Tuesday, December 6, 2011

मोपासाँ की कहानी - चाँदनी


( मोपासाँ. यह नाम कथा साहित्य की दुनिया में सुपरिचित है. सीधी सरल  भाषा, चुस्त थीम निर्वाह, स्थिति और सम्वेना पर कमाल की पकड़,  वैचारिक स्पष्टता.. यह सब सीखने के लिए लोग मोपासाँ को पढ़ते हैं. प्रस्तुत कहानी का अनुवाद युवा कवि श्रीधर ने किया है. संस्कृत ( M.A.) पढ़े लिखे श्रीधर ने फ्रेंच पर भी अच्छी पकड़ बनाई है. " तुझसे भी दिलफ़रेब हैं गमे- रोजगार के" जैसी स्थिति से जूझते हुए श्रीधर ने  अनुवाद के जो काम  किए वो अब शनै: शनै: उसे प्रकाश में ला रहे हैं. बॉदलियर की  कविताओं का अनुवाद किया है. बारहवीं सदी के कवि जयदेव के गीत गोविन्द की टीका लिख रहे हैं जो समय बेसमय ब्लॉग या पत्रिकाओं में दिखेंगी.  ) 

चाँदनी


मादाम जूली रोबेर अपनी बडी बहन मादाम हेनरियेत लतोघ, जो अभी अभी स्विट्जरलैंड की यात्रा से लौटी थी, का इंतजार कर रही थी.
लतोघ का सामान पॉच हफ्ते पहले ही आ चुका था. मादाम हेनरियेत अपने पति को अकेले ही वापस लौट जाने को कह गई थी, जहॉ कारोबार को उनके देख-रेख कि जरूरत थी और खुद अपनी  बहन के साथ कुछ समय बिताने पेरिस आ गई. ढलती शाम की खामोशी कमरे मे तैर रही थी. मादाम रोबेर अध्ययन मे तल्लीन थी और रह-रह कर उनकी ऑखे उस ओर घूम जातीं जिधर कोई आवाज होती.
आखिरकार दरवाजे की घंटी बजी, जहाँ उनकी बहन यात्रा वाले कपडों में उपस्थित मिलीं. तत्काल, बिना किसी सम्बोधन के दोनों एक-दूसरे के गले लिपट गईं. उसके बाद उन्होने ढेर सारी बातें कीं, एक-दूसरे के स्वास्थ्य तथा परिजनों के बारे में पूछा, तथा बाकी की और भी हजारों बातें करते हुए मादाम हेनरियेत ने अपनी टोपी उतार दी.
अब तक अन्धेरा पूरी तरह घिर चुका था. मादाम रोबेर लैम्प लाने गई. जैसे ही वह लैम्प के साथ वापस आयी और अपनी बहन के चेहरे का परीक्षण किया, अपनी बहन का कोई और रूप देखकर घबरा गई. मदाम लतोघ के कन्धे पर सफेद बालो के दो गुच्छे लटक रहे थे. और बाकी के बाल काले और भूरे मिलेजुले थे. वह यह सोचकर चिंतित हो उठी कि केवल 24 साल की उम्र में ही इतना परिवर्तन और वो भी अचानाक स्विट्जरलैंड की यात्रा के दौरान!
बिना किसी हरकत के मादाम रोबेर ने हेनरियेत को विस्मय भरी दृष्टि से देखा, उसकी ऑखों मे आँसू तैरने लगे, जैसे ही उसने यह सोचा कि जरूर उसकी बहन के ऊपर कोई आपदा आ पड़ी है. उसने पूछा,
“तुम्हे क्या हो गया है हेनरियेत?” “
एक दुखद मुस्कान के साथ हेनरियेत ने उत्तर दिया,
“क्यो, कुछ भी तो नहीं हुआ, क्या तुम मेरे सफेद बालो की वजह से पूछ रही हो ?”
लेकिन मदाम रोबेर ने आवेग के साथ लतोघ का कंधा पकड़ लिया और उसके चेहरे पर मानो कुछ खोजती हुई बोली, “क्या हुआ है तुम्हारे साथ? मुझे सबकुछ सही सही बताओ, अगर कुछ भी छिपाने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा.”
दोनों बहनें आमने सामने खड़ी रहीं. मदाम हेनरियेत, जो मूर्छा के आवेग से पीली पड़ गईं, उनकी ऑखे डबडबा गईं.
उनकी बहन लगातार पुछ्ती रही,
“क्या हुआ, कुछ बताती क्यों नही ? जबाब दो !”
मादाम हेनरियेत ने सिसकते हुए कहा, “ मेरा... मेरा एक प्रेमी है.” और अपना चेहरा बहन के कन्धे पर टिकाकर सुबकने लगी. थोडी देर मे हेनरियेत ने खुद को कुछ हल्का पाया लेकिन खुद को और ज्यादा हल्का करने के लिये वो अपनी सारी बातें बहन के सामने उड़ेल देना चाहती थीं.
इसके बाद दोनो औरतें कमरे के अन्धेरे कोने पर रखे सोफे पर बैठ गईं, छोटी बहन ने बड़ी बहन को गलबाहों में भर लिया और उसकी बातें ध्यान से सुनने लगीं.
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वह स्थिति ऐसी थी की कुछ कहा नहीं जा सकता बहन. मैं खुद को भी उस वक्त समझ नहीं पाई. और उसी दिन से मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि मै पागल हो गई हूँ. अपनी बहन को आगाह करने के अन्दाज में हेनरियेत ने कहा, “खुद को लेकर बिल्कुल सावधान रहना बच्ची, क्योंकि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम कब इतनी कमजोर और विवश हो गयी.” और आगे की बात बताना शुरु कर दिया....
“तुम तो मेरे पति को जानती ही हो और यह भी जानती हो कि मै उनसे कितना स्नेह रखती हूँ. लेकिन परिपक्व और भावुक होते हुए भी वह नारी हृदय की कोमलता को कभी समझ ही नही पाये. वह हमेशा एक जैसे ही रहते हैं. हमेशा की तरह अच्छे, मुस्कराते रहने वाले, दयालु और संपूर्ण. ओह, कभी कभी तो मैं तड़प उठती हूँ कि काश वो मुझे अपनी बाहों मे लेकर उन कोमल चुम्बनो से भर देते जो दो युवाओ को अंतरंग बनाते है. काश वो थोडे असंयमी और कमजोर होते ताकि मेरी भावनाओ व मेरे आसुओं का ख्याल रखते!
“ये सारी चीजें तुच्छ जान पडती हैं; लेकिन हम औरतें बनी ही इस तरह से है. इसके लिये हम कुछ कर भी नहीं सकते.”
लेकिन फिर भी, अभी तक जो मेरे साथ नही हुआ था वही उस रोज घटित हुआ. ऐसा होने का कोई खास कारण नही था. वजह बस ये थी कि उस रोज लूसेघ्न की खुबसूरत झील मे चाँदनी झिलमिला रही थी.
“महीने भर की यात्रा के दौरान, मेरे पति के शांत और उदासीन स्वभाव के कारण मेरा उत्साह मरता जा रहा था तथा मेरे कवित्व की सरगर्मी भी शांत होती जा रही थी. सूर्योदय के वक्त ऊँची पहाडियों के रास्ते पर चलते हुए जब हमने पहाडियों पर फैली पारदर्शी धुन्ध, घाटियों, जंगलों और गॉवों को देखा, मैने आनन्द के अतिरेक मे अपने पति से कहा, “कितना खूबसूरत दृश्य है प्रिय!” और उनसे एक चुम्बन लेने का अनुरोध करने लगी. तीखी लेकिन दयालुता से भरी मुस्कान लिये उन्होने उत्तर दिया, “क्यों? यहाँ प्रेम करने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता और सिर्फ इस वजह से मैं तुमारा चुम्बन नहीं ले सकता कि यहाँ का दृश्य तुम्हे बेहद पसन्द आया है.”
“उनके इन शब्दो ने मेरे हृदय को बर्फ की तरह जमा दिया. इतना ही नहीं, उस दृश्य को देखकर मेरे अन्दर जो काव्यानुभूति जाग रही थी उसकी भी उन्होने उपेक्षा की, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि खुद को कैसे व्यक्त करूँ? मै लगभग उस तप्त भट्टी की तरह हो गई थी जिसके अन्दर भाप भरी हो लेकिन उसका मुह ऊपर से बन्द हो.”
एक शाम ( जबकि हम दोनों 4 दिन से फ्लोलेन नामक होटल मे ठहरे हुए थे), रोबेर्त को हल्का सिरदर्द था इसलिये वह खाने के बाद तुरंत बिस्तर पर चला गया और मै झील के किनारे टहलने के लिये अकेले निकल पडी.”
वह ऐसी रात थी जिसको मैंने सिर्फ कहानियो में ही पढा था. पूर्णिमा का चाँद आकाश मे दिपदिपा रहा था. ऊँचे पहाड़ों की बर्फीली चोटियों को देखकर ऐसा जान पडता था, मानो उन्होने चाँदी का मुकुट पहन रखा हो, झील का पानी चंचल गति से बह रहा था. हवा बहुत मीठी लय में डोल रही थी. धीरे-धीरे मेरे उपर एक नशा सा तारी होने लगा. यह दृश्य जादू की तरह मेरे ऊपर हावी होने लगा. अजीब क्षण था वह. मेरे अन्दर से भावनाओ का समुद्र फूटने लगा. मैं वही घास पर बैठ गयी और चुपचाप झील के किनारो को निहारने लगी. एक विचित्र भाव ने मुझको अपने अधीन कर लिया. मै एक अतृप्य प्रेम की आकांक्षा के वशीभूत होने लगी. यह भाव एक तरह से मेरे अन्धकार और निराशा से भरे जीवन के प्रति विद्रोह जैसा था. ओह! क्या मेरा भाग्य ऐसा कभी नही होगा कि इस झील के किनारे कि चॉदनी रात मे उस इंसान  से आलिंगनबद्ध हो सकूँ जिससे मै प्रेम करती हूँ? क्या मै उन अधर चुम्बनो का रसास्वादन कभी नही कर सकती जिसकी शोभा विधाता के वरदान जैसी होती है. क्या मैं ग्रीष्म की ऐसी खूबसूरत चॉदनी में प्रेम का वह पवित्र एहसास कभी नहीं कर पाऊगी?
“अचानक मै किसी ऐसी औरत की तरह रोने लगी जिसका सबकुछ लुट चुका हो. मैने अपने पीछे किसी की आहट सुनी. मुझे रोता देखकर एक आदमी लगातार मुझे घूरे जा रहा था. जब मैने अपना सिर पिछे की तरफ घुमाया, वह मुझे पहचान गया और पूछ बैठा, “आप रो क्यो रही है मदाम?”
“वह एक युवा वकील था जो अपनी माँ के साथ टहल रहा था, जिससे कि हम पहले भी मिल चुके थे. उसकी आँखें मेरे उत्तर कि प्रतीक्षा कर रही थीं. मेरी समझ मे नही आ रहा था कि क्या जवाब दूँ उसे, और उस स्थिति से कैसे उबरूँ? मैने कहा, “मेरी तबीयत ठीक नही है.”
वह अपनी सहज और गरिमामयी चाल में टहलता हुआ मेरे करीब आ गया और चाँदनी के उस छोटे से  सफर में महसूस की हुई चीजों को बयाँ करने लगा. वह उस दृश्य के बारे मे वही सारी तफसीलें देने लगा, जो कि मैंने कुछ देर पहले महसूस किया था; यह जानकर मैं अचम्भित थी कि वह इस दृश्य को मुझसे भी बेहतर ढंग से समझ रहा था. अचानक ही उसने ‘अल्फ्रेड द मोसे’ की कुछ पंक्तियॉ उद्धृत कीं. मेरी साँसें मानो थम सी गयीं, मैं भावनाओं के अतिरेक मे डूब गयी. मैने ऐसा महसूस किया कि ये पर्वत, झरने, चाँदनी रात, सब के सब मेरे भीतर सँगीत की तरह गूँज रहे हैं.
उसने अपनी तफसीलों वाला कार्ड भी मुझे दे रखा था, और अगले दिन प्रस्थान के समय तक मुझे वापस नजर नहीं आया.”
“बहन उस छोटे से लम्हे मे मेरे साथ यह सब कुछ घटित हुआ लेकिन कब और कैसे हुआ ये मैं नहीं जानती.” अपनी बात खतम करके वह अपनी बहन की बाहों मे लिपटते हुए दर्द से कराह उठी.
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इसके बाद मदाम रोबेर स्वपूर्ण व गम्भीर मुद्रा मे बोली, “देखो बहन यह जरूरी नहीं की हम जिसे प्रेम करते हो वह इंसान ही हो, प्रेम इसके बगैर भी हो सकता है. उस रात तुम्हारा वास्तविक प्रेमी रात की वह मनोहर चॉदनी थी.”

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श्रीधर से सम्पर्क : shridhardubey1@gmail.com / 08285837372.


3 comments:

SANDEEP PANWAR said...

चन्दन जी बहुत अच्छा लिखा है।

Aparna Mishra said...

Wonderful try Sridhar. I loved it while reading. "love", the most difficult & the most beautiful thing we have.

Thanks to Chandan too for always letting us read different & good words/writings.

Raju Patel said...

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.