Thursday, December 31, 2009

बीते साल

चन्द्रिका। विचारों तथा उम्र से युवा। राजनीति और समाज के बारे में स्पष्ट और तीक्ष्ण समझ। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में ‘किसी’ पाठ्यक्रम के छात्र। आप इनके ब्लॉग http://www.dakhalkiduniya.blogspot.com/ पर इनकी सचेत चिंतन प्रक्रिया तथा सरोकारों से लैस सामाजिक, राजनीतिक चेतना से परिचित होंगे। फैजाबाद से बनारस से अब वर्धा। यहाँ इनकी कवितायें। इनके पास भी खूब सारी प्रेम कवितायें हैं, वो सारी कवितायें ‘नई बात’ पर प्रकाशित होंगी, आपको यह सूचना देते हुए मैं बेहद प्रसन्न हूँ। अलबत्ता आज की कविता प्रेम पर नहीं, गुजरे साल पर है।



बीते साल

यह साल बहुत हल्का रहा
इतने हल्के रहे रात और दिन
कि चुरा ले गया कोई
पूरा का पूरा बरस
और हमें पता भी नहीं चला




गर्मी में नहीं हुई कोई गर्मी
बारिश में हम उतना भी
नहीं भींगे जितना
कोई पेड़
कोई पुलिया
कोई रास्ता
हर बार की तरह
एक मोड़ तक आते आते
बदल गया पूरा मौसम
एक छत है आदमी के सिर पर
जो नहीं आने देती
पूरा का पूरा मौसम



डस्टबिन में पड़ा है
बीते साल का कैलेंडर
और वहाँ बची रह गई है
कई सालों की जगह ॥

..........................चन्द्रिका

Tuesday, December 29, 2009

सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़ा होना

सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़े
होने की बहुत सी वजहें हो सकती हैं मसलन ये कि यह
क्रम बदस्तूर पिछली कई सुबहों से जारी है और इस
निरंतरता में मिल गया है कोई ऐसा अर्थ जो जीवन
की लगातार जारी प्रक्रिया में और कहीं संभव नहीं था.


सुबह सुबह बस स्टॉप पर कहीं नहीं जाने के लिए खड़े होने के मामले में ऐसा भी
हो सकता है कि यह पूरी रात लगातार खड़े रहने के बाद के सुबह की स्थिति हो और
खड़े होने वाले का साथ रात के विस्तृत वीरान और अँधेरे के सिवाय किसी मकान के कमरे से बमुश्किल पहुँच रही एक टुकड़ा रौशनी और बलगम से जकड़ी लम्बी लम्बी खांसियों ने दिया हो.


इसकी एक वजह के तौर पर यह भी सोचा जा सकता है कि
मेहनत और पसीने से कमाई शुरू करने वाला कोई पूंजीपति
सामने की सड़क पार वाले विशालकाय घर और पूंजी के रूप
में अपनी पत्नी और संतानों के असुरक्षाबोध से ग्रस्त रात भर
उनकी रखवाली किया हो अथवा अपनी पत्नी, बेटे और बहुओं
द्वारा खुद को घर में पडी एक गैरज़रूरी चीज़ मान लिए जाने
की उपेक्षा में पूरी रात बस स्टॉप की खुली छत के नीचे खड़ा
खुद के किये को कोसता रहा हो.


ऐसा होने का एक और कारण यह भी संभव है कि खड़ा होने वाला सख्स
सूरज की रौशनी के प्रत्येक खुली जगह में बिखर जाने को दिन नहीं मानता और
खुद पर आरोपित दुनिया भर की मान्यताओं से ऊबकर वह अभी अभी सुबह
की सैर पर निकला हो.


और कोई इसलिए भी तो सुबह सुबह बस स्टॉप पर
खड़ा हो सकता है कि उसे किसी ऐसी जगह जाने
वाली बस का इंतज़ार है जहां अब दुनिया की कोई
बस नहीं जाती लेकिन चूंकि उसने किसी ऐसी ही सुबह
में एक बस से उस सफ़र को तय किया था इसलिए उसे
यकीन है कि वह सुबह कभी न कभी फिर से ज़रूर आएगी.

...............................................................श्रीकांत

कवि से सम्पर्क…..shrikant.gkp@gmail.com

Saturday, December 26, 2009

प्यार करता हुआ कोई एक...

लीशू, सूरज, पूजा, श्रीकान्त के बाद मनोज कुमार पाण्डेय। इस ब्लॉग पर इनकी कवितायें। इन कविताओं से पहले, बतौर कहानीकार अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करा चुके। शहतूत कहानी संग्रह चर्चित। लखनऊ में रहनवारी। मनोज की कहानियों पर विस्तृत चर्चा यहाँ उप्लब्ध।

लगे हाथ मन की एक बात आप सबसे बाँटना चाहूँगा - ब्लॉगिंग की शुरुआत करते हुए जरा भी अन्देशा नहीं था कि इतने गम्भीर साथी ‘नई बात’ से जुड़ते चले जायेंगे। किसी नये काम के शुरुआत में जिस विश्वास की जरूरत होती है वो भी आप सब से भरपूर मिला। सबका आभार। आज यह भी बताना चाहूँगा कि इस ब्लॉग पर कुछ ही दिनों में विश्व कविता में अब तक के सर्वोत्तम हस्ताक्षरों मे से एक मिर्जा गालिब पर एक लेखमाला की शुरुआत होगी। यह लेखमाला ख्यात युवा आलोचक डॉ. कृष्णमोहन द्वारा लिखी जायेगी। बस थोड़ा सा इंतजार...।

फिलहाल तो मनोज की उम्दा प्रेम कवितायें। एक एक कर के।

प्यार करता हुआ कोई एक...

भीतर ही भीतर जलती रहती है एक आग
जिसे भीतर का ही पानी धधकाता रहता है पल पल
हवायें चलती हैं तूफान से भी तेज
जिसे भीतर का ही पहाड़ रोकता है
कहीं बह रही होती है गर्म धारायें
उसी पल एक हिस्सा बदल रहा होता है बर्फ में
कहीं तैर रही होती है रौशनी
कहीं घिर रहा होता है अन्धेरा घुप्प
भीतर बसते हैं अच्छे बुरे लोग
उनके भीतर बसती हैं अलग अलग दुनिया
प्यार करता हुआ कोई एक पूरी पृथ्वी होता है
घूमती हुई पृथ्वी के उपर सबकुछ चल रहा होता है
जस का तस।
..................................................मनोज पाण्डेय
लेखक सम्पर्क – chanduksaath@gmail.com

Wednesday, December 23, 2009

होठों के फूल

नहीं,
नहीं है कुछ भी ऐसा मेरे पास
जो तुम्हे चाहिये

मुझे चाहिये
तुम्हारी निकुंठ हँसी से झरते बैंजनी दाने
तुम्हारे होठों के नीले फूल
अपने चेहरे पर तुम्हारी फिरोजी परछाईं
मुझे निहाल कर देगी

अपने भीतर कहीं छुपा लो मुझे
मेरा यकीन करो
जैसे रौशनी
और बरसात का करती हो
किसी पीले फूल
किसी जिद
किसी याद से भी कम जगह में बसर कर लूंगा मैं

अब जब तुम्हे ही मेरा ईश्वर करार दिया गया है
तो सुनो
मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिये
अथवा मृत्यु।

............................................सूरज
कवि से सम्पर्क – soorajkaghar@gmail.com

Monday, December 21, 2009

बेहोशी

नये साथियों की सूची में यह होनहार नाम - श्रीकांत दुबे। बाईस की कुल उम्र। हरेक ईमानदार की तरह, पहला प्रेम ही इनके जीवन की पहली रचना हुई। गोरखपुर से बनारस से दिल्ली से अभी बंगलौर। ‘’पूर्वज” कहानी से और साथ ही अपने शानदार व्यवहार से भरपूर चर्चित। पॉच वर्षों के सघन और उर्जावान प्रेम के बाद एक दिन अचानक प्रेमिका को घर की याद आ गई और उसके बाद हमने, हम सबने, किस्से कहानियों में नहीं, असल जीवन में प्रेम का घातक असर देखा। “पहला प्रेम जब राख हो गया खुद को बचाया उस साँवली नृत्य शिक्षिका ने..दंगे के खिलाफ दिखी वह प्रभातफेरी में..” की जीवनदायिनी तर्ज पर श्रीकांत ने खुद को कविता और नौकरी के सहारे बचाया। हम सब उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
बेहोशी
एक छोटी मृत्यु है बेहोशी.

बेहोशी के बाद होश आना एक पुनर्जन्म के जीवन की तरह है
बेहोशी के बाद बेहोशी के पहले की याददाश्त का धीरे धीरे वापस
आ जाना पिछले जन्म की विरासत को बदस्तूर अगले जीवन
तक लाये जाने जैसा है.

बेहोशी कि प्रक्रिया के दौरान अधिकतम चीज़ों का यथावत
रह जाना एक सुखद आश्चर्य भी हो सकता है लेकिन यह भी
संभव है कि बेहोशी के बाद के समय में बेहोशी के पहले की
याददाश्त कभी वापस न आती हो और बेहोश होने वाला तमाम
दूसरी मान्यताओं की ही तरह बेहोशी की घटना को अपने अतीत से
जुड़ा मानने लगे और पृथ्वी पर सृष्टि के इतिहास की अनेक
व्याख्याओं की तरह उसके मस्तिष्क ने भी अपनी बेहोशी
के पहले के जीवन की एक कहानी गढ़ ली हो और इस अचानक
गढ़े तिलिस्म में पूरी दुनिया सहायक की भूमिका निभाने
लगी हो. कुछ नहीं बदलने का बोध एक अनिवार्य भ्रम भी संभव
है जैसा कि रेटिना पर बने उलटे प्रतिबिम्ब को मस्तिष्क द्वारा हर बार
सीधा देखे जाने की स्थिति में होता है.

बेहोशी संभावनाओं का एक आकाश भी है जिसके भीतर सबसे
सुखद चीज़ प्रेम नहीं है. बेहोशी की दुनिया के भीतर हमारी
भाषाएं और व्याकरण अनावश्यक चीज़ें हैं और संभव है
कि वहाँ अभिव्यक्ति का कोई माध्यम अपनी सदियों जारी
विकास प्रक्रिया को जल्द ही पूरी कर लेने वाला हो जिसके बाद बेहोशी के
भीतर के जीवन कि दिलचस्प कथाएँ, इतिहास, मिथक और
तकनीकों पर बहस और शोधों का सिलसिला चले बेहोशी के बाहर
के जीवन में ब्रह्माण्ड के एक ही ग्रह पर खोजे गए जीवन के इन दोनों स्तरों
में सूचनाओं और संचार का विकास भी जारी हो जाए और दोनों के
बीच संस्कृतियों, रहन सहन और एक दूजे के
इतिहास से उठाए प्रेरक प्रसंगों की अदला बदली भी.

इन दोनों के सिवाय एक तीसरी दुनिया के बारे में भी सोचा जा
सकता है जो मृत्यु है और जिसके भीतर बेहोशी की दुनिया के भीतर के
रहस्यों से कई गुना अधिक संभावनाएं अब तक छुपी हुई हैं
लेकिन बेहोशी और मृत्यु के बाहर के जीवन से दोनों को एक
साथ देखने पर इनमें ढेर सारी चीज़ें एक जैसी लगती हैं.

एक संभावित निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है
मृत्यु एक लम्बी बेहोशी है.
..................................श्रीकांत
(पूर्वज कहानी तद्भव 16 में प्रकाशित)
(कोट की हुई कविता पंक्ति मशहूर कवि आलोक धन्वा की कविता “सात सौ साल पुराना छन्द” से है।)

Saturday, December 19, 2009

नाम तुम्हारा


बुजुर्गों की एक ही मुश्किल रही
तुमसे अपरिचय उनका ले गया उन्हे
दूसरे कमतर नामों वाले देवताओं के पास
सीने को दहला देने वाली खांसी
खुद को झकझोरती छींक
के बाद लेते हैं वो उन ईश्वरों के नाम
मैं लेता हूँ नाम तुम्हारा

मैं तलाशता हूँ, ईश्वर को नहीं, ऐसे शुभाशुभ मौके
जब ले सकूँ मैं नाम तुम्हारा, पुकारूँ तुम्हे

“जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं सी स्पेलिंग हो
छोटी-सी, प्यारी-सी तिरछी स्पेलिंग”
हाँ, देखो कि तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
पहिचानते थे,
ये तुम हो और शमशेर थे जिनने मेरी बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास रंगीनियाँ भाँप ली थी,
शमशेर थे जो मुझे इसी शरीर से अमर कर देना चाहा-
वो भी तुम्हारी बरकत।

तुम्हारे नाम के रास्ते वे मेरे दु:ख तक आ पहुंचे
खुद रोये और मुझे दिलासा दिया
तुम कौन से इतिहास की पक्षी हुई ठहरी कि
तुम्हारे नाम से शमशेर मुझे जानते थे,
उनकी बेचैन करवटें
मेरे लिये थी, आज भी ‘प्वाईजन’ की लेबल लगी
हंसती दवाओं और मेरे बीच शमशेर हैं,
तुम्हारे नाम से गुजर वो मुझ तक
इस हद तक आ पहुंचे।

तुम मेरे जीवन से कहीं दूर जाना चाहती हो,
इसे जान शमशेर मेरे लिये रोये होंगे,
ये उनकी ही नहीं समूचे जमाने की मुश्किल है,
ये संसार मुझे तुमसे अलग देखना नही चाहता और तुम यह नही


शमशेर ने मेरा तुम्हारा जला हुआ किस्सा फैज को सुनाया होगा
(तुम्हारा नाम [और तुम] है ही इतना अच्छा)
फैज तुम तक आयेंगे और जब कहेंगे कि अब जो उस लड़के के
जीवन में आई हो तो ठहरो के: कोई रंग, कोई रुत, कोई शै
एक जगह पर ठहरे।


मेरे हबीब, फैज़ की बात ऊँची रखना।

.....सूरज
(तस्वीर सूरज की है।)

Thursday, December 17, 2009

कैसे बताऊँ राज-ए-इश्क....

एक बार फिर करनाल रेलवे स्टेशन।

यह तस्वीर पोस्ट करते हुए एक संकोच मन में लगातार बना रहा कि इसे इजहार का अश्लील नमूना ना समझ लिया जाये और मेरे इस प्रयास को एक उच्श्रृंखल व्यवहार। जबकि मेरा यह भरपूर मानना है कि और जो भी हो, यह कहीं किसी कोने से अश्लील इजहार नहीं है। साथ ही यह भी, बचपन से ऐसी लिखावटों को पढ़ना ठीक लगता है। इजहार के ये तरीके आकर्षण लिए रहे हैं। मालगाड़ियों के लाल डब्बों पर लिखी ये इबारतें अक्सर पढ़ने को मिलती हैं। कहीं कहीं तो गाँव कस्बे का नाम भी दर्ज मिलता है। लड़के और लड़की का नाम भी। मैं सोचता हूँ कि इतनी मेहनत करने की हिम्मत जुटाना भी एक बात है। जिस किसी आशिक ने इसे लिखा होगा उसे जब कभी इसकी याद आती होगी वो, शायद, मुस्कुराता होगा और पुन: एकाध बीते ख्यालों से गुजर कर अपने काम में लग जाता होगा। दक्षिण मध्य रेल के इस डब्बे पर लिखी यह इबारत कहाँ कहाँ घूम आई होगी।

Monday, December 14, 2009

करनाल रेलवे स्टेशन पर कुछ गुत्थियाँ


यह तस्वीर करनाल रेलवे स्टेशन पर ली गई है। उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी है, मेरे सामने वह किताब खरीदी जो उसके हाथ में है। दोनों पुलिस वाले उतनी देर उस रस्सी, और उस रस्सी में बँधे आदमी, को थामे खड़े रहे जब तक की उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी है, अपनी मनपसन्द किताब नहीं खरीद ली। वो किताब ज्योतिष की है। उस आदमी ने, जिसके हाथ में हथकड़ी लगी हुई है, पुलिस वालों को कुछ देर ज्योतिष में अपनी रुचि और गहरे ज्ञान के बारे में बताता रहा जब तक कि उनके प्रतीक्षित रेल की सूचना नहीं हुई।
मुझे यह दृश्य अजब लगा। लगा कि क्या बात है! और आश्चर्य कि तस्वीर को अब ध्यान से देखने के बाद एक नितांत नई और उतनी ही ताकतवर गुत्थी बनती नजर आई – पिछे बैठा प्रेमी युगल। कौन नहीं जानता कि करनाल जैसी छोटी जगहों पर प्रेम करने वालों के लिए ऐसी सुखद मुलाकात परिकल्पना या गप्प होती है।

Wednesday, December 9, 2009

महापुरुष का कथन और पराजित प्रेम

मैं किसी ईश्वर की तलाश में हूँ

जिस किसी ने कहा ईमानदार स्वप्न देखने वालों की मदद चाँद तारे आदमी आकाश सूरज बयार सब करते हैं गलत कहा/ प्रेम करते हुए मुझे अपनी प्रेमिका से भी यह आशा थी आशा ही रही औरों की तो बात क्या/ तुम्हे खोने के डर से थरथराता रहा और तुम थी कि मुट्ठी की रेत थी/ डर था मेरे स्वप्न को बेईमान कह दिया जायेगा और तुम वो पहली थी।

तुम कब थी ही यह बताना कठिन है पर जब थी मैने ठान रखा था तुम्हारे होठों के संतरें वाले रँग मैं कौमी रंग बनाउंगा उन संतरों के बाग मशहूर हो जायेंगे और मेरी प्यास अमिट/ मेरी अमिट प्यास की खातिर मेरे स्वप्न के भव्य चेहरे पर लम्बी नीली नदी का दिखता हुआ मखमली टुकड़ा है।
(बाकी बची नस सरस्वती की तरह ओझल)
(ठान अब भी वही है और तुम ‘अब भी’ हो)

हम ऐसे जुड़े कि निकलना बिना खरोंच के सम्भव ना था/ अपनी खरोंच से पहले यह मानना नामुमकिन था कि आत्मा से खून रिसता है/ तुम्हे मेरी आवाज से डरने की कोई वजह नहीं जैसे मेरे लिये तुम्हारी खुशी से विलग कोई मकसद नहीं/

डर है तुम्हे बजती हुई मेरी नवासी चुप्पियाँ ना सुनाई पड़े

एक कम नब्बे की संख्या, एक जिप्सी, एक बस और एक ही रात/ क्या खुद प्रेम को पराजित होने के लिये इन सबका ही इंतजार था/ पसन्द नापसन्द के बीच कोई झूला नहीं होता/ कोई कविता नहीं आई मुझे बचाने/सूरज देर से निकला/ मैने नींद से टूट जाने की प्रार्थना भी की/

प्रेम मकसद है पूरा का पूरा/ पर खरोंच भी एक गझिन काम है/ दुख देता हुआ/ समुद्र सी फेनिल यादें/ दरका हुआ आत्मविश्वास/ मांगता है
कुछ अजनबी ईंट,
अपना ही रक्त,
और उम्र से लम्बी उम्र।

-सूरज

Friday, December 4, 2009

शत्रु

मित्रता
जीने के आसान
से आसान हथियारों में से एक है।

जीवन भी कैसा/ कनेर की जामुनी टहनी/भारहीन गदा
भांजते रहो
आदर्श मित्रता कितनी सुखद रही होगी, कल्पनाओं में
कैसा घुटा जीवन बिताया होगा मित्रता की मिसालों ने
छोड़ देना प्रेमिका अपने मित्र के लिये, त्यागना प्रेम
(अपनी असफलता को ऐसा नाम देना)
माफ है
कि मरे हुए को कितनी बार मारोगे
मित्र के साथ
मित्र के लिए
विचार से जाना अपराध
है, चालू जीवन का शिल्प भी

मेरा शानदार दुश्मन खींचता है मुझे
विचारों के दोराहे तक, पैमाना है मेरा
मेरा शत्रु इतना ताकतवर जो पहुंचा आता
मुझे निर्णय के साफ मुहाने तक

जिनसे जूझता मैं आगे ही आगे
हर शत्रु मेरा सगा
हर निर्णय मेरा अपना।

सूरज.
Soorajkaghar@gmail.com

(सूरज की एक और कविता)

Wednesday, December 2, 2009

लॉटरी की वापसी

ये खबर अभी किसी याद की तरह ताजा है कि कांग्रेस सरकार “जनहित” में लॉटरी की शुरुआत फिर से करने वाली है, इससे जुड़ा कोई महत्वाकांक्षी बिल संसद मे पेश करने वाली है। जिन राज्यों मे लॉटरी का कारोबार चलता है कभी उन लॉटरियों का विज्ञापन देखिये, वो कुछ इस तर्ज पर होते है:- महालक्ष्मी लॉटरी, खेले आप, विकसित होगा राज्य। ऐसे ऐसे तमाम विज्ञापन। उदाहरण के लिये अपना महाराष्ट्र। वहॉ ऐसे खेल इन्ही विज्ञापनों के सहारे फल फूल रहे हैं। इस खेल के पीछे कोई ना कोई मंत्री या दूसरा रसूखवाला ही क्यों होता है ये जान लेना हमारे आपके बस का नहीं है। हम तो इतने लाचार है कि चाह ले तब भी बर्बादी के इस खेल की पुन: वापसी रोक नहीं सकते।

पर क्या हम यह भी नहीं सोच सकते कि अपने जीवन मे हमने लॉटरी से जुड़ा क्या खेल देखा है? हमारे आपके जीवन में ऐसे पात्र जरूर हैं जिन्हे शराब या पैसे की तरह लॉटरी का नशा है या था।

लॉटरी से तबाह होने वालों को अपनी आंखो से देखा। मेरा एक मित्र था जिसने मुझे लॉटरी के नम्बर पकड़ना सिखाया था। उसका दिमाग इसमें खूब चलता था। बचपन में हम लॉटरी का स्टाल देखते थे और तमाम फंतासियॉ बुना करते थे। पर डर लगता था। उस उस समय कभी आजमाया नहीं और बाद में किस्मत जैसी चीजों का कोई मह्त्व नहीं रहा।

लॉटरी आपको कैसी लगती है? क्यों ना लॉटरी पर आपकी राय हम जाने? क्यों ना हम आपके शहर/कस्बे के उन लोगों के बारे मे जाने जो राज्य का विकास कर रही लॉटरी के चक्कर में बर्बाद हो गये और अपने आश्रितों को भी सड़क पर ला दिया? उनके बारे में जानना सुखद होगा जो लॉटरी से आबाद भी हुए, भले ही वो लाखों में एक क्यों ना हों?

अपन इतना तो कर ही सकते हैं कि इसे सम्भाल कर रखेंगे और जब इस वैज्ञानिक समझदारी वाले देश में जुये(लॉटरी) का जानलेवा खेल अखिल भारतीय स्तर पर शुरु होगा तब उन व्यवसायिओं को इसका पुलिन्दा बना कर भेजेंगे।

Friday, November 27, 2009

सत्येन्द्र दुबे का भांजा होने का भार और 27 नवम्बर

सत्येन्द्र दुबे। मसखरी राजनीति ने शहीद और इंकलाब जैसे मूल्यवान शब्दों को मजाक बना कर रख दिया है वरना आज मैं सत्येन्द्र के लिये इस शब्द का प्रयोग जरूर करता। जानने वाले जानते है कि एक बेहद बूढ़े प्रधानमंत्री की स्वप्निल सड़क परियोजना से अगर किसी को सर्वाधिक नुकसान हुआ तो वे सत्येन्द्र दुबे जी थे। इक्कतीस साल की कुल उम्र उन्हे मिली, जिसमे उन्होने आदर्श जीवन जिया। परिवहन मन्त्रालय की जिस परियोजना मे सतेन्द्र दुबे ‘’प्रोजेक्ट डाईरेक्टर” थे और जिस धोखाधड़ी के खुलासे करने के कारण उनकी गया(बिहार) में 27 नवम्बर 2003 को सरेराह हत्या हुई उनदिनों कहने भर का एक फौजी, परिवहन मंत्री था जो बाद मे मुख्यमंत्री भी बना। मेरे पिता को उनकी हत्या के बाद भी लगता रहा कि वो हत्यारों को सजा दिलवा देंगे। मुझे उनकी मासूमियत के लिये घोर अफसोस है।

सत्येन्द्र दुबे मेरे मामा लगते थे। चाची के भाई। ऐसे मे मेरा बचपन अजीब सी तुलनाओं मे बीता। मामा के बारे मे किस्से थे जो खूब मशहूर थे – सत्येन्द्र 20 से 22 घंटे पढ़ता है(ऐसा अक्सर मुझे सुना कर कहा जाता था)। मुझे गिल्ली डण्डा खेलते देख गाँव का कोई भी शुभचिंतक मुझे सुना देता था – इस उम्र मे सत्येन्द्र को पढ़ते रहने से चश्मा लग गया था। यह सुन कर मैं खेलना छोड़ देता था। मुझे रजाई मे देख चाचा कहते थे – सत्येन्द्र तो तकिया भी नहीं लगाता है। यह तब की बात है जब मामा ने आई.आई.टी की परीक्षा पास कर ली थी। बाद उम्र में आई.ई.एस हुए। आई.ए.एस भी क्वालिफाई किया और यह आज भी रहस्य है कि फिर भी उन्होने आई.ई.एस ही क्यों चुना?

उनकी लगन इतनी मशहूर थी कि हम कभी यह अपेक्षा भी नहीं करते थे-वो हमारे घर आयेंगे। उनके तो उनके, हमारे गाँव के कितने ही भोले लोग इस इंतज़ार मे थे कि जब सत्येन्द्र की नौकरी लगेगी तो वो उन सबका भी उद्धार करेंगे। इस बीच जब भी कभी वो हमारे गाँव आये मैं उन्हे छुप के देखता था – ऐसा क्या है इनमे जो लोग इनसे मेरी तुलना करते हैं।

बात तब की है, जब मैं साहित्य से जुड़ चुका था। जानता तो किसी को नहीं था पर पढ़ता खूब था। साहित्य से पहला परिचय ही यह बता गया कि यही मेरा उद्देश्य होने वाला है। साहित्य तथा दोस्तो का प्यार मुझे इस बात का दिलासा देता रहा कि मैं भी जीवन में कुछ कर सकता हूँ। मैं अपनी पहली कहानी लिख रहा था और कहीं ना कहीं मेरी निगाह सत्येन्द्र मामा पर भी थी। मुझे लगता था कि किस्से कहानी मुझे इतना बड़ा कद देंगे जितना कि खुद मामा का सामाजिक कद।


तभी वो हादसा हुआ।

मैं अपनी पहली कहानी पूरी करने वाला था कि एक सुबह तड़के पापा आये। उनकी आवाज में डरावनी उदासी थी। इससे पहले पापा को मैने आज तक उदास नहीं देखा था। उन्होने कहा तो कुछ भी नहीं, हिन्दुस्तान अखबार का पटना संसकरण और इंडियन एक्सप्रेस का अखबार मेरी ओर बढ़ा दिया। वहीं यह मामा की हत्या की दुखद खबर छपी थी। अम्मा बहुत रोई थी। बहुत। कुछ मामा के लिए, कुछ बूढ़े नाना नानी के लिए और दूसरे आश्रितों के लिये। नाना ने उनकी पढ़ाई के लिये अपनी दुकान तक बेच दी थी।
मैने अपनी कहानी स्थगित कर दी थी। साल भर बाद मेरी नितांत पहली कहानी लिखी गई।

अगर प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश से कुछ उधार लूँ तो बड़ी उम्मीद से कहना चाहूँगा कि मामा आप अभी है। हमारे आस पास। बस घर के किसी कोने मे आप, नेल कटर की तरह, खो गये हैं जो ढूढ़ने से भी नहीं मिल रहा।




Thursday, November 26, 2009

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

लीशू और सूरज के बाद अब पूजा। पूजा सिंह। Network 18 से जुड़ी पूजा की इस कविता में अनोखी उर्जा है, आत्मविश्वास है। इनका व्यक्तित्व इतना शानदार और गजब कि अगर रिश्ते निभाने और 'गुस्सा होने' की प्रतियोगितायें हो तो दोनो में ही प्रथम आयेंगी। गोरखपुर के धुर देहात से निकल, पत्रकारिता की पढाई - नौकरी। दु:खद यह कि शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र मे जगह बनाने के लिये जो संघर्ष करना पड़ा उसमे कविता ही जाती रही। स्नातक की पढ़ाई के दिनों मे लिखी कुछ में से यह कविता इस लिये भी महत्वपूर्ण है कि इसके जरिये हम देखेंगे: समय का दबाव कितना गहरा है और अपने आप को व्यवस्थित करने की जो लड़ाई हम लड़ रहे है उसमे कैसी कैसी प्रतिभायें अपने रोयेंदार पँख समेट लेने पर विवश हैं।

समय के दबाव मे प्रतिभाओं के छिप जाने के किस्से तो हमने बहुत सुने थे, पर पहली बार आंखो देखी। मै पूजा को भरपूर जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि उनके ‘कंसर्न’ और ‘कमिटमेंट’ मे कहीं कोई कमी नहीं है। ऐसे मे क्या यह पड़ताल नहीं होनी चाहिये कि आखिर इस बारूद समय मे ऐसा क्या है जो हमें हमारी असल राह भुलाने में ही यकीन रखता है, ऐसा क्या है जो हमारे संघर्षों के बदले हमारे कोमल मन पर कब्जा जमा लेता है? क्या पूजा को और से और कवितायें नहीं लिखनी चाहिये?


मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ
जिसका करती हूँ नित्य दर्शन
फिर भी नहीं होती
पूरी मन की तृष्णा


कभी लगता एक अबोध बालक सा
कभी हो जाता इतना ज्ञानी जो
सारे जग को प्रकाशित करने में
सामर्थ्यवान .....लेकिन
अस्तिव खो जाने के भय में जीती
इधर मैं


जबकि मैं हूँ उसकी प्रेमिका
आखिर मैं हूँ उसका हिस्सा
अभिन्न
फिर क्यों मुझे भुलाकर
पीछे छोड़कर
चलता चला जाता है वह
अपनी अजब गति से और
छोड़ जाता है एक जिजिविषा
एक विश्वास

है वह मेरा
इस तरह स्पर्श करेगा वह
मेरा कल, क्योंकि मैं हूँ
उसकी,
अपने सूर्य की प्रेमिका।

-पूजा सिंह

Tuesday, November 24, 2009

सूरज कवितायें लिखता है

इत्तफाक से मेरे मित्रों मे ऐसों की भरमार है जो छपने से घबराते है। कुछ दिनों पहले मैने लीशू की कवितायें आप तक पहुंचाई, इस बार सूरज की कवितायें।

मैं और सूरज बचपन से एक दूसरे को जानते हैं। वो चुप्पा लेकिन शानदार इंसान है और मुझे उसकी कवितायें बेहद पसन्द है।इस बात पर कहता है कि दोस्त होने के नाते मैं ऐसा कहता हूँ। उसने आजतक कोई कविता कहीं नहीं छपाई। कहीं किसी पत्रिका को अपनी कवितायें भेजता तक नहीं है जबकि शर्माने की उमर से बहुत आगे निकल आया है। ये कवितायें मैने उसे सूचित कर उसकी डायरी से ली हैं। देर तक नखरे करते रहने के बाद राजी हुआ(या क्या पता सच में शर्माया हो) और मुझे भी लगा, ये कवितायें पाठकों तक पहुंचनी चाहिये। आप बताइये, मैं ‘बस’ सही हूँ या बिल्कुल सही हूँ?

हवा से करार

दूरियों से मुझे हल्का गुस्सा है।
तुम ना हो तो दूरी का क्या,
होना। और न होना


मैं गाता हूँ प्रेम का सिनेमाई, पर जान लेवा गीत
और ये दूरी है जो तुम्हे मेरी चुप्पी बता आती है

ऐसा करो मेरी जान, तुम हवाओं पर दौड़ती हुई
चली आओ
मुझसे मिल जाओ
नहीं, ऐसा नहीं, दूरियों से मैं घबराया नहीं
(परेशान जरूर हूँ)
बेताबी है, पर ऐसी जैसे सुलग रहा हो कोई
चेहरा
चूल्हा
कान की लवें। बुझने की बात ही क्या?

तुम जिस गति से आओगी
तुम जिस गति से ‘मुझसे’ मिलने आओगी
मुझे मालूम है
पृथ्वी को भी मालूम है

पृथ्वी तुम्हे भरपूर मदद करेगी / तुम जहाँ पैर रखोगी जमीन ढीली हो जायेगी / तुरंत के पूरे किये प्रेम के बाद के जोड़े की तरह / फिर भी दूरी तो दूरी है / चोट आयेगी / तुम्हारे पैरों से निकला एक बूँद रक्त पृथ्वी की सारी खामोशी मिटा देगा / पृथ्वी उदास हो जायेगी / उसके झरने, फूल, बारिश, तुमसे कम उंचे पहाड़, तुमसे कम गहरे समुद्र उदास हो जायेंगे

मैने हवाओं के ड्राईवर से बात चला रखी है
वो तुम्हे ख्यालों के खूबसूरत सूटकेस की तरह ले आयेंगे

यदि कर सका मैं अग्रिम भुगतान
हवा भेजती रहेगी मुझे पल प्रतिपल तुम्हारी
बेजोड़ परछाईंयों के रंगीन लिफाफे।

Monday, November 23, 2009

क्या हम ऐसे ही देश के वासी हैं?



कोई सुने तो शायद ही विश्वास करे कि भारत के सबसे अग्रणी विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ इतना अमानवीय सलूक किया गया। एक मामूली विवाद जिसमे जेनयू के छात्रों का एक जरा भी दोष नहीं था, पुलिस ने अपराधियों को बचाने के लिये निर्दोष छात्रों पर लाठी चार्ज किया जिसमे पचास से उपर छात्र घायल हुए है। पन्द्रह की हालत गम्भीर है। सबसे पहले हम निर्दोष छात्रों के स्वस्थ होने की प्रार्थना करेंगे फिर आगे की बात।
घटना कुछ यों घटी: चार बिगड़ैल रईसजादे, जिन्हें उनके घर आंगन से नीचता और बुराई की शिक्षा ही मिली हुई है, जेनयू आये। 24×7 ढाबे पर शराब पिया(जाहिर है कुछ खाया भी होगा)। फिर शराब और ताकत के नशे मे चूर होकर छात्रों से बद्तमीजी किया। छात्र जो आजकल सेमेस्टर परीक्षाओं की तैयारी मे लगे है, पहले तो इनकी “तमीजदार” हरकतों पर ध्यान नहीं दिया पर जब वे एकजुट होकर इसका विरोध किये तो ये चार गुंडे भाग निकले।

गुंडों के पास कार थी इसलिये इनकी रफ्तार के नीचे आने से बाल बाल बचे लोगों ने विश्वविद्यालय सुरक्षा को फोन मिलाये। जेनयू मेन गेट पर जब सुरक्षाकर्मियों ने इन्हे रोका तब इन चार गुंडों मे से एक ने पिस्टल दिखाया। पिस्टल देखते ही बड़ा दरवाजा बन्द करा दिया क्योंकि मेन गेट पर एक नहीं दस पन्द्रह सुरक्षाकर्मी रहते है। जैसे ही मेन गेट बन्द हुआ एक अंतहीन कहानी शुरु हो गयी जिसमे, अगर अब तक के इतिहास को देखें तो कल के दिन से मीडिया और मीडिया के जरिये समाज के दूसरे लोग छात्रों को ही गलत साबित करेंगे।

चूकि विश्वविद्यालय सुरक्षा अजेंसी निजी कम्पनी के हाथ मे है इसलिये इनके सारे अधिकार दिल्ली पुलिस के पास गिरवी हैं। इन्होने तुरंत दिल्ली पुलिस को बुला लिया और “महान” दिल्ली पुलिस ने आते ही अपना काम शुरु कर दिया – उन चार गुंडों को बचाने का काम। खबर है कि चारो बेहद शक्तिशाली घराने से हैं। दिल्ली पुलिस कितनी ताकतवर है या दिल्ली पुलिस का एक हाईस्कूल पास सिपाही(साथ मे अधिकारी भी थे) कितना ताकतवर है इसका अन्दाजा इस बात से लगा सकते है कि छात्रों तथा सुरक्षाकर्मियों के लाख आग्रह के बावजूद दिल्ली पुलिस की महान सत्त्ता ने एफ.आई.आर मे पिस्टल को पिस्टल नहीं लिखा। कभी उसे खिलौना बन्दूक लिखा तो कभी लाईटर लिखा तो कभी कुछ लिखा।

बहरहाल छात्रों की मांग बस इतनी थी कि इन चार गुंडों की शिनाख्त हो। पता तो चले कि ये हैं कौन जिनके अमीर खानदान की गुलामी दिल्ली पुलिस तक कर रही है, जो आराम से जेनयू मे बन्दूकें लहराते दिखाई पड़ते हैं? पर दिल्ली पुलिस ने यह नहीं होने दिया। और अंतत: जो हुआ वो यह कि सैकड़ो निर्दोष छात्र, अपनी मामूली मांग के बदले, पुलिस की बेरहम लाठियों से पीटे गये। आंसू गैस के गोले छोड़े गये। हवाई फायर हुआ। खबर यह भी है कि कुछ छात्र गोली का शिकार हुए हैं। मैं चाहूंगा कि ये खबर अफवाह बन जाये। नौजवानों की मृत्यु की खबर से वीभत्स कोई दूसरी खबर नहीं होती है।
उन चार गुंडों को बचाने मे लगी पुलिस इस कदर मुस्तैद थी कि घटना स्थल पर तीन वैन लाठी-बन्दूक से लैस पुलिस पहले ही बुला ली गयी फिर दो वैन आर.ए.एफ (rapid action force) भी बुला लिया गया। जहॉ पुलिस अपने सारे काम शातिरपने के साथ पूरी कर रही थी, वहीं छात्र अपनी बात किसी तक पहुंचा नहीं पा रहे थे, मसलन “ताकतवर” मीडिया भी घटना स्थल पर सात बजे के बाद पहुंची है, जबकि छात्र कुछ गुंडों के शिनाख्त की यह लड़ाई दिन के दो बजे से लड़ रहे थे।

विश्वविद्यालय के नख दंत विहीन सुरक्षाकर्मियों के पास हथियार की जगह वॉकी-टॉकी है। ऐसे मे छात्रों के पास बस एक ही हथियार था कि वो मेन गेट खुलने ना दें। पुलिस का सारा जोर इसी पर था कि मेन गेट खुले और दिल्ली पुलिस (ए.सी.पी. रैंक तक के अधिकारी घटना स्थल पर थे) अपने मालिकों के मुस्टंडे बच्चों को लेकर भाग निकले, कुछ रिश्वत पानी का इंतज़ाम हो, कोई प्रोन्नति मिले।
उन चारो को पुलिस की गाड़ी, जो मेन गेट के अन्दर थी, मे रखा गया था। आप छात्रों के अनुशासित और मानवोचित विरोध का अन्दाजा इस बात से लगा सकते है कि वो चारो मेन गेट के इस पार थे जहॉ छात्रों की तादाद पांच सौ से उपर थी, फिर भी कोई शारीरिक क्षति उन गुंडों को छात्रों ने नहीं पहुंचाई।

पुलिस की मुस्तैदी का दूसरा नमूना यह निकला कि मीडियाकर्मियों तक को उन चार “बहादुरों” की तस्वीर उतारने की इजाजत नहीं दी गई। छात्रों के पास शाम के आठ बजे तक कोई नेता तक नहीं था। हालांकि जो खबरे, अभी रात के दो बजे तक आई है कि जिस नेता से उम्मीदें थी, जब वो सामने आया तो छात्र अपनी लड़ाई और मनोबल दोनो हार गये।क्या आपको लगता है कि ऐसे लोगो का नाम लेना जरूरी है?

अभी निहत्थे छात्र अपनी मांग मनवाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अचानक से मेन गेट खुल गया और लाठी चार्ज का आदेश हो गया। पिटने वाले तो अपनी पूरी उम्र इसे बतायेंगे पर जिन्होने ने दूसरो को पिटते हुए देखा उनका कहना है कि एक-एक छात्र को पाँच-पाँच पुलिस वाले पीट रहे थे। छात्राओं तक को नहीं बख्शा गया है। खबरों के अनुसार पचास से उपर छात्र जख्मी हुए हैं। उन चार गुंडों को पुलिस ने इसी बीच बाहर निकाल लिया। कल से उन गुंडों के पक्ष मे दलीले मिलनी शुरु हो जायेंगी। जो कुछ नहीं कहेगा वो भी इतना तो कहेगा ही कि – जेनयू के लड़को को ऐसा करने की क्या जरूरत थी? कुछ लोग देश के इन बेहतरीन विद्यार्थियों को पढ़ने और पढ़ते रहने की सलाह देंगे। विश्वविद्यालय के सुरक्षा नियम कुछ और कड़े हो जायेंगे जो कि छात्रों को ही परेशान करेंगे।

अब जबकि उन चार अमीर गुंडों की पहचान नहीं हो पाई है तो कायदे से सरकारी महकमा इस पूरे वारदात को झूठा भी करार दे सकता है। मीडिया को सरकारी विज्ञापन पाने का बेहतरीन मौका छात्रों ने खुद लाठी खाकर दिया है। खुद के शरीर पर लाठी खा कर पुलिस वालों को प्रोन्नति पाने के काबिल बनाने वाले छात्रों के प्रति आप क्या सोचते हैं? मैं घटना स्थल पर निहायत निजी कारणों से मौजूद था, अपने जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलाषा को असफल होते देख अब मेरे पास लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर जब जेनयू के मेन गेट का नजारा देखा तो निजी दुख को कुछेक पल के लिये किनारे कर वहा मौजूद छात्रों से मिला, सुरक्षाकर्मियों से मिला, पुलिसवालों से बात की। पाया कि छात्रों की मांग बिल्कुल जायज थी।

Tuesday, November 10, 2009

ब्लाईंड लव्स: एक फिल्म जो मुझे नहीं देखने दिया गया।

दिल्ली से मैं चार घंटे की दूरी पर रहता हूँ और मन की कहूँ तो बड़ी उम्मीद से मैं स्लोवाक फिल्मोत्सव के बहाने दिल्ली आया। फिल्म के नाम ने आकर्षित किया था: ब्लाईंड लव्स। करनाल से चलते हुए मैं सोचता रहा, काश फिल्म की कहानी प्रेम के तमाम गुत्थियों से उलझी पुलझी हो। जैसे दीवानापन, त्याग, ईर्ष्या, धोखा, तमाम। एक जगह रास्ते मे जब बस देर तक रुकी रही तो मैने बस ड्राईवर से भी कहा: जल्दी चलो, भाई, प्रेम कहानी छूट जायेगी। उसी दिन भारत आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच भी दिल्ली मे हो रहा था, और सड़क इतनी जाम थी कि कोई ना पूछो।

ऑटोरिक्शा वाला मनभर किराया लेकर तैयार हुआ। शीरीफोर्ट के रास्ते मे जहाँ भी जाम मिलता, वो रिक्शे वाला, मेरा यार, दस रूपये किराया बढ़ा दे रहा था। मैने भी सोचा – चलो आज यही सही और एक शानदार फिल्म के लिये इतना खर्च किया जा सकता था। हालाँकि कुछ जगहो पर हम किसी बहाने से ही जा पाते है। सामने वाले को आप सीधे सीधे आने का प्रयोजन भी नहीं बता सकते, वो लोगो को पसन्द नहीं आता, लोगो को बोझ लगता है, और मैं सिर्फ फिल्म देखने आया था।
फिल्म का समय हो चुका था जब मैं सेक्योरिटी चेक के लिये खड़ा था। मेरा बैग देखकर गार्ड ने कहा: लैप टॉप ‘अलाउ’ नहीं है। मैने कहा: दिमाग ठिकाने है तुम्हारा या लगाना पड़ेगा? अपनी बात कहते कहते मुझे हंसी आ गई। ये भी कोई बात हुई भला? मैने उससे कहा: अन्दर जाने दो यार, इस फिल्म को देखने मैं करनाल से आया हूँ। उसने कहा: आप लैपटॉप गाड़ी मे रख दे, अगर अन्दर किसी ने देख लिया तो मेरी नौकरी छिन जायेगी। मेरे पास गाड़ी कहाँ थी जो मैं लैपटॉप रख आता! फिर भी मुझे लगता रहा कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि लैपटॉप के होने से फिल्म ना देखने दिया जाये। उस गार्ड की नौकरी बची रहे इस खातिर मैने उसके अधिकारियों से बात की। उन्होनें मामले को बेहद आसानी से निपटाया: कुछ भी हो जाये, आप लैपटॉप लेकर अन्दर नहीं जाओगे। उन्होने उस बेचारे गार्ड जितना भी समय नहीं लिया।

मैं देखता रहा। मेरे सामने लोग अन्दर जा रहे थे। मैं इस तर्क को समझ नहीं पा रहा था। अगर लैपटॉप लेकर अन्दर नहीं जा सकता तो कोई एक जगह ऐसी बनाई जानी चाहिये थी जहॉ इस लैपटॉप महाशय को रखा जा सके। समय इतना कम था कि मैं कहीं दूसरी जगह भी नहीं जा सकता था। अंतत: मुझे बिना सिनेमा देखे लौटना पड़ा। अपने तमाम गुस्से के साथ मैं बाहर आया। बाहर आकर मैनें मन ही मन यह इच्छा जाहिर की कि काश यह एक सामान्य फिल्म निकल जाये। इस फिल्म मे वह सब वहो ही नहीं जिसकी इच्छा लिये मैं एक सौ चालीस – पचास किलोमीटर आया था। मैं सोचता रहा कि काश यह डॉक्युमेंट्री फिल्म निकल जाये। काश सीरी फोर्ट मे अजीबोगरीब नियम लगाने वाले का लैपटॉप खो जाये, तमाम।

ऐसे निराशा के पल कठिन होते हैं और इनसे उबरना भी। मैं वहाँ कुछ भी नहीं कर सकता था। अशक्त, निरुपाय। मुझे इस बात का बेहद दुख है।

.......पर अगर विषयांतर की इजाजत हो और थोड़ा कहने पर ज्यादा समझने के लिये आप राजी हों तो एक बात कहता हूँ ...... फिर ‘अलादीन’ के चिराग ने हमारी शाम को रौशन कर दिया। कोई ना कोई फिल्म देखने के लिये ही हमने अलादीन देखी।

Monday, November 2, 2009

पढ़ने की बात करना, किसी अनहोनी पर बात करना तो नहीं है?

नई बात के पहले सर्वे के लिये अपनी कीमती राय और वोट के लिये आप सबको धन्यवाद। इस बार का प्रश्न था; आप महीने मे कितनी पत्रिकायें पढ़ते हैं? जो जवाब आये उनसे स्थिति बेहद आशाजनक दिखती है। पैंसठ फीसदी लोगों ने कहा कि वे पाँच या उससे अधिक पत्रिकायें एक महीने मे पढ़ते हैं जबकि दस फीसदी लोगों ने अपना वोट क्रमश: एक, तीन और चार पत्रिकाओं के पक्ष मे रखा। वहीं पांच फीसदी लोगो ने कहा, वे महीने मे एक पत्रिका ही पढ़ पाते हैं। इन परिणामों के बाकायदा विश्लेषण को आप पर छोड़ते हुए एक महीन सी बात रखना चाहूँगा कि इस सवाल को पढ कर जिन मित्रो ने फोन पर बात चीत की उन्होने यह स्वीकार किया कि वे “पढ़ने, ना पढ़ने, क्या पढ़े,” जैसे मूलभूत सवालों से दो चार हुए। एक मित्र ने यह भी कहा, “ मुझे तो कोई पत्रिका देखे भी महीना हो गया है”।
अगले हफ्ते का सवाल है : आप दिन के चौबीस घंटों मे से कितना समय फोन/मोबाईल पर बिताते है?

Friday, October 30, 2009

नींद की चित्रकथा


(साभार: अमित मनोज,महेन्द्रगढ़।)

नींद स्वास्थ्य के लिये जरूरी है और उसी स्वास्थ्य के लिये सवारी भी चाहिये। आप बताइये, इस नींद मे डूबे के पास अगर सवारी आये तो ये क्या करना चाहिये?
1) नींद से उठकर सवारी ले जायेंगे।
2) सवारी को मना कर देंगे और प्यारी नींद को प्राथमिकता देंगे।
3) सवारी से ज्यादा किराया मॉग लेंगे: अगर सवारी तैयार, तब जायेंगे वरना ‘ना’ कर देंगे।



Thursday, October 29, 2009

(अ)सत्यम और हैदराबाद का एक मोहल्ला

झूठ के ऊँचे पहाडो पर टिके सत्यम की दास्ताँ सबके सामने है. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में जुटे छात्रो ने सत्यम से जुड़े सभी आकडों को रट लिया होगा.कितने करोड़ का हवाला हुआ? कितने कर्मचारी प्रभावित हुए? कौन कौन से बड़े नाम जुड़े हैं? सॉफ्टवेयर की दुनिया के दूसरे खिलाड़ियों पर इसका क्या असर होगा? इन विषयों पर कितने स्याही खर्च की गई होगी, ये किसी को शायद ही पता हो. इसलिए सत्यम से जुड़ी तमाम बड़ी बातों को रोज होने वाली चर्चा पर छोड़ते हुए हम अपनी बात एक मुहल्ले, उसके निवासियों तथा उनके रोजगार की बात करेंगे.


सत्यम के उठते गिरते इतिहास के साक्षी हैदराबाद का एक मोहल्ला है - येर्रागुड्डा.बीती सदी के आठवे दशक में जब सत्यम अस्तित्व में आया उससे पहले येर्रागुड्डा नाम की जगह गेंहू की खेती के लिए विख्यात थी. सत्यम के प्रादुर्भाव ने यहाँ के निवासियों को परोक्ष रूप से रोजगार मुहैया कराया. सॉफ्टवेयर हब और विशेषकर सत्यम के स्वप्निल उछाल के बाद अमीरपेट - येर्रागुड्डा मार्ग पर सैकडो सॉफ्टवेयर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट खुल आए, इंजीनियर्स और सॉफ्टवेयर टेक्निकल्स की मांग में हुई बेतहाशा वृद्धि इन ट्रेनिंग सेंटरों के उभरने में बड़ी मददगार साबित हुई. यहाँ सैप और ओरेकल मॉड्यूल के ट्रेनिंग लेने वालों की भीड़ लगी रहती थी. आजकल इन खाली सडको को देख कोई उस भीड़ का अंदाजा भी नही लगा सकता. इन कोचिंगसेंटरों के मालिको का कहना है कि यह उनके व्यवसाय का सबसे बुरा दौर है- एक तरफ़ आर्थिक मंदी और दूसरी तरफ़, सत्यम के फ्राड का खुलासा.

वी एस टेक्नोलोजिज के संचालक, कुर्रा श्रीनिवास कहते हैं," अब हमने कोचिंग सेंटर बंद करने का फ़ैसला कर लिया है." श्रीनिवास बताते हैं " कुछ दिनों पहले तक सैप और ओरेकल मॉड्यूल के हरेक बैच में 10 से 15 छात्र रहा करते थे. अब ऐ संख्या गिर कर 2 से 3 रह गई है."


पूजा कॉलेज ऑफ़ सैप सर्टिफिकेशन के प्रबंधक देशिनी उमाकांत का कहना है " यहाँ तक कि पाठ्यक्रम से सम्बंधित पूछताछ के मामलो में भी भारी गिरावट आई है. पहले जहाँ पूछताछ के लिए सौ से अधिक फोन एक दिन में आते थे, अब वो घाट कर हद से हद पाँच और छ: रह गई हैं. व्यवसाय में अस्सी फीसदी की सीधी गिरावट आई है." एक दूसरे परेशान हाल प्रबंधक का कहना है ," छात्र कहाँ हैं? कोचिंग का खर्च ही चला पाना मुश्किल हो गया है. ऐसे में बंद करने के अलावा कोई दूसरा चारा नही है" वैसे इस प्रबंधक का मानना है कि रामलिंगा राजू के फ्रौड के खुलासे का समय( मंदी के समय) बहुत ग़लत था.


कोचिंग संस्थानों के ही हाल को फोटोकोपियर्स भी पहुंचे हैं. एक फोटोकॉपी वाला, जिसने पिछले सात आठ वर्षो में एक बार भी गर्म चाय पी लेने मौका नही पाया होगा, अब चाय पर चाय पी रहा है और समय के साथ सत्यम को कोस रहा है.


कोचिंग संस्थान के मालिकों कि तरह अब्राहम एल, वर्सन जेरोक्स सेंटर के मालिक, भी आई हुई मुश्किल का निजात ढूंढ पाने में असफल हैं. कोचिंग संस्थान के मालिकों कि तरह अब्राहम एल, वर्सन जेरोक्स सेंटर के मालिक, भी आई हुई मुश्किल का निजात ढूंढ पाने में असफल हैं. उनका कहना है कि फोटोकॉपी का उनके व्यवसाय में पचास फीसदी कि गिरावट आई है. वे कहते हैं, " मैंने सुना है, जो छात्र मेरी दूकान पर आया करते थे, घर चले गए हैं." इसके स्सथ वो यह भी जोड़ देते है कि पर्याप्त व्यवसाय न होने के कारण दूकान बंद करनी पड़ सकती है.


वैसे यहाँ के कोचिंग संस्थानों ने अपनी अनोखी विस्वसनीयता अर्जित की है. सत्यम के साथ अस्तित्व में आए ये कोचिंग संस्थान भारतीय छात्रों को ही नही, विदेशी छात्रो को भी लुभाते हैं. इसके दो महतवपूर्ण कारण हैं: जिन पाठ्यक्रमो की फीस दिल्ली और बंगलूर में 30,000 और 40,000 रूपये है उन्ही पाठ्यक्रमो के लिए इन कोचिंग संस्थानों की फीस 10,000 रूपये है. छात्रो का कहना है कि यहाँ की फैकल्टी भी काफी अच्छी है. शहर के तकनीकी विशेषज्ञ भी इन सर्टिफिकेट्स को खूब महत्व देते हैं. इनकी विस्वसनीयता का आलम यह है कि आधा पाठ्यक्रम को पूरा कर पाने वाले सर्टिफिकेट्स ने भी बढ़िया से बढ़िया नौकरियाँ लोगों को दिलाई है. लोगो का कहना है कि अब ये बीते जमाने की बातें होंगी.
बुरे दिनों से शिकायत सी एच महेश को भी है. सोफ्टवेयर और हार्डवेयर इंस्टाल करने के व्यवसाय से जुड़े महेश भी व्यवसाय के दुर्दिन के आगे असहाय हैं. फ़िर भी ये अपनी तकलीफ बताने के बजाय सड़क के दूसरी ओर बैठी के लक्ष्मी नाम की बुधी महिला की ओर इशारा करते हैं, जो चुप बैठी हुई है. फलों के जूस की दूकान की मालकिन इस बूढी महिला की दूकान पर कहाँ तो कतार में खडा होना पड़ता तह एक ग्लास जूस के लिए, अब कुछेक ग्राहक ही रह गए हैं.

छात्रावास भी आधे से अधिक खाली पड़े हैं. सैप मॉड्यूल के एक छात्र कौशल कुमार का कहना है कि इन छात्रावासों की रिहाईस में 40% तक की कमी आई है. आई टी क्षेत्र में अपना भविष्य ढूंढ रहे दिल्ली के एक छात्र अखिलेश का कहना है " बैठ कर इंतज़ार कर सकने का संसाधन सबके पास मौजूद नही है. वैश्विक मंदी और सत्यम को धन्यवाद की हम जैसो के लिए निकट भविष्य में रोजगार की कोई संभावना नही दिख रही है. लग रहा है आने वाले दिनों में गिरावट को बढ़ते ही जाना है." अखिलेश फिलहाल हैदराबाद में रुके हुए है और नौकरी के सुखद संदेश का इंतज़ार कर रहे हैं.

अगर आप पहले कभी येर्रागुड्डा आ चुके हो, उन दिनो जब यहाँ रौनके रहा करती थीं, तो अभी एक बार फ़िर जरुर आयें. पसरी हुई वीरानी में आपको आपकी पिछली यात्रा की अनुगूँज लगातार सुनाई देगी. ऐसे में आप एक बार को ही सही पर ये जरुर सोचेंगे कि येर्रागुड्डा को फ़िर से इसकी रौनक वापस कए जा सकती है या नही?

Wednesday, October 28, 2009

मुख्यमंत्री सीरिज – 1

मुख्यमंत्री का पौत्र

मैं हरियाणे का नाम तो नहीं लूँगा, पर एक समय की बात है, किसी राज्य के उपहार पसन्द मुख्यमंत्री के घर पौत्र का जन्म हुआ। “बधाई हो” की रागिनी बजने लगी। अपनी हाजिरी बजाते रहने वालों को मौका मिला, पौत्र के दर्शन (असल मे मुख्यमंत्री के दर्शन के लिये, रे बाबा) बड़े-बड़े लोग आते रहे, जाते रहे। जो भी आता, वो पौत्र के लिये उपहार जरूर ला रहा था। अब जबकि बच्चा अभी दो दिन का था और उसकी पसन्द नापसन्द का किसी को अन्दाजा नहीं था, इसलिये उपहार लाने वालों ने मुख्यमंत्री के पसन्द को ही तरजीह दिया। फिर भी कोई मूर्ख ही होगा जो यह पता लगाने मे अक्षम हो कि मुख्यमंत्री जी पौत्र की पैदाईश से खुश थे या उपहारों से?
एक बहुत बड़े व्यवसायी को देर से फुर्सत मिली और वो अपनी मर्सीडिज से गिरता – भागता दरबार तक पहुँचा। हाथ मे वही – ठीक ठाक सा उपहार। नन्हे के पालने तक गये पर उन्हे देख मुख्यमंत्री की खुशी का पारावार नहीं रहा। उछलते हुए व्यवसायी तक पहुंचे, मामूली उपहार को किनारे किया और व्यवसायी के हाथ से मर्सीडिज की चाभी ले ली। व्यवसायी को पालने पर झुकाते हुए मुख्यमंत्री ने, दो दिन के उस नन्ही जान को सुनाते हुए, कहा: “देखो बेटा, अंकल तुम्हारे लिये बड़ी गाड़ी लेकर आये है। अंकल को थैंक्स बोलो।” इतना कहकर महंगी कार की चाभी मुख्यमंत्री ने पालने मे डाल दिया।
मुख्यमंत्री ने कहा: “सुना आपने? ये आपको थैंक्स बोल रहा है”।
व्यवसायी ने खूब जोर लगाया तब जाकर उसे हंसी जैसी आई और कहा: “हाँ”।
वो परेशान व्यवसायी ऑटो रिक्शे से घर लौटा । कभी आप उससे मिलिये, वो बतायेगा कि वो उस ‘अब नही’ मुख्यमंत्री के कितना करीब है?

Monday, October 26, 2009

शर्म तुमको मगर नहीं आती.

(यह टिप्पणी युवा आलोचक डॉ.कृष्णमोहन की है।)

‘‘समकालीन जनमत’’ के अक्टूबर 2008 अंक में मिर्ज़ा ग़ालिब पर लिखे नीलकांत के लेख ’हम सुख़नफ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं’ पर एक टिप्पणी मैंने संपादक को भेजी थी। बातचीत में इसका ज़िक्र रामजी राय, प्रधान संपादक से भी किया था, जिसका उन्होनें स्वागत किया था। के.के. पाण्डेय, प्रबन्ध संपादक ने पत्र मिलने की सूचना फोन पर दी थी। इसके लगभग एक साल बाद ’’समकालीन जनमत’’ का नया अंक आया है। इसमें इस देरी अथवा पिछले अंक की सामग्री के बारे में पाठकों के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं है। शायद यह पत्रिका अपने पाठकों के प्रति कोई जवाबदेही नहीं महसूस करती। वरना कोई वजह नहीं थी कि ‘57 की क्रान्ति का शायर’ मानकर जिस ग़ालिब पर इसने अंक केंद्रित किया था, उसके बारे में प्रकाशित इतनी भ्रामक बातों के प्रति ज़िम्मेदारी का रत्ती भर भाव न होता। यही नहीं, उस लेख के साथ जो संपादकीय टिप्पणी छपी उसने सम0 जनमत के संपादक मण्डल के दिमागी दिवालिएपन को ही ज़ाहिर किया। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘‘नीलकांत जी ने इस लेख को काफी मेहनत से लिखा है। साहित्य और इतिहास को किस तरह से पढ़ा जाना चाहिए यह इसका उदाहरण तो है ही, अपने समय से लेकर आज तक निर्विवाद रूप से लोकप्रिय उस्ताद शायर को आधुनिकता और प्रगतिशील जीवनबोध के पैमाने पर देखने की यह गंभीर कोशिश है।... गालिब को दर्शन का कितना ज्ञान था, इस पर बहसें होती रहेंगी। लेकिन उनका संवेदनात्मक ज्ञान कितना गहरा था, वह किस हद तक मार्क्स के विचारों के समतुल्य जा ठहरता है, पाठक नीलकांत के इस लेख में देख पाएंगे।’’
हाथ कंगन को आरसी क्या। आइए पहले मेरी टिप्पणी के हवाले से इसके कुछ चुनिंदा अंशों को देख लें। मेरा पत्र इस प्रकार था-

महोदय,
‘‘समकालीन जनमत’’ के अक्टूबर 2008 के अंक में छपे नीलकांत के लेख ’हम सुख़नफ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं’ पढ़कर घोर निराशा हुई। जिस तरह खींचतान करके वे ग़ालिब के अशआर को सतही राजनीतिक खाँचों में फिट करते हैं, काव्यप्रेमी पाठकगण ख़ुद ही उस पर ग़ौर करेंगे। यहाँ मैं सिर्फ़ एक शेर की आपत्तिजनक व्याख्या का प्रतिवाद करना चाहता हूँ, और उससे पहले कुछ शेरों के पाठ को दुरुस्त करना । पहले ग़लत पाठ देखें-
(1) है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हमने दस्त-ए-इम्काँ को एक नक्श-ए-पा समझा (पेज-16)
इसका दूसरा मिसरा इस तरह होना चाहिए-
हमने दस्त-ए-इम्काँ को एक नक्श-ए-पा पाया
(2) जिसमें सौ-सौ बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई (पेज-18
(इसे ग़ालिब का शेर बताया है लेखक ने, जबकि यह यह दाग़ देहलवी का शेर है।)
इसका पहला मिसरा ऐसे होगा-
जिसमें लाखों बरस की हूरें हों
और दूसरे मिसरे में ‘को’ की जगह ‘का’ आ जाएगा ।
(3) है कोई ऐसा जो ग़ालिब को न जाने
आदमी तो अच्छा है पै बदनाम बहुत है (पेज-19)
इसके दोनों मिसरे बदलकर इस प्रकार हो जाएंगे-
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
(4) हमको है उनसे वफा की उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है (पेज-21)
इसका पहला मिसरा होगा-
हमको उनसे है वफ़ा की उम्मीद
इसी रौ में दा़ग़ देहलवी का एक और लोकप्रिय शेर ग़ालिब के नाम से आ गया है-
दी मुअज्जिन ने अज़ां वस्ल की शब पिछले पहर
हाय! कमबख़्त को किस वक्त खुदा याद आया
इसका पहला मिसरा इस प्रकार होगा-
दी मुअज्जिन ने अज़ां शब-ए-वस्ल को पिछले पहर
ये सभी उदाहरण उन शेरों के हैं जो काव्यप्रेमियों की जु़बान पर चढ़े हुए हैं और पहली. नज़र में ही इनकी ग़लती मालूम हो जाती है। दूसरी छोटी-मोटी गलतियाँ दर्जनों हैं जिन्हें प्रूफ़ की ग़लती मानकर यहाँ मैं छोड़ रहा हूँ।
व्याख्याओं में सबसे आपत्तिजनक व्यवहार ग़ालिब के इस शेर के साथ हुआ है-
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
ह़मको तकलीद-ए-तुनुक ज़रफि-ए-मंसूर नहीं (पेज-19)
लेखक कहता है- ‘‘उग्र वामपंथ एक बचकाना रोग है, लेनिन ने कहा था। मंसूर अपने ओछे अहंकार के चलते सूली पर चढ़ा दिया गया। ग़ा़लिब कह़ते हैं कि मेरा अस्तित्व भी असीम है, किन्तु मुझे मंसूर का बचकानापन मंजूर नहीं है। 57 का मंसूर अगर्चे बचकानेपन का शिकार हो गया, तो भी काबिले तारीफ था।’’ (वही)

यहाँ निवेदन यह है कि 1857 और उससे प्रेरणा लेने वाले वाम आन्दोलन का अवमूल्यन करने की जल्दबाज़ी में लेखक को ध्यान ही नहीं रहा कि शेर के दूसरे मिसरे में ‘तकलीद-ए-तुनुक’ (कम अनुसरण) और ‘ज़रफि-ए-मंसूर’ (मंसूर की गहराई) अलग-अलग शब्द -युग्म हैं। इसका एकमात्र अर्थ होगा कि ‘हममें मंसूर की क्षमता का अभाव है, इसलिए हम अपने दरिया का थोड़ा ही अनुसरण कर पाते है।’ ( अगर इसकी जगह ‘तुनुकज़रफि-ए-मंसूर’ होता तो उसका अर्थ मंसूर की कम गहराई अथवा ओछापन किया जा सकता था।) क़तरा और दरिया के रूपक को अंश और संपूर्ण के किसी भी रूप पर लागू कर सकते हैं। मंसूर जैसे शहीद को बार-बार ओछा कहकर लेखक ने अपने ही ओछेपन को गालिब के मत्थे मढ़ने की कोशिश की है। इस प्रकार उसने दरअसल, शहादत को एक मूल्य के रूप में नकार दिया है। 1857 के शहीदों के लिए अलंकृत शैली में जो कुछ उसने कहा है, वह भी उसकी इस हरकत से संदिग्ध हो उठता है।

कृष्णमोहन.

मित्रों,
अगर यह ‘प्रगतिशील जीवनबोध और संवेदनात्मक ज्ञान’ है तो घड़ियाली आँसू बहाना किसे कहते हैं! 1857 पर क़ब्ज़े की जल्दी में यह टिप्पणी लिखकर ‘समकालीन जनमत’ के संपादक ने साबित कर दिया कि उसका ज्ञान भी ‘किसी हद तक मार्क्स के विचारों के समतुल्य जा ठहरता है।’ अब कौन किससे कहे-
काबे किस मुँह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती।

यह भी..

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Sunday, October 25, 2009

लीशू की कवितायें

बारहवीं की छात्रा लीशू ने कविता की कठिन परंतु गर्वीली राह पकड़ी है। मैने इनकी पहली कविता तब सुनी थी जब ये सातवीं मे थीं। हर्ष के साथ कहूँ कि यहॉ इनकी दो कवितायें Fan तथा afternoons पेश हैं। आइये, हम सब मिलकर इस नई कवियत्री का स्वागत करें :-

FAN

There is a circle inside a circle,
They call it eternal,
There is a circle inside a circle,
And there is a lot of science filled inside it.
There are lots of entangled wires of Physics,
And chords and hard and ugly metal,
Giving it its spherical shape.
The Physics inside it may be imperative,
But it certainly isn’t attractive,
It’s so pathetic, that it is completely hidden,
Almost invisible,
So invisible the toddlers don’t even see it.
Yet, it is a part of the sphere.
The sphere suspends three hands,
The hands resemble the clock,
But they don’t move time,
They move air.
Instigating comfort, convenience and all other words in the dictionary that mean the same,
The sphere is rightly placed at the top,
But perhaps, Science fails to provide beautiful faces to its expansions,
For not a single eye admires the eternal-mechanical sphere.
Probably, it’s the only thing that hangs from the height,
Where others strive to be,
And yet,
It’s the only thing,
That knows how secluded it feels,
To be on the lonely pole,
How lunatic it is,
To go on and on and on,
On the command of a miniscule finger,
And maybe,
It’s the only thing,
God shall never listen to-
For Science,
Denies God.
And maybe,
It’ll always hang there;
A circle within a circle.

Afternoons.


The biscuit sun exists.
I have seen it.
My son has chewed bits of it.
It’s so soft and humble.
It melts in the mouth.
But I see no sugar around.
Maybe his tongue plays tricks.
Or maybe he has learnt that gimmick from the black clown we had.
By the way he was our cook.
He made sumptuous turkey.
I am not like the other Feudal women.
I let him eat in the kitchen after dark.
Tim liked him.
By the way, Tim is my son.
I went for motion pictures.
They were also called black and white.
I am not a blonde.
The Brunette in me thinks, that they are not black and white.
They are black and grey.
Tim is four years old.
He has a bike.
Jim makes him ride it.
What a delight to watch him saddle his horse.
Thank God, he’s a boy.
Samantha said, Jim is a boy too.
I say shut up.
He is our cook.
Then I remember My nanny.
She told me the sun was orange.
But when I grew older, I discovered it was yellow.
Then one day I asked her.
Why she lied to me.
She said she didn’t.
It was orange and even red in the part she came from.
Then I told my teacher.
She spanked me.
Nanny was black.
I was baking cookies once.
They came out hard.
I refused to eat them.
Tim puked after he did.
I did the sensible thing after that.
I gave it to Jim.
My neighbour’s wife calls me so generous.
She says she keeps a bamboo stick with her.
You never know with servants.
Time runs so fast.
I was watching this song on Mtv.
I am 50 now.
A black boy surrounded by black and white skimpy girls.\
He’s topping the billboard.
But what a pity.
He doesn’t sing at all.
He just mutters breathlessly.
Rhythm and poetry I can write much better.
Then there is this girl.
Making songs on an umbrella.
But c’mon.
The flat noses can’t be pretty.
What ahs the world come too.
I look out of my window.
It’s not summer anymore.
The sun is like the moon.
Both pale, mellow.
It loses it’s luster.
But I still find the luster in my past.
When I recount Tim riding his bike.
But Tim never cared for a sunbath.
Or anything else.
He’s married a Blonde now.
It’s lucky to be the only brunette in the family.
And then the sun sets.
When I sleep,
I dream of it.
It doesn’t even come out orange.
It’s biscuit.
And Tim relishes it.
Then Tim’s face blurs.
I don’t see him at all.
Instead,
I get all my luster back.
I discover the biscuit sun exists.
And it’s prettier than anything I have ever seen.
It’s been a long time.
I see a man standing with open arms.
After all that has happened in the past.
He’s not violent.
He’s not grey and black.
He is full of sparkle.
He lives where the biscuit sun exits.
And I smile in my sleep.
The man is Jim.



Monday, August 24, 2009

"नई बात" की प्रस्तावना - चन्दन पाण्डेय

मेरा नाम चन्दन पाण्डेय है और मैं कहानियां लिखता हूँ. ब्लॉग की नयी दुनिया में यह मेरा पहला प्रयास है. पर इस ब्लॉग को बनाने से पहले ही मैंने यह तय कर लिया था कि इसपर लिखा क्या जाएगा? आपके पास कहने के लिए ऐसा कुछ हो जो चीजो को देखने कि नयी दृष्टि दे या फिर अगर पुरानी बात भी कहनी हो तो वही बातें जिसका दुहराया जाना नितांत आवश्यक हो.
दुहराव के पक्ष में मैं हमेशा से हूँ..अगर सूरज दुबारा दुबारा न निकले तो मुश्किल हो जाए, मौसम बार बार न आयें तो भी मुश्किल हो, और याद..इसके दुहराव के बिना तो शायद ही कोई लक्ष्य हासिल हो. बचपन में नए पाठ याद करने के लिए पापा ने पाठ को दुहराते रहने की सलाह दी थी.
अगर आपको लगता है कि आपके पास कहने को क्या कुछ है, कोई फ़िक्र, कोई विचार, कोई राय, कोई टिपण्णी ...तो आपका नई बात पर स्वागत है..