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और
सब्जी मुझसे मेरी कीमत पूछती है
मैं क्या कर रहा हूँ !
...मनोज जी बहुत ही उम्दा....सच्चाई का आइना दिखाती हुई रचनाएँ हैं...