Friday, February 26, 2010
देवता बीमार है: कुमार विनोद की मशहूर गज़ल
क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है
तीरगी अब भी मजे में है यहाँ पर दोस्तों
इस शहर में जुगनुओं की रौशनी दरकार है
भूख से बेहाल बच्चों को सुनाकर चुटकुलें
जो हँसा दे, आज का सबसे बड़ा फनकार है
मैं मिटा के ही रहूँगा मुफ़लिसी के दौर को
बात झूठी रहनुमा की है मगर दमदार है
वो रिसाला या कोई नॉवल नहीं है दोस्तों
पढ़ रहा हूँ मैं जिसे वो दर्द का अखबार है
खूबसूरत जिस्म हो या सौ टका ईमान हो
बेचने की ठान लो तो हर तरफ़ बाजार है
रास्ते ही रास्ते हों जब शहर की कोख में
मंज़िलों को याद रखना और भी दुश्वार है
(कुमार विनोद का परिचय यहाँ)
Wednesday, February 24, 2010
गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की कहानी: समार्रा में मृत्यु
भयाक्रांत नौकर मालिक के घर पहुंचता है।
कहता है- हुजूर, मैंने बाजार में मृत्यु को देखा और उसने मुझे खतरे का इशारा किया।
मालिक उसे एक घोड़ा और पैसे देता है, और बोलता है : तुम समार्रा के लिए भाग निकलो।
नौकर समार्रा के लिये भाग निकलता है।
उसी शाम, तड़के, बाजार में मालिक की मुलाकात मृत्यु से होती है।
वह मृत्यु से कहता है - आज सुबह तुमने मेरे नौकर को खतरे का इशारा किया!
वह इशारा खतरे का नहीं – मृत्यु उत्तर देती है - बल्कि आश्चर्य का था। क्योंकि मैंने उसे यहाँ देखा, समार्रा से इतनी दूर, और ठीक आज ही की शाम मुझे उसे समार्रा से उठाना है।
Tuesday, February 23, 2010
भागना
(बचपन के डर और दु:साहस का यह संस्मरणात्मक आलेख पूजा का है)
चन्दन की पोस्ट ‘गुमशुदा की तलाश का स्वप्न’ पढ़कर मुझे भी अपना कुछ पिछला याद आ गया। मैं भी एक बार मार खाने के डर से घर से भाग गई थी। अगर मुझे ठीक ठीक याद तो मैं उस समय चौथी में पढ़ती थी और नौ या दस की उम्र थी मेरी। उस समय की अपनी याद्दाश्त में मैने ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिस पर मुझे डाँट ना पड़ी हो। यह भी हो सकता है कि घरवालों के नजरिये से मैं हर काम को गलत ढंग से करती रही होऊँ। पर अपने हिसाब से मैं हमेशा सही रहती थी।
मुझे लगता कि घर में कोई मुझे प्यार नहीं करता। मेरी इच्छा होती कि दूर कहीं ऐसी जगह जाकर रहूँ जहाँ कोई मुझे जानता पहचानता न हो। लगता कि वहाँ ना तो कोई मुझे पहचानेगा और ना ही डाँटेगा। अकेले जाने में डर लगता इसलिये मैं अपने दोस्तों को भी अपनी प्लानिंग में शामिल करती। मेरी नन्ही उमर के दोस्त ऐसे मौकापरस्त होते कि जिस दिन माँ बाप से डाँट पिटती आकर मेरी योजना में शामिल हो जाते और जैसे ही उधर से थोड़ा प्यार दुलार मिलता वो सब पाला बदल लेते। थक हार कर मैं भी समय का इंतजार करने लगी कि थोड़ी बड़ी हो जाऊँ तो मैं भी अकेले ही निकल जाऊँगी।
हाँ तो बात घर से भागने की हो रही थी। तारीख तो याद नहीं लेकिन वह सर्दियों का कोई गुरुवार था। उस दिन बड़ा बाजार लगता था। और मैं हमेशा जिद करके मम्मी के साथ बाजार जाती। मुझे सब्जी मंडी की भीड़ भाड़ अच्छी लगती है। ये ऐसी जगह है जहाँ से मेरा लगाव कभी कम नहीं हुआ। फल सब्जियाँ ही नहीं मैं तो उनके खरीददारों को देखते और उनका ऑब्जर्वेशन करते हुए भी घंटों बिता सकती हूँ। उन्हे पता भी नहीं चल पाता कि कोई उनका पीछा भी कर सकता है।
मम्मी को उस दिन सब्जियों के अलावा और भी खरीदारी करनी थी और उन्होंने करीब
दो हजार रूपये ले रखे थे। हमारी गाड़ी उसी दिन शादी की बुकिंग से लौटी थी और ड्राईवर को जो किराया मिला था उसने भी मम्मी को वो पैसे पकड़ा दिये। अब चुकि मैने जैकेट पहन रखा था अत: उन रूपयों को रखने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। लेकिन उन्हे क्या पता था कि इन रूपयों के चलते शाम तक अच्छा खासा बखेड़ा खड़ा होने वाला है।
हमेशा उदास रहने वाले बाजार में उस शाम बड़ी चहल पहल थी। लग रहा था मानो इलाके के सभी घरों का राशन एक साथ खत्म हो गया है और वे सब बाजार में आ धमके हैं। तभी मैने देखा कि कुछ औरतों की टोली सनसनाते हुए एक दम मेरे बगल से गुजर गई है। मुझे इसका भी पता चला कि मेरे जैकेट की जेब में किसी का हाथ भी गया है। जब तक मैं सम्भलती वो औरते पता नहीं कहाँ अदृश्य हो गईं। मैंने अपनी जेब टटोली और डर गई। मम्मी से कहा, उन औरतों ने मेरी जेब से पैसे निकाल लिये हैं। मम्मी कुछ बोलती कि तभी उन्हे वहाँ खड़े होकर औरतों पर ध्यान रखने के लिये कह, मैं उन चोरों को ढूढने के लिये दूसरी तरफ चली आई। लेकिन जाऊँ तो कहाँ, मुझे उनका चेहरा भी याद नहीं था। अब याद आ रहा था तो सिर्फ मम्मी और दूसरे घरवालों का चेहरा।मुझे पता था कि अब मैं वो पैसा कहीं से ढूंढ नही पाऊँगी। मुझे लगा कि गलतियाँ मेरा पीछा करते हुए घर से बाजार तक आ गईं हैं।
मैं मम्मी के पास नही गई। शहर में कहाँ कहाँ देर तक घूमती रही। फिर जब रात होने लगी तो बाजार से बाहर निकल आई और अपनी कॉलोनी पहुँची। मेरे डर के बीच मुझे अपनी सबसे अच्छी दोस्त मधु का चेहरा याद आया। मधु झा। मधु से मेरी दोस्ती इसलिये भी थी क्योंकि वो टिफिन में मूंगफली की चटनी जरूर लाती थी। मैं अपने एक या दो पराठे से उसकी मूंगफली वाली चटनी बदल लेती थी। वो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। पर आज मामला जरा दूसरा था। उसके घर पर उसके मम्मी पापा थे और छोटा भाई। दोनों एक कमरे में बैठे पढ़ रहे थे।
मुझे देखते ही वो आई। मैं भी सकपकाई हुई उनके साथ पढ़ने बैठ गई। कुछ देर बाद मैने उससे पूछा कि मैं कब तक उसके घर पर रह सकती हूँ? मधु ने कहा तो कुछ नही पर मैने महसूस किया कि आज मधु कुछ ज्यादा ही अपनापे से बात कर रही है। मुझे कुछ खटका हुआ। उसके पापा मुझे देखते ही बाहर निकल गये। मधु की आत्मीयता मुझे झूठी लग रही थी। मेरी छठी इन्द्री ने कहा “पूजा यहाँ से भाग ले”। मैने उससे पानी मांगा और जैसे ही वो पानी लाने गई मैं वहाँ से भी भाग गई। बाद में पता चला कि मेरे भईया, मम्मी सब पहले ही मेरी तलाश में वहाँ आ चुके थे और मेरे आने के बाद उसके पापा उन्ही को इत्तिला करने गये थे।
रात के आठ बज चुके थे। मैं अपने स्कूल भी गई और सोचा कि यहीं रूक जाऊँ लेकिन मन ने वहाँ ठहरने की अनुमति नही दी। वहाँ चौकीदार से थोड़ी देर ऐसे ही कुछ बात करते हुए मं मन ही मन सोच रही थी कि इतनी रात गये कहाँ जाया जा सकता है? उस समय मैं इंसानों से अधिक भूतों से डरती थी। कभी लगता अगर मैं स्कूल में रूकी तो जी हॉरर शो वाला डेविड कब्रिस्तान से आ जायेगा या अनुराधा आकर मेरे गले में दाँत गड़ाकर सारा खून पी जायेगी। फिर मैं वहाँ से अपनी कॉलोनी में आ गई। चुपके से अपने घर के पास रहने वाले अंकल के घर के पास पहुँची। चुपके चुपके उनके घर के बाहर स्थित सीढ़ी से उनके छत पर पहुँची। वहाँ से मेरे घर की छत दिखाई दे रही थी। सर्दियों के मौसम के कारण किसी के छत पर होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। अब भी उन बातों को याद कर मेरी रूह काँप जाती है कि अगर उन उंची नीची छतों पर कहीं भी मेरा पैर फिसला होता तो मैं शायद अभी भी बिस्तर पर होती।
छत से आंगन में धीरे से झाँका। नीचे कोहराम मचा हुआ था। मम्मी रो रही थी, बगल की आंटियाँ उन्हे शांत हो जाने के लिये कह रही थी। थोड़ी दूर पर रहने वाली मौसी और उनका पूरा परिवार सब के सब नीचे बातचीत कर रहे थे। मुझे यह सब देखकर जाने क्यों हंसी आने लगी। इस बीच मैं यह भी ध्यान दे रही थी कि कहीं कोई छत पर ना आ जाये। मम्मी को रोता देख भी मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं नीचे उतर जाऊँ। रात के दस ग्यारह बज जाने के बावजूद घर पर लोग जाग रहे थे।
सीढ़ी से नीचे जाने पर आंगन और अन्दर वाला कमरा आता था। जहाँ सिर्फ सामान और एक तख्त रखी हुई थी। छत पर ठंढ भी लग रही थी। जब सब इधर उधर हुए तो मैं धीरे से अन्दर वाले कमरे के तख्त के नीचे जाकर छुप गई। मम्मी की बार बार तेज से रोने की आवाज सुन कर मैने फिर से भागने का निर्णय लिया और सोचा, कहीं भी जाऊँगी लेकिन घर नही जाऊँगी। और फिर मैं उतनी रात में छत पर आ गई।
बस मुझसे यहीं चूक हो गई। मेरे बगल के पप्पू भईया मेरी खोजबीन में मची अफरातफरी का लाभ लेते हुए छत के एक कोने में सिगरेट पी रहे थे। उनके घर में किसी को पता नहीं था कि वो सिगरेट या शराब पीते हैं। मैं उनसे बहुत डरती थी। उन्होने मुझे देखा तो एक क्षण के लिये मेरी सांस ही टंग गई और घबराकर मैं छत से सीधे नीचे कूद गई। उन्होने शोर मचाना शुरु किया और फिर ....मुझे घर पहुंचा दिया गया। आगे क्या हुआ उसके बारे में मत पूछिये। बस एक बात कहूँगी कि उस दिन मम्मी ने रोते रोते कहा था, “इस लड़की को भागने की आदत पड़ जायेगी”।
मम्मी की यह बात आशिर्वाद की तरह फली। पढाई और रोजगार के सिलसिले में शहर दर शहर भागते रहना ही वह आशिर्वाद था।
Monday, February 22, 2010
श्रीकांत की सलामती के लिये
अपनी कविताओं और उसी अनुपात में अपने अनुवादों के साथ, श्रीकांत इस ब्लॉग के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। हम सबको उनकी सलामती की फिक्र है। आशा है और पूर्णविश्वास भी है कि वे जल्द से जल्द स्वस्थ हो जायेंगे। और साथ ही यह हिदायत कि श्रीकांत, बड़े शहरों में आतताई गाड़ियों से डरो, अभी कम से कम एक हफ्ते आराम करना!
Sunday, February 21, 2010
भेड़िया, मैं
मिशालों की जरूरत,
किस्सों की खुराक
और अपने
अपराधों को श्लील दर्ज करने के
लिये सभ्यता ने तुक्के पर ही
भेड़िये को बतौर खलपात्र चुना
इंसान की रुहानी भूख के लिये
घृणित किस्सों का किरदार बना
भेड़िया, जान ना पाया अपना
अपराध, जबकि यह बताने में
नही है किसी क्षमा की दरकार
कि शिकार कौन नही करता
बेदोष, मूक भेड़िये की लाचारी का
बहाना बनाते रहें अपनी आत्माओं
के सौदागर यह जान लें कि शेर
और नेवले शिकारी हों या इंसान,
तरीका भेड़िये से अलग नही होता
वे हम थे जिनने शेर और भालू
की उंची बिरादरी के आगे टेके
घुटने माथा झुकाया और उनकी
प्रतिष्ठा में फूंकने के लिये प्राण
भेड़िये का बेजाइस्तेमाल किया
उसे गुनहगार बनाया, जंगली
जलसों से उसे इतनी दूर रखा
जिससे बनी रहे उसके मन में
दूरी का बेबस एहसास, लगातार
भेड़िये की गिनती फिक्र का विषय
नहीं रही कभी, उसकी मृत्यु पर ढोल
और ताशे हमने ही बजाये
उसकी उदासी पर फिकरे कसे गये
(चुप रहने वालों को कहा गया घातकी)
अपने अपराधों के लिये मुहावरेदार साथी
बनाया भेड़िये को सभ्य मानव ने
इंसानों से छला गया यह जीव सदमें में
रहा होगा सदियों तक, सर्वाधिक बुद्धिमान
प्रजाति द्वारा दिये गये धोखे की नहीं थी
जरूरत, उसे अलग थलग करने के लिये
आविष्कृत हुए किस्म किस्म की हंसी,
खौफ और शब्दों के हथियार
हार नही मानी भेड़िये ने जिसके पास
जीते चले जाने के सिवा नही था कोई
दूसरा या तीसरा रास्ता
इतिहास के सबसे निर्मम और मार्मिक
एकांत में जीवित इस जीव ने साधा
सदियों लम्बी अपनी उदासी को, हम
रोने की उसकी सदिच्क्षा को जान भी
नही पाये
इतिहास के निर्माण में शामिल और
उसी इतिहास से बहिष्कृत भेड़िया
कभी नहीं रोता अपने निचाट
अकेलेपन पर
एक पल के लिये भी नहीं।
Saturday, February 20, 2010
मुख्यमंत्री की धूमिल याद में
ज्ञानी मुख्यमंत्री एक-ब-एक घबरा गये। उन्होने परेशान हो कर जबाव दिया: सिमी पर क्यों प्रतिबन्ध? वो तो इतनी सुन्दर अभिनेत्री रही! अभी तो सिमी ग्रेवाल ने अमिताभ को अपने कार्यक्रम में धो पोंछ दिया था। वो तो बहुत खूबसूरत है भई!
Thursday, February 18, 2010
पता: श्रीकांत की कविता
उदाहरण के लिए मेरे मोहल्ले का वह उम्रदराज आदमी जिसे वर्षों से किसी चीज़ का इंतज़ार नहीं है और समय का हरेक क्षण चुपचाप उसके अक्सर खुले मुह में बीत जाता है, जो वर्षों पहले अपने बेटे द्वारा उस छोटे कस्बे से किसी सामान, या परंपरा के रूप में ढोई जाने वाली किसी विरासत के तौर पर इस महानगर में उठा लाया गया था और जिसके पास कभी सत्तर मील उत्तर की पहाड़ी के पार उगने वाली पीली घास से लेकर दुनिया के तमाम देशों के मौसम, हवा और परिंदों तक का पता हुआ करता था, आज अपने पड़ोसी का नाम या उसका मकान नंबर नहीं बता सकता. कभी कभी किसी उजली रात में जब वह आपने घर के बाहर कि सड़क पर धीमे क़दमों से टहल रहा होता है, देर तक अपने मोहल्ले का नाम याद करता है और कुछ ऐसी ही कोशिश के बाद उसे अपना नाम भी याद आता है.
मैं भटकता हूँ दिन रात मन में उपजाता हूँ कोई पता, गो कि सी-२५, आवास विकास कालोनी, सूरजकुंड, लोगों से पूछता हूँ उसका रास्ता और अक्सर उसे ढूंढकर लौट आता हूँ ऐसा उस अजीब पशोपेश की वजह से होता है जिसमे मेरे शहर के बड़े हिस्से के पता वाले घर और उनके बाशिंदे मुझे हू ब हू एक से दिखने लगे हैं इन दिनों.
Tuesday, February 16, 2010
गुमशुदा की तलाश का स्वप्न
हमारा समाज ही इतना महान है कि अगर आप सीधे साधे हैं तो यह समाज आपको हरवक्त नीचा दिखाने की, आपसे झूठ बोलने की कोशिश करेगा। गाँव घर के लोग आपका मजाक उड़ायेंगे। कभी कभी यह मजाक सामूहिक पिटाई की शक्ल भी ले लेता है। इससे वो इंसान दब्बू फिर कुंठित और फिर सोझबकाह(गैर दुनियादार) होता चला जाता है। और कहते हुए अच्छा तो नही लग रहा, पर कहना तो पड़ेगा कि यही सारा कुछ अक्सर ऐसे लोगों के घरों में भी होता है। मैने घर छोड़ने के किस्से तमाम सुने हैं, एक लिख भी रहा हूँ(पता नहीं कहानी में क्या होगा) पर जो मैनें आंखो देखी है उसमे ज्यादातर घटनायें घर परिवार के दबाव में घटी हैं।
मेरे तमाम स्वप्न हैं। उसमे से एक यह भी है कि काश कभी किसी ऐसे इंसान को, जो गुम हो गया है, उसे उसके परिवार से मिला सकूँ। जब कोई अभागी तस्वीर देखता हूँ तब मैं चेहरे को याद करता हूँ और फिर इधर उधर लोगों के चेहरे देख उस तस्वीर से मिलाता हूँ। घंटे दो घंटे में ऐसा होता है, सैकड़ों लोगों के सजीव चेहरे देखते रहने के बाद सारे चेहरे गड्डमड्ड होने लगते हैं और वो तस्वीर वाला चेहरा ध्यान से उतर जाता है।
इनदिनों मेरे कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण स्वप्न असफल और अधूरे रह जा रहे हैं। निराशा है पर जब “आप ही मरीज और आप ही हकीम” का जीवन जिया जाता है तब कितना कुछ सकारात्मक जानबूझ कर सोचना पड़ता है। और यह सकारात्मक सोचना कितना अच्छा है जब सारे स्वप्न ध्वस्त हो रहे हों तो क्या पता यह स्वप्न पूरा हो जाये।
Sunday, February 14, 2010
अगली कहानी – नया
अब जब पूरी हुई तो मन बहुत उदास हो गया। रात भर नीन्द नही आई। किसी को बताना चाहता था कि आज मैने एक कहानी पूरी की है पर दो तीन बजे किसे बताता। रात की एक दूसरी ही तकलीफदेह घटना से मन कई गुना बेचैन था। बार बार मैं जोर जोर से बोलना चाहता था। लवें तप रही थी। पानी लगातार पीना भी बेअसर जा रहा था। दूध नही था सो लाल चाय बनाकर पिया। स्वाद बहुत खराब था। पर उससे अपना ही ध्यान बँटाने में खासी मदद मिली।
रात रात भर जाग कर और तमाम शहरों के होटलों में रह कर यह कहानी लिखी गई है। एक पैरा जम्मू तो अगला पन्ना जयपुर उसके बाद अगली लाईन बस में, फिर कोई हिस्सा ट्रेन में। मुझे याद आ रहा है कि जब मैं पार पुल वाला हिस्सा लिख रहा था, जुलाई की बात है, उस दिन मैं अमृतसर था और खूब बारिश हो रही थी। अब ये कहानी एक पत्र के फॉर्म में लिखी गई है। आज आखिरी से पहले वाला ड्राफ्ट पूरा हुआ और अभी उसी की मानसिक थकान से उबरने की कोशिश कर रहा हूँ। मानसिक थकान ऐसी है कि एक शब्द लिखने का मन नही हो रहा पर अभी कहानी के कुछ तंतु जो छूट रहे हैं उन्हे टाँकने का काम बाकी है। डरते डरते कुछ मित्रों को पढ़ने के लिये अपनी कहानी भेज रहा हूँ। क्या पता उन्हे पसन्द आये, ना आये।
कहानी का शीर्षक है - “नया”।
उम्मीद है अगले महीने तक आप सबके सामने उस कहानी के साथ उपस्थित हूँगा। तब तक दूसरी कहानी पूरी होने की सम्भावना है। सफर में लगातार रहने के कारण कोई भी कहानी इकट्ठे नही कर पा रहा था पर लगातार के इस सफर और लगातार के ही इस खौफनाक अकेलेपन का सुन्दर पहलू भी है कि कई कई कहानियों पर काम करता रहा और अब सब सही राह पर हैं। कई कई दिन अबोले गुजर जाते हैं। इस महीने कोशिश करूंगा कि सम्भव हो तो यात्रायें कम करूँ। अगर महीने में पांच छ दिन भी समय से कमरे पर आ गया तो अगली कहानी का खांचा खिंच जायेगा।
Saturday, February 13, 2010
“चलना” को संज्ञा होना चाहिये था
तुम्हारे साथ
होता हूं जब भी
मैं सोचता हूं
कि चलना
यदि क्रिया नहीं होती
होती कोई वस्तु
काँच या मिट्टी से बनी
तोड़कर रख लेता
एक टुकड़ा उसका
अपने झोले में
और जब भी होता अकेलापन
(यद्यपि मेरे साथ
तुम्हारी गैर मौजूदगी में
मौजूदगी का ही
दूसरा नाम है अकेलापन)
निकालता उस टुकड़े को
और निकल पड़ता
किसी अंतहीन सड़क पर.
.......चन्द्रिका(परिचय और अन्य कवितायें ठीक यहाँ!)
Thursday, February 11, 2010
निकानोर पार्रा की कविता: एक अजनबी के लिए खत
साल जब गुजर जाएंगे और
हवा बना चुकी होगी एक दरार
मेरे और तुम्हारे दिलों के बीच;
जब गुजर जाएंगे साल और रह जाउंगा मैं
सिर्फ एक आदमी जिसने मोहब्बत की,
एक नाचीज जो एक पल के लिए
तुम्हारे होटों का कैदी रहा,
बागों में चलकर थक चुका एक बेचारा इंसान मैं,
पर कहां होगी तुम?
ओ, मेरे चुंबनों से रची बसी मेरी गुड़िया!
तुम कहां होगी?
निकानोर पार्रा। कविता के बंधे अनुशासन से इत्तेफाक नहीं रखने वाले और खुद को अकवि कहने वाले स्पैनिश भाषा के महान कवि। चिली के 'सान फाबियान दे आलीसियो' में 5 सितंबर 1914 को जन्में। कवि, अकवि और रूसी कविताओं के अनुवादक होने के साथ साथ गणितज्ञ भी। फनकारों की भरमार वाले परिवार से बावस्तगी। पाब्लो नेरुदा जिन दिनों कविता का सारा आकाश समेंटे हुए थे उन कठिन दिनों में निकानोर ने कविता की अपनी विशिष्ट राह बनाई।
श्रीकांत का अनुवाद। जल्द ही श्रीकांत लोर्का की कवितायें लेकर आ रहे हैं!!
Tuesday, February 9, 2010
असफल और आत्महंता प्रेम से उबरने की चाह में क्या क्या करते लोग?
शिमले के संझौली रोड पर दिव्य नैसर्गिक खूबसूरती के बीच वो रहता है। चारो तरफ उंचे और खालिस सफेद पहाड़। बादलों से पटी पड़ी गहरी खाईयाँ। आप पांच मिनट वहाँ ठहरे और मेरा दावा है आप या तो बेतरह खुश या बहुत उदास हो जायेंगे। शिमला से आप आगे बढ़ते जायें और संझौली, किसी याद की तरह, अचानक आपके सामने नमूदार होती जगह है।
पिछले हफ्ते जब मैं शिमला गया तो मन में तय करके गया था कि उस मित्र से जरूर मिलूंगा। बचपन का साथी है और हमने कई अच्छे काम साथ किये हैं। मैं साहित्य की ओर जब घूम रहा था उन दिनों उसके जीवन की स्टीयरिंग गणित की ओर घूम चुकी थी। आज उसकी स्थिति कुछ यों है: दुनिया की निगाह में घनघोर सफल और अपनी निगाह में भयानक असफल। उसकी नौकरी ऐसी कि अच्छे अच्छे रश्क करते हैं। पर पिछले ही साल उसके प्रेम सम्बन्ध समाप्त हुआ है।
हम लोगों के बीच उसका प्रेम मिशाल की तरह फैला था। किसी के साथ गुजारे खास आठ साल कम नहीं होते। वो भी प्रेम में। पर लड़की के घर वालों ने क्या स्वाँग रचा? किसी ज्योतिषी का सहारा लिया और लड़की को उस प्रकांड पंडित ने अंतत: समझा ही डाला कि फलाँ जाति विशेष के लड़के से विवाह करने पर पिता का देहावसान सुनिश्चित है, भाई पर किसी अनिष्ट की आशंका है। लड़की, खासी समझदार लड़की, मान गई। उसने एक झटके में मेरे दोस्त से दूरी बना लिया।
वो अब भी नौकरी पर जाता है। पहले जो बेहद सुलझा हुआ लड़का था, बेहद होशियार, अब लगभग हरेक बात पर फफक पड़ता है। अकेले रहने से डरता है। मुझे रात बिरात फोन लगा देता है। बार बार मेरे कथाकार होने की दुहाई देता है- जैसे मेरे पास कोई चिराग हो। मुझे कुछ नही सूझता कि क्या कहूँ? दरअसल लड़की भी अपनी परिचित ही थी।
मेरे दोस्त को तमाम दूसरे जाहिल और सामंती लोग बार बार यह समझाते हैं(अगर यह सार्वजनिक जगह ब्लॉग ना होता तो इन महानों के लिये मैं नीच शब्द भी लिखता) कि प्रेम का मकसद शादी नही होता...प्रेम आत्मा की अनुभूति है..तमाम तमाम उल जलूल बातें। ऐसा करने वाले उसके इतने करीबी हैं कि वो उन्हे गाली भी नही दे सकता।
दरअसल उसकी कुल आकांक्षा साथ रहने की थी। और हम सबने उसे, उस लड़की के साथ, इतना खुश देखा है कि उसे समझाने वालों को थोड़ी शर्म करनी चाहिये।
सौ सवाल पर या सवा सौ सवाल पर भी उसका कहना यही होता है, “यानी सबसे कमजोर मुझे ही समझा ही गया।“ उसका कहना सही इसलिये है कि जब इसके घर वालों ने इनके जीवन साहचर्य का विरोध किया तो लड़के ने घर छोड़ दिया था और इस पर वो दोनों बहुत खुश थे....।
अब जब सबने उसे तकलीफ पहुंचाई तो उसने उबरने का यह नया तरीका निकाला। वो अपने को पराजित मान चुका है। और रोज ब रोज खुद को इस हार और अपमान की याद दिलाता है। बहुत परिश्रम कर रहा है। नौकरी के बाद का सारा समय गणित को देता है। अकेलेपन से बचने का कोई तरीका नही है उसके पास। अब वो अपने आप को आजाद भी महसूस करता है। कुछेक जिम्मेदारियों के बाद वो नौकरी छोड़ देगा-ऐसा उसका नया उद्देश्य है- और गणित से पी.एच.डी करेगा। उसके फ्लैट में अब भी बीते भले जमाने की तश्वीरें दिख जाती हैं।
जो तस्वीर आप देख रहे हैं, ऐसी ऐसी बीसियों तख्तियाँ उसने अपने कमरे में चिपका रखी हैं। हर सुबह जग कर पहले वो इन तख्तियों को देखता है और फिर उसके बाद घड़ी में समय। मुझे सबकुछ बेहद डरावना लगा। मैने आज तक यही सुना और समझा था कि किसी समस्या से निपटने के लिए उससे दूरी बनानी चाहिये। पर उसके मामले में यह उल्टा हो रहा है।
जब मैने कहा कि मैं तुम्हारी बात को सार्वजनिक करूंगा तो उसने हिदायत दी कि नाम नही आना चाहिये। समझने वाले समझ सकते हैं कि वो अपने नाम की बात नही कर रहा था। और शायद मुझे डराने के लिये ही बार बार वो परशुराम का किस्सा सुना रहा था। मैंने उसे सलाह दी कि तू कुछ दिनों की छुट्टी ले और घर जा। घर अब वो जाना नही चाहता। पर जायेगा। मैने उसके घर वालों को सारा किस्सा समझाया है।
Monday, February 8, 2010
राजधानी दिल्ली में क्षृंगार थियेटर या श्रृंगार थियेटर?
ताजा ताजा बीते शनिवार की शाम का कोई वक्त था और हम जाने किस बात पर झगड़ रहे थे कि हमने एक सज्जन को फोन पर बात करते सुना। वो सज्जन पुस्तक मेले में भटक गये थे। अब वो अपने मित्र को समझा रहे थे, “मैं क्षृंगार थियेटर के पास हूँ’’। वैसे भी पुस्तक मेले में अगर कोई राह चलते मिल जाये तो मिल जाये वरना ढूंढना तो मुश्किल ही है। पर हम दोनो का ही ध्यान उस व्यक्ति द्वारा उच्चारित ‘क्षृंगार’ शब्द पर टिक गया। हमने कोई ऐसा शब्द, और वो भी संज्ञा, आज तक नहीं सुना था। झगड़े को टाल हम कौतुक में यह देखने आये कि क्षृंगार थियेटर क्या होता है? परंतु इसकी अंग्रेजी देख हमें तसल्ली हुई कि यह और कुछ नहीं, अपनी भाषा का चिर परिचित और बेहद खुशगवार शब्द “श्रृंगार” है।
Sunday, February 7, 2010
निकोलस गियेन की कविता- पहेलियाँ
और रात चमड़ी में।
कौन है, कौन नहीं?
......... नीग्रो
उसके एक सुन्दर स्त्री न होने पर भी,
वही करोगे जो उसका हुक्म होगा।
कौन है, कौन नहीं?
......... भूख
गुलामों का गुलाम,
और मालिक के संग जुल्मी।
कौन है, कौन नहीं?
......... गन्ना
छुपा लो उसे एक हाथ से
ताकि दूसरा कभी जाने भी नहीं।
कौन है, कौन नहीं?
......... भीख
एक इंसान जो रो़ रहा है
एक हंसी के साथ जो उसने सीखी थी।
कौन है, कौन नहीं?
......... मैं
कवि: निकोलस गियेन (परिचय और कवितायें यहाँ)
अनुवाद: श्रीकांत
Thursday, February 4, 2010
नींद में खड़ी रहे रेलगाड़ी
तो रहें वे सारी चीजें
जिन्हें छोड़कर तुम चली गई
स्टेशन पर खड़ी थी जो रेलगाड़ी
कुछ दिनों तक नींद में पड़ी रहे
घड़ी में सात बजें
और समय थककर बैठ जाय
खो जायें चाभियाँ बाज़ार के दुकानों की
मेरी जेब में बचे रहें
छाछठ रूपये नब्बे पैसे
चप्पलें बीमार होकर पड़ी रहें
दरवाजे के बाहर
तुम्हारे आने तक
बचाना चाहता हूं इन्हें ऐसा
कि तुम कहीं गयी ही नहीं
शहर से.
Wednesday, February 3, 2010
ऐसी नींद किसे नही चाहिये!
उदाहरण के लिये यह तस्वीर। चैन की नींद सो रही श्रेया(नाम इसकी दादी ने बताया)। ऐसी नींद सबको नसीब हो। पर अभी तो शिल्प की बात। यह तस्वीर अपनी अम्बाला से दिल्ली यात्रा के दौरान मैने ली है। जब मैं इसे ले रहे हूँ तो यह बच्ची गहरी नीन्द में सो रही है और मेरे मन में दो समान लालच है। पहला कि इस लड़की की नींद ना खुले और दूसरा, इसकी तस्वीर भी मैं ले लूँ। सूचनार्थ, वह कन्धा मेरा ही है जिससे लग के श्रेया सो रही है। अब मुझे सारा काम दाहिने हाथ से करना है।
Tuesday, February 2, 2010
निकोलस गियेन की कविता : एक सर्द सुबह
वहां जहां हवाना जाना चाहता है खेतों की खोज में,
वहां तुम्हारे रौशन उपांत में।
मैं अपनी रम की बोतल
और अपनी जर्मन कविताओं की किताब के साथ,
जो आखिरकार तुम्हें दे आया था तोहफे में।
(या फिर रख लिया था तुमने ही उसे?)
माफ करो, लेकिन उस दिन
मुझे दिखी थी तुम एक छोटी अकेली बच्ची,
या शायद एक भीगी नन्ही गौरैया।
पूछना चाहा था तुमसे:
और तुम्हारा घोसला? और तुम्हारी मां, पिता?
लेकिन नहीं पूछ पाया था।
तुम्हारे कुर्ते के वितल से,
जैसे गिरीं थीं दो गिन्नियां एक कुंड में,
तुम्हारी छातियों ने बहरा कर दिया था मुझे अपने शोर से।
.........निकोलस गियेन। (कवि परिचय यहाँ)
..........अनुवाद: श्रीकांत।