Sunday, December 5, 2010

सलाम बॉम्बे हमें कहाँ छोड़ती है..














(कुछ फिल्में ऐसी होती है जो अपने हर विनम्र दर्शक को नये तरीके से सोच विचार करने पर मजबूर करती हैं, जैसे सलाम बॉम्बे पर पूजा सिंह के यह प्रथम दृष्टया नोट्स...)

...........

मीरा नायर की फिल्म सलाम बाम्बे की त्रासदी यह है कि ये फिल्म जहां से शुरू होती है, ठीक वहीं खत्म होती है. जिस लट्टू का खेल कृष्णा फिल्म के शुरुआती दृश्य में खेलता हुआ दिखा है वही लट्टू वो फिल्म के आखिरी दृश्य में नचा रहा होता है. और वो भी रोते हुए. पूरा सिनेमा देखकर हमें पता चलता है कि वाकई इस रात की सुबह नहीं. ये फिल्म थोड़ी थोड़ी सबकी है बगैर किसी भेदभाव के. कृष्णा की जो पूरी शिद्दत, पूरी ईमानदारी से मेहनत करने के बावजूद 500 रुपये तक नहीं जोड़ पाता, सोलह साल, चिलम, रेखा मंजू यहां तक कि बाबा भी. ये फिल्म इन सबकी है क्योंकि बाम्बे इन सबका है.

फिल्म को प्रस्तुति इसे ‘ऑरिजिनल’ की श्रेणी में रखती है जो मानीखेज सी लगती बात है. गांव के सर्कस से कृष्णा बाम्बे शहर के लाइव सर्कस में आ जाता है. यहां भी उसके जीवन में वही खालीपन है जो सर्कस उजड़ने के बाद गांव में था. इस बीच उसके जीवन में जो बदलाव आता है वह है चिलम यानी रघुवीर यादव की दोस्ती के साथ चायपाव का नया नाम. चाय पहुंचाने वह उन गुमनाम गलियों में भी जाता है जहां मानव सभ्यता का सबसे पुराना व्यवसाय फलता फूलता है…देह व्यापार. वहां उसे एक लड़की मिलती है जिसे जबरन पेशे में डाला जा रहा है. उस गुमसुम लड़की का नाम वह सोलह साल रखता है. वही सोलह साल जो फिल्म की शुरुआत में इस जीवन का प्रतिरोध करती है लेकिन आखिरकार नियति मान कर स्वीकार कर लेती है.

उसे इसके लिए तैयार करता है बाबा यानी नाना पाटेकर. जो दलाली, नशाखोरी समेत जाने मुंबई के कितने अंधेरे कारोबारों में शामिल है. वह शरीर बेचकर अपना पेट पालने वाली रेखा से शादी करता है जिससे उसकी एक बेटी भी है, लेकिन वह अपनी पत्नी से अब भी धंधा करवाता है. वह चिलम से नशीली चीजें बिकवाता है.

इस बीच कृष्णा के जीवन में जाने कितने मोड़ आते हैं, चिलम की बीमारी, मौत, बाल सुधार गृह, फरारी लेकिन जीने की आस उसे हर बार उस गली में ले आती है. जहां इस बीच कुछ भी नहीं बदला होता, सब कुछ वैसा ही. इस बीच बदल चुका होता है उस लड़की सोलह साल का मन. वह अपने पहले धंधे पर निकलती है. सलाम बाम्बे की कहानी कई कहानियों के साथ मासूमियत इंसानियत के खून की कहानी भी है. मासूम कृष्णा जिन लोगों के कारण व जिनके बीच चोरी, फरेब नशे से हत्या तक का सफर तय करता है, वे अब भी अपने काम पर हैं रोज नए नए कृष्णा के साथ. हम तब भी तमाशबीन थे अब भी वही हैं…

5 comments:

रहिमन said...

बहुत अच्छी फिल्म है सलाम बॉम्बे. हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर है. इसे याद दिलाने के लिये पूजा का शुक्रिया.

नया सवेरा said...

... saargarbhit abhivyakti !!!

डॉ .अनुराग said...

सच मानिए ....ये कहानी भर नहीं है .अपने पेशे के तहत ऐसे कई किरदारों से रूबरू हुआ हूँ....

ऐसे सच बहुत डराते है .ओर मुंह पे थप्पड़ मारते है

दीपक बाबा said...

ये फिल्म मैंने शयद विशाल सिनमाघर में देखि थी..... आपकी पोस्ट पढते पढते कई दृश्य आँखों के सामने से गुजर गए.

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 14 दिसम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट अंतहीन त्रासदी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता  पर क्लिक कर सकते हैं। कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।